खूबसूरत पहाड़ियों से घिरा छत्तीसगढ़ का एक पर्यटन स्थल है-सतरेंगा। खनिज संपन्न देश में ऊर्जा के एक बड़े केंद्र कोरबा जिले में अवस्थित इस स्थल की सबसे बड़ी पहचान कोरवा जनजाति है। कोरवा और सरगुजा में निवासरत पंडो आदि जनजाति को ‘राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र’ के रूप में मान्यता प्राप्त है। इन्हें संविधान के द्वारा भी अनेक संरक्षण मिले हैं। इसी सतरेंगा के निवासी पहाड़ी कोरवा सुखसिंह की पत्नी सोनी बाई कोहनी में मामूली टूट के इलाज के लिए कोरबा के जिला अस्पताल में अपने बेटे के साथ पहुंची थीं। वहां एक बिचौलिए ने उन्हें एक निजी अस्पताल भेज दिया, जहां आॅपरेशन से पहले ही उनकी मौत हो गई। कारण, डॉक्टर की लापरवाही और गलत दवाएं। कोहनी की हड्डी के इलाज के दौरान ही इस पहाड़ी कोरबा महिला को जान से हाथ धोना पड़ा। वैसे यह छत्तीसगढ़ की स्वास्थ्य एवं कानून व्यवस्था में खामी का ऐसा कोई अनोखा मामला नहीं है। भाजपा सांसद रामविचार नेताम के सवालों के जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने जानकारी दी कि छत्तीसगढ़ में 955 महिलाओं ने तो केवल प्रसव के दौरान दम तोड़ दिया।
इसके अलावा उच्च सदन में दी गई जानकारी के अनुसार, पिछले तीन वर्ष में छत्तीसगढ़ में 25,164 वनवासी बच्चों की जान गई है। इन बच्चों में 13 हजार से अधिक नवजात शिशु और 3,800 से अधिक छोटे बच्चे-बच्चियां थीं। दुर्भाग्य की बात यह है कि अधिकांश की मौत निमोनिया, खसरा, डायरिया जैसी आजकल मामूली समझी जाने वाली बीमारियों के कारण हुई। हालांकि प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव ने इन आंकड़ों पर टिप्पणी से इनकार किया है। भाजपा प्रवक्ता एवं पूर्व मंत्री केदार कश्यप कहते हैं, ‘‘प्रदेश की कांग्रेस सरकार के निकम्मेपन और बदहाल हो चली स्वास्थ्य सेवाओं का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है! प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव भी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर बड़ी-बड़ी डींगें हांकते रहते हैं, जबकि जमीनी हकीकत यह है कि प्रदेश सरकार की बदनीयती, कुनीतियों और नेतृत्वहीनता के चलते प्रदेश के लोग बेहतर इलाज के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और इलाज के बदले उन्हें मौत मिल रही है।’’
इससे पहले, सरगुजा संभाग में विशेष संरक्षित पंडो जनजाति के 50 से अधिक लोगों की रहस्यमय तरीके से मौत हो गई थी। इसके लिए भूख और कुपोषण को कारण बताया गया। प्रदेश में बच्चों व महिलाओं की मौत ने सरकार के ऐसे कथित सुपोषण अभियान को आईना दिखाया है। बकौल प्रदेश में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक, ‘‘प्रदेश में कथित सुपोषण अभियान भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है। कुपोषण में मार्च 2021 से जुलाई 2021 तक 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है तथा प्रदेश पोषण के मामले में 30वें स्थान पर है जो शर्मनाक है। प्रदेश में 61 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं।’’ विधानसभा में इस बात को स्वीकार किया गया है कि मार्च 2020 में कुपोषण की दर 18.22 प्रतिशत थी जो मार्च 2021 में यह 15.15 प्रतिशत हो गई थी। कुपोषण की दर जुलाई 2021 में 19.86 प्रतिशत हो गई अर्थात् जुलाई 2021 की स्थिति से कुपोषण की दर में 4 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
केंद्र सरकार द्वारा कुपोषण के खिलाफ लड़ाई के लिए करीब 1500 करोड़ रुपये दिए गए, जबकि लगभग 400 करोड़ रुपये सुपोषण अभियान के लिए डीएमएफ व सीएसआर मद से उपलब्ध कराए गए। प्रदेश में लगभग 3000 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी कुपोषण के खिलाफ जारी लड़ाई में प्रदेश सरकार नाकाम रही है। इससे अधिक शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि जो प्रदेश धान का कटोरा कहा जाता हो, वहां के माटी पुत्र-पुत्रियों की कुपोषण से मौत हो जाए, जबकि यहां सुपोषण के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं। हालत यह है कि इन संरक्षित जनजातियों के हित में काम करने के बजाय प्रदेश के एक कैबिनेट मंत्री ने संरक्षित जनजाति की जमीन हड़प ली थी, विपक्ष द्वारा इस मामले को उठाने और मीडिया में आ जाने के कारण अंतत: वनवासी परिवार को जमीन वापस मिली।
जहां तक स्वास्थ्य व्यवस्था का सवाल है तो छत्तीसगढ़ के बस्तर से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आयुष्मान भारत योजना’ की शुरुआत की थी। उससे पहले भी प्रदेश में भाजपा की सरकार के समय भी स्मार्ट कार्ड योजना से हर व्यक्ति का 50 हजार रुपये तक का इलाज मुफ्त होता था। लेकिन सत्ता में आते ही कांग्रेस ने इन सभी योजनाओं को खत्म करते हुए खुद की योजना लाने की कोशिश की। स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव ने कार्यभार संभालते ही थाईलैंड जाकर वहां की चिकित्सा व्यवस्था का अध्ययन किया। लेकिन सब ढाक के तीन पात ही साबित हुआ। न तो कोई नई व्यवस्था आ पाई और न ही पुरानी व्यवस्था ही संचालित हो सकी। ढाई-ढाई साल के फॉर्मूले पर मुख्यमंत्री बने भूपेश बघेल को सत्ता स्वास्थ्य मंत्री को हस्तांतरित करनी थी। लेकिन इसके लिए खींचतान के कारण हमेशा स्वास्थ्य विभाग को खामियाजा भुगतना पड़ा। हालत इतने खराब हो गए थे कि स्वास्थ्य विभाग की बैठक में ही स्वास्थ्य मंत्री को नहीं बुलाया जाता था। कोरोना की विभीषिका के बीच मंत्री सिंहदेव मुंबई में जाकर बैठ गए थे।
अविभाजित मध्यप्रदेश के जमाने से ही प्रदेश के वनवासी सबसे उपेक्षित और शोषित रहे। तमाम प्राकृतिक एवं वन्य संपदा के बावजूद यहां के वनवासी आंत्र शोध जैसी बीमारियों का शिकार होकर मरते रहे थे। वे अपनी कीमती वन्य संपदा, चिरौंजी जैसी फसल कौड़ियों के भाव बेचते रहे थे। कांग्रेस के जमाने में उनके साथ हुए अन्यायों की अंतहीन गाथा है। प्रदेश बनने के बाद इनके दिन बहुरने की आस बंधी। डॉ. रमन सिंह की सरकार ने इनके लिए चिकित्सा, भोजन और शिक्षा समेत सभी क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये थे। उन तक लगभग मुफ्त चावल, नमक आदि पहुचाने की योजना तो विश्व स्तर पर चर्चित हुई थी। लेकिन हाल के वर्षों में हालत फिर से भयावह हो गए हैं। बड़ी मुश्किल से प्रदेश ने मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर को कम करने में सफलता हासिल हुई थी। मातृ मृत्यु दर वर्ष 2003 में प्रति एक लाख पर 365 थी, जो 2018 तक घट कर 173 हो गई। इस अवधि में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 70 से घट कर 39 रह गई थी। राज्य में बच्चों के सम्पूर्ण टीकाकरण का प्रतिशत 48 से बढ़कर 76 और संस्थागत प्रसव का प्रतिशत 18 से बढ़कर 70 हो गया था। लेकिन पिछले तीन साल में बच्चों की मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ते जाना चिंताजनक है।
अभी राज्यसभा में दिए भयावह आंकडे को देखने से लगता है कि अब तो कांग्रेस सरकार की नींद खुलनी चाहिए। हालांकि इसकी उम्मीद कम ही है कि स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री के बीच छिड़ी जंग पर इन हजारों नौनिहालों की मौतें भी लगाम लगा पायें।
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