कर्नाटक से शुरू होकर पूरे देश में फैल रहे हिजाब विवाद को आप कैसे देखते हैं?
यह साधारण विवाद नहीं बल्कि एक साजिश है, जिसका बुनियादी उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं को आधुनिक शिक्षा से वंचित करना है। अगर हम हिजाब को मजहब के ढांचे का बुनियादी स्तंभ मान लें तो फिर सामाजिक दबाव के चलते या तो हर मुस्लिम बच्ची हिजाब पहनने के लिए मजबूर होगी और अगर वह हिजाब नहीं पहनेगी तो फिर वह गुनाह के इस बोध के साथ जिंदा रहेगी कि वह अपने मजहब के आवश्यक सिद्धांत का उल्लंघन कर रही है। आज महिलाओं के लिए अच्छी नौकरियों के सभी दरवाजे खुले हुए हैं, जिसमें प्रशासनिक और पुलिस सेवाओं से लेकर जल, थल और वायुसेना भी शामिल हैं। हिजाब पहनकर उच्च शिक्षा लेने के बाद इन्हें कौन कंपनी या सुरक्षा एजेंसी नौकरी देंगी? क्या पुलिस सेवा, सुरक्षा, हवाई जहाज चलाने वाली संस्थाएं इनको स्वीकार करेंगी या नौकरी करने के लिए यह उस अवस्था में हिजाब उतारेंगी। इस साजिश का मकसद मुस्लिम बच्चियों के लिए अच्छी नौकरियों के दरवाजे बन्द करना है, ताकि धीरे—धीरे उनकी रुचि शिक्षा में समाप्त हो जाए और वे एक बार फिर घरों के अन्दर कैद हो जाएं। इसका नुकसान इन बच्चियों, उनके परिवारों के साथ देश को भी होगा। क्योंकि उनकी क्षमता और प्रतिभा देश को बनाने के काम में लगने के बजाय कुंठा में कैद होकर रह जाएगी।
कुरान का हिजाब-बुर्का पर क्या मत है?
मेरे अध्ययन के अनुसार हिजाब शब्द का प्रयोग कुरान में सात बार हुआ है और इसमें कहीं भी इस शब्द को वेशभूषा के सन्दर्भ में प्रयुक्त नहीं किया गया है। हिजाब का शाब्दिक अर्थ अकेलापन, तन्हाई या अंग्रेजी में उसे स्रं१३्र३्रङ्मल्ल ङ्मा ू४१३ं्रल्ल भी कह सकते हैं। बुर्का आमतौर से उस वेशभूषा को कहते हैं, जिसे कुछ देशों में महिलाएं अपने पूरे शरीर को ढकती हैं। जहां तक महिलाओं की वेशभूषा का प्रश्न है, उसके लिए कुरान ने 'खिमार' शब्द का प्रयोग किया है। खिमार ओढ़नी और दुपट्टे को कहते हैं। कुरान पर्दे के बारे में निर्देश देते हुए पुरुष और महिला दोनों को संबोधित करते हुए कहता है—वे अपनी निगाहों को नीचा रखा करें और अपनी शर्मगाहों (जननेन्द्रियों पर) की हिफाजत (नियंत्रण) रखें। इसके बाद कुरान महिलाओं के बारे में कहता है कि तुम अपनी ओढ़नी (खिमार) को अपने वक्षस्थल (जुलबाब) के ऊपर डाल लिया करो, ताकि तुम्हें पहचाना जा सके। कुरान के शब्दों से यह स्पष्ट है कि पर्दे का उद्देश्य महिला की पहचान को बनाकर रखना है खत्म करना नहीं है। कुरान की इस आयत का सन्दर्भ यह है कि उस काल में लगभग हर समाज में दो वर्ग होते थे— वह जो आजाद था और दूसरा गुलाम था। अब अगर एक गुलाम महिला रास्ते पर जा रही है तो उसके साथ बदतमीजी करना, उसके शरीर के अंगों को पकड़ लेना मामूली बात थी। ऐसी ही एक घटना एक आजाद महिला के साथ हो गई, बात लड़ाई तक पहुंच गई। उस मौके पर कुरान की यह आयत आई थी। लेकिन आज तो गुलामी खत्म हो चुकी है। हर व्यक्ति पुरुष हो या महिला, उसे समान अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए आज संदर्भ बदल चुका है।
क्या कुरान या इस्लामिक तौर-तरीकों में ऐसी पाबंदियां हैं कि जहां भी जाओगे, मुस्लिम पहनावा पहनकर ही जाना होगा?
मेरे अध्ययन के अनुसार मेरी जानकारी में ऐसा कोई निर्देश नहीं है, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि मजहबी परंपराएं उन्हें मानने वालों को सभ्य व्यवहार करना सिखाती हैं। इस्लाम भी अपने मानने वालों से यह उम्मीद करता है कि वह ऐसी वेशभूषा पहनें जो समाज की संवेदनशीलताओं को आहत ना करे। और महिलाओं से विशेष यह उम्मीद करता है कि उनकी वेशभूषा और चलने का तरीका ऐसा हो कि वह अनावश्यक ध्यान का केन्द्र न बन पाए।
शिक्षण संस्थान या जहां भी वेशभूषा का नियम-कानून लागू है, उन जगहों पर हिजाब-नमाज की क्या जरूरत है?
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। हर किसी का यह अधिकार है कि वह जो चाहे, वेशभूषा पहने। हमारी संस्कृति विविधता को केवल स्वीकार नहीं करती बल्कि हम यह मानते हैं कि विविधता से हमारा राष्ट्रीय जीवन समृद्ध होता है। यहां सरकारी स्तर पर नागरिकों की वेशभूषा तय नहीं की जाती। लेकिन शिक्षण संस्थाओं को बाकी दुनिया की तरह यह अधिकार है कि वह अपने यहां शिक्षा पाने वालों के लिए वेशभूषा निर्धारित कर सकें। इसके अलावा और भी बहुत सी संस्थाएं हैं, जैसे—पुलिस, सुरक्षा एजेंसियां या सैन्य संस्थाएं, जहां एक खास प्रकार की वेशभूषा पहनना जरूरी है। जब आप इन संस्थाओं में जाते हैं तो आपको कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करने होते हैं, जिसका मतलब है कि आप उनके अनुशासन का पालन करेंगे। हस्ताक्षर करने के बाद किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह एकतरफा उस अनुबंध का उल्लंघन कर सके।
छह इस्लामी देशों ने अपने यहां स्कूल की वर्दी में हिजाब पर प्रतिबंध लगा रखा है। तो क्या वे मुसलमान नहीं हैं ? क्या वे आधे मुसलमान हैं?
यह प्रश्न उनसे पूछा जाना चाहिए जो हिजाब की मांग कर रहे हैं, लेकिन पूछना बेकार है। इसलिए कि सभी मुस्लिम देशों में तीन तलाक पर पाबन्दी के बावजूद ये लोग लगातार तीन तलाक की पद्धति को इस्लामी कानून बताते रहे।
हिजाब विवाद से जहां एक तरफ सवाल खड़े हो रहे हैं वहीं बड़ी तेजी के साथ समान कानून, एक रीति-नीति यानी समान नागरिक संहिता की मांग जोर पकड़े हुए है। एक विद्वान के नाते इस पर आपका क्या मत है?
समान नागरिक संहिता का इस विषय से कोई संबंध नहीं है। समान नागरिक संहिता तो संविधान का निर्देश है जो हमें करना ही पड़ेगा, आज नहीं तो कल।
आज दुनिया 21वीं सदी में जी रही है, लेकिन मुस्लिमों में एक तबका ऐसा है, जो छठी-सातवीं सदी के तौर-तरीकों को अपनाने के लिए जड़ है। ऐसी मानसिकता पर आप क्या कहेंगे?
मेरे दिल में उनके लिए सहानुभूति है और साथ में मैं यह भी मानता हूं कि यह लोग भी बदलेंगे। लेकिन सारा इतिहास यह बताता है कि यह बदलने में इतनी देर लगाते हैं कि बाकी दुनिया से पीछे रह जाते हैं। मैं आपको बहुत से उदाहरण दे सकता हूं, लेकिन यहां केवल एक बात बताऊंगा कि मुस्लिम बादशाहों के जमाने में हिन्दुस्थान के मौलवियों ने फतवा दिया था कि हिन्दुस्थान के मुसलमानों पर हज फर्ज इसलिए नहीं है, क्योंकि पानी के जहाज से सफर करने के लिए जो परमिट बनता था, उसके लिए फोटो खिंचवाना जरूरी था। लेकिन वही मौलवी आज बिना हिचक विभिन्न चैनलों पर कैमरे के सामने बैठे नजर आते हैं।
क्या आप मानते हैं कि कठमुल्लों का एक वर्ग मुस्लिम महिलाओं को अपने बनाए हुए कथित नियमों की बंदिशों में जकड़े रहने देना चाहता है?
इसमें एक बात जोड़ूंगा कि 2019 में तीन तलाक खत्म हो जाने के बाद जो बोझ मुस्लिम महिलाओं के सिर से सरकार ने उतार दिया, उसके बाद ये ऐसे तड़प रहे हैं, जैसे मछली पानी के बाहर तड़पती है। अब केन्द्र में जो सरकार है, वह इनकी धमकियों और हिंसात्मक भाषा जिसका प्रयोग इन्होंने 1986 में किया था, उसकी परवाह नहीं करती। इसलिए यह हर वक़्त हर मौके को समाज में तनाव पैदा करने के लिये इस्तेमाल करते हैं, ताकि देश की प्रगति और विकास में बाधाएं उत्पन्न हों और सरकार इनसे बात करने को मजबूर हो। मुझे पूरा विश्वास है, ऐसे लोगों की उम्मीदें कामयाब नहीं होंगी।
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