मोनिका अरोड़ा
समान नागरिक संहिता का अर्थ है पूरे देश के लिए एक कानून और शादी व तलाक से लेकर विरासत एवं संपत्ति तक के मामलों में सभी पांथिक समुदायों के साथ एक समान व्यवहार लागू करने की व्यवस्था। इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के एक भाग के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। इसमें कहा गया है कि सरकार प्रयास करेगी कि भारत के संपूर्ण अधिक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू हो। भारत के आपराधिक कानून सार्वभौमिक हैं और पांथिक विचारों की परवाह किए बिना सभी पर लागू होते हैं, परंतु नागरिक कानून आस्था से प्रभावित होते हैं। नागरिक विवादों में लागू होने वाले व्यक्तिगत कानून हालांकि मजहबी स्रोतों से प्रभावित होते हैं, तथापि वे संवैधानिक नियमों के अनुसार लागू होते हैं।
शाहबानो मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि संसद को एकल नागरिक संहिता की रूपरेखा को परिभाषित करना चाहिए, क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय शांति और समानता को बढ़ावा देता है। इसके बावजूद तत्कालीन सरकार ने इस समस्या की अनदेखी की और 1986 में तलाक पर मुस्लिम महिला अधिकार संरक्षण अधिनियम पारित किया। तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) की प्रथा को सर्वोच्च न्यायालय ने गैरकानूनी माना है |
व्यक्तिगत कानून क्या हैं?
ऐसे कानून जो लोगों के एक निश्चित समूह पर उनके पंथ, जाति, आस्था या विश्वास के साथ-साथ रीति-रिवाजों और पांथिक साहित्य के आधार पर लागू होते हैं। हिंदू और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून हजारों साल से पांथिक ग्रंथों पर आधारित हैं। हिंदू व्यक्तिगत कानून हिंदू धर्म में विरासत, उत्तराधिकार, विवाह, दत्तक ग्रहण, सह-पालन, अपने पिता के कर्ज का भुगतान करने के लिए बेटों के कर्तव्य, पारिवारिक संपत्ति का विभाजन, रखरखाव, संरक्षकता और दान जैसी बातों के कानूनी पक्षों पर लागू होते हैं। मुस्लिम व्यक्तिगत कानून कुरान पर आधारित हैं और विरासत, वसीयत, उत्तराधिकार, दायभाग, विवाह, वक्फ, दहेज, संरक्षकता, तलाक, उपहार और पूर्व-ग्रहण जैसे विषयों पर लागू होते हैं।
समान नागरिक संहिता का इतिहास
वर्ष 1835 में ब्रिटिश सरकार ने एक रपट प्रस्तुत की थी, जिसमें साक्ष्य, अपराध और संपत्ति से संबंधित भारतीय कानूनों के संदर्भ में एकरूपता के महत्व पर जोर दिया गया था। हालांकि, इस रपट में यह भी जोर देकर कहा गया था कि हिंदुओं और मुसलमानों को इस तरह की संहिता के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। भारत में जब ब्रिटिश शासन समाप्ति की ओर था, उस समय तक व्यक्तिगत नियमों से संबंधित कानून काफी ज्यादा हो चुके थे जिसके कारण अंतत: सरकार बीएन राव समिति बनाने के लिए बाध्य हुई। इसके तहत हिंदुओं पर लागू होने वाले कानूनों को व्यापक रूप से संहिताबद्ध किया जाना था। इस समिति की सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं में उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संहिताबद्ध करने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लाया गया था।
लक्ष्य और उद्देश्य
इस प्रयास का उद्देश्य कानूनों का इस तरह से सुदृढ़ीकरण करना था कि सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार हो तथा एकरूपता और समानता सुनिश्चित की जा सके। उदाहरण के लिए भारतीय अनुबंध अधिनियम को संहिताबद्ध करने की आवश्यकता तब महसूस की गई जब प्रेसिडेंसी नगरों के अलावा अन्य क्षेत्रों में विभिन्न कानून प्रचलित थे। इस कारण अनुबंधों की व्यापक समझ और उनके निष्पादन में बाधा पड़ती थी। इसी के परिणामस्वरूप 1872 में भारतीय अनुबंध अधिनियम लागू किया गया था। इसी तरह नागरिक प्रक्रिया संहिता, भागीदारी अधिनियम, सम्पत्ति हस्तांतरण अधिनियम और साक्ष्य अधिनियम जैसे कई अन्य अधिनियमों को एक समान कानूनी प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए अस्तित्व में लाया गया।
पूरे देश में समान नागरिक संहिता को अपनाने से कई प्रकार के लाभ मिल सकते हैं। इससे न केवल संहिताबद्ध कानूनों का सरलीकरण सुनिश्चित होगा, बल्कि समान नागरिक कानून लागू होने से समानता को प्रोत्साहन मिलेगा। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य कमजोर वर्गों की रक्षा करना भी है। एक अन्य आदर्श जिसे समान नागरिक संहिता के माध्यम से प्राप्त किया जा सकेगा वह है पंथनिरपेक्षता। पंथनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और प्रस्तावना में इसका विधिवत उल्लेख मिलता है। पांथिक आस्थाओं की चिंता किए बिना सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता होने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि सभी पांथिक समुदाय एक ही कानून के अधीन हैं।
समान नागरिक संहिता विधेयक
समान नागरिक संहिता विधेयक एक ऐसा विधेयक है जो समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करता है। भारतीय जनता पार्टी ने भारत के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले सभी नागरिकों के लिए मजहब, जाति अथवा अन्य कारकों के प्रभाव से मुक्त एक समान नागरिक संहिता या कानून बनाने के लक्ष्य के साथ 2018 में लोकसभा में ‘भारत में समान नागरिक संहिता विधेयक, 2018’ प्रस्तुत किया था। इसका उद्देश्य है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में सन्निहित समानता के अधिकार को लागू करने के साथ-साथ अनुच्छेद 15 में निहित मजहब, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव के निषेध को व्यवहार में लागू करना। इसके माध्यम से पांथिक विश्वासों पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों को तुलनात्मक रूप से अधिक समान कानूनी संरचना के पक्ष में चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाना था। इसका एक अन्य उद्देश्य भारतीय कानूनी व्यवस्था में अपर्याप्त और भिन्नतापूर्ण कानूनों के कारण महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को समाप्त करना था।
न्यायालयों की राय
1985 के प्रसिद्ध शाहबानो जैसे अनेक मामलों में भारत के न्यायालयों ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को मान्यता दी है। इसी तरह, सरला मुद्गल मामले का संबंध विवाह के मामले में व्यक्तिगत कानूनों के बीच साम्य न होने के मुद्दे पर विचार किया गया था। शाहबानो मामले में केंद्र सरकार ने सभी पांथिक समुदायों के नागरिकों को समान संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का सवाल उठाया था। यह भी तर्क दिया गया कि व्यक्तिगत कानूनों में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि सभी के मौलिक अधिकारों का सम्मान किया जाना सुनिश्चित किया जा सके। उसी फैसले में यह टिप्पणी भी की गई थी कि गोवा समान नागरिक संहिता का एक 'शानदार उदाहरण' है, जहां 'कुछ अधिकारों की रक्षा करते हुए मजहबी सीमाओं से परे समान नागरिक संहिता सभी के लिए लागू है।' इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले के अनुसार, ''समान नागरिक संहिता एक आवश्यकता है और इसका पालन अवश्य किया जाना चाहिए। भारत में समान नागरिक संहिता की अवधारणा को समझा जाना आवश्यक है।'' सर्वोच्च न्यायालय ने मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ मामले में संविधान के निर्देशक सिद्धांतों के महत्व को मान्यता देते हुए निर्णय दिया कि मौलिक अधिकारों को निर्देशक सिद्धांतों से सुसंगत बनाया जाना चाहिए, क्योंकि यह सुसंगति संविधान के मूल तत्वों में से एक है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम और अन्य मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के मुद्दे पर निर्णय दिया था। शाहबानो के पति ने उसे तलाक दे दिया था। मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि संसद को एकल नागरिक संहिता की रूपरेखा को परिभाषित करना चाहिए, क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय शांति और समानता को बढ़ावा देता है। इसके बावजूद तत्कालीन सरकार ने इस समस्या की अनदेखी की और 1986 में तलाक पर मुस्लिम महिला अधिकार संरक्षण अधिनियम पारित किया। तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) की प्रथा को सर्वोच्च न्यायालय ने गैरकानूनी माना है।
लिली थॉमस बनाम भारत संघ और एबीसी बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) मामलों में उच्चतम न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में समान नागरिक संहिता के महत्व पर जोर दिया और दूसरे मामले में माना कि कोई एकल ईसाई मां एकमात्र संरक्षकत्व के लिए आवेदन कर सकती है। उल्लेखनीय है कि 1890 का अभिभावक और पाल्य अधिनियम प्राकृतिक पिता की सहमति के बिना बच्चे के अभिभावकत्व के संबंध में ईसाई एकल माताओं के अधिकार को मान्यता नहीं देता था। अदालत ने ऐसी स्थितियों में होने वाली कठिनाइयों के लिए एकीकृत नागरिक कानून की कमी का उल्लेख किया।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पन्नालाल बंसीलाल पाटिल बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1996) में निष्कर्ष निकाला, ''एक समान कानून अत्यधिक वांछनीय होते हुए भी पूरे देश में एक साथ लागू किए जाने पर राष्ट्र की एकता और अखंडता के खिलाफ हो सकता है। कानून के शासन द्वारा नियंत्रित लोकतंत्र में परिवर्तन और व्यवस्था को धीरे-धीरे लागू किया जाना चाहिए। कानून बनाना या मौजूदा कानून में संशोधन करना एक लंबी प्रक्रिया है और विधायिका सबसे पहले ज्यादा जरूरी आवश्यकताओं को पूरा करने की कोशिश करती है।’
भारत में जब ब्रिटिश शासन समाप्ति की ओर था, उस समय तक व्यक्तिगत नियमों से संबंधित कानून काफी ज्यादा हो चुके थे जिसके कारण अंतत: सरकार बीएन राव समिति बनाने के लिए बाध्य हुई। इसके तहत हिंदुओं पर लागू होने वाले कानूनों को व्यापक रूप से संहिताबद्ध किया जाना था। इस समिति की सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं में उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संहिताबद्ध करने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लाया गया था |
2003 के जॉन वल्लामट्टम और अन्य बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि किसी सभ्य समाज में मजहबी और व्यक्तिगत कानून के बीच कोई आवश्यक संबंध नहीं होता।
2014 से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अपने आम चुनाव घोषणापत्र में कहा था, ‘भाजपा का मानना है कि भारत जब तक महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने वाली समान नागरिक संहिता नहीं अपनाता, तब तक लैंगिक समानता नहीं हो सकती और भाजपा सर्वोत्तम परंपराओं पर आधारित तथा आधुनिक समय के साथ उनका सामंजस्य स्थापित करते हुए समान नागरिक संहिता बनाने के अपने रुख को दोहराती है।’
समान नागरिक संहिता समान रूप से आकल्पित विधायन के लिए एक अवधारणा है जो भारत में व्यक्तिगत पांथिक और नागरिक कानून के सभी क्षेत्रों की रक्षा करेगी। देश में पंथनिरपेक्षता स्थापित करने के लिए समान नागरिक संहिता हर मजहब को एक समान व्यक्तिगत कानून प्रदान करते हुए विभिन्न मत—पंथों, जातियों, वर्गों आदि के व्यक्तिगत कानूनों को खत्म कर देगी।
हिजाब विवाद और समान नागरिक संहिता
भारत के पंथनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक गणराज्य के भविष्य और इस्लामीकरण की आशंकाओं के बीच समान नागरिक संहिता को तत्काल लागू करने का दबाव बढ़ रहा है, जो पंथनिरपेक्षता और बहुलतावाद जैसे देश के मूलभूत विचारों को कमजोर करने के लिए विशेष रूप से मुस्लिमों द्वारा व्यक्तिगत कानूनों के दुरुपयोग को रोकने का काम करेगा। मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहनने की अनुमति देने के लिए व्यक्तिगत कानूनों की दलील दी गई है, जबकि अन्य छात्र बिना किसी धार्मिक प्रतीक का इस्तेमाल किए स्कूल की वर्दी में होते हैं। जिन व्यक्तिगत कानूनों का कहीं भी समेकित रूप में प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता उन पर निर्भरता किसी भी पांथिक समुदाय के कट्टरपंथी समूहों को उन मामलों में पंथ और व्यक्तिगत कानूनों को उद्धृत करने का बहुत आसान अवसर देती है जिनमें सरकार का रुख उनकी मान्यताओं और विचारों के खिलाफ होता है।
देश के मुसलमानों पर लागू होने वाला एक व्यापक और संहिताबद्ध कानून होने से सामान्यत: समुदाय को बेहतर तरीके से समझने की सुविधा देगा और इसके आधार पर किसी भी भ्रामक बयान को रोका जा सकेगा। स्वतंत्रता के बाद से परिवर्तन और संहिताकरण को हिंदू विशेष रूप से स्वीकार करते रहे हैं। चाहे वह विरासत का मामला हो या शादी का। हिजाब विवाद से प्रेरित बड़ी बहस का उद्देश्य इस बात पर ध्यान केंद्रित करना है कि कैसे सही मायने में समान और पंथनिरपेक्ष समाज का अस्तित्व सुनिश्चित करने के लिए व्यक्तिगत कानूनों पर निरंतर और अवांछित निर्भरता को समाप्त किया जा सकता है। संहिताकरण से वस्तुनिष्ठता आएगी और पांथिक समुदाय के कमजोर वर्गों को मोहरे के रूप में इस्तेमाल होने से बचाएगी। वैकल्पिक रूप से समान नागरिक संहिता से निर्दिष्ट होगा कि भारत में मौजूद सभी मत—पंथ एक समान कानूनों द्वारा शासित हों। इससे अधिक वस्तुनिष्ठता भी सुनिश्चित होगी और यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि सभी नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार मिल सकें। इसके अलावा, किसी उल्लंघन की स्थिति में किसी भी अधिकार की बहाली के लिए अदालत पहुंचना भी सभी के लिए सुलभ होगा, क्योंकि लिखित कानून होने के कारण उसकी न्यायिक व्याख्या के लिए जाया जा सकेगा।
पूरे देश में समान नागरिक संहिता को अपनाने से कई प्रकार के लाभ मिल सकते हैं। इससे न केवल संहिताबद्ध कानूनों का सरलीकरण सुनिश्चित होगा, बल्कि समान नागरिक कानून लागू होने से समानता को प्रोत्साहन मिलेगा। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य कमजोर वर्गों की रक्षा करना भी है। एक अन्य आदर्श जिसे समान नागरिक संहिता के माध्यम से प्राप्त किया जा सकेगा वह है पंथनिरपेक्षता |
समान नागरिक संहिता और मजहब
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में पंथ को मौलिक अधिकारों में रखा गया है और इसे लागू करने के लिए न्यायालय जाया जा सकता है। लेकिन नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र संधि के अनुच्छेद 44 को लागू करवाने के लिए न्यायालय की मदद नहीं ली जा सकती। ऐसे में समान नागरिक संहिता द्वारा मजहब के अधिकार का अतिक्रमण करने की कोई संभावना नहीं है। समान नागरिक संहिता का लक्ष्य विवाह, वैध अलगाव, उत्तराधिकार और अन्य मामलों के संबंध में समान कानूनों की व्यवस्था करना है, न कि मजहब का पालन करने की कोई एक समान व्यवस्था स्थापित करना। इसलिए यह किसी के मजहब के अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता।
निष्कर्ष
भारत एक ऐसा देश है, जहां कानून का शासन सर्वोच्च है, जो किसी अन्य तत्व को हावी होने से रोकता है; लेकिन लोगों की विविध व्यक्तिगत मान्यताओं के कारण मजहब का शासन कानून के शासन को आच्छादित कर देता है। इस कारण ऐसे मामलों में सरकारी कार्रवाई की आवश्यकता होती है। समान नागरिक संहिता आदर्श कानून है जो भारतीय न्याय—प्रणाली में व्यक्तिगत और नागरिक कानूनों में एकरूपता लाने के साथ ही पंथनिरपेक्षता स्थापित करेगा। यह मुद्दा समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन का विरोध करने वालों की गलत धारणाओं से उपजा है, इसलिए सरकार को जरूरी उपाय लागू करने चाहिए।
(लेखिका सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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