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होम भारत

उत्तराखंड : हर साल औसतन 1978 हेक्टेयर जंगल आग लगने से हो रहा स्वाहा

by उत्तराखंड ब्यूरो
Feb 18, 2022, 01:02 am IST
in भारत, उत्तराखंड
प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

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उत्तराखंड में हर साल वनाग्नि की घटनाएं होती रही हैं। हर साल फरवरी के बाद से ही वनों को आग से बचाने के लिए वन विभाग की कोशिशें शुरू हो जाती हैं, लेकिन ये कोशिशें केवल सड़कों और आबादी के आसपास सूखे पत्तों को जलाने तक ही सीमित रह जाती हैं।

 

उत्तराखंड में पिछले 12 सालों में करीब साढ़े तेरह हजार घटनाएं जंगल में आग की हुई हैं और इनमें हर साल औसतन 1978 हेक्टेयर वन क्षेत्र में वन संपदा जलकर राख हो रही है। आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार जंगल की आग को बुझाने के लिए केवल समय से बारिश का होना ही एक मात्र विकल्प है। उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल 53483 वर्ग किमी है, जिनमें 37999.60 में अभिलिखित वन है। जहां हर साल वनाग्नि की घटनाएं होती रही हैं। हर साल फरवरी के बाद से ही वनों को आग से बचाने के लिए वन विभाग की कोशिशें शुरू हो जाती हैं, लेकिन ये कोशिशें केवल सड़कों और आबादी के आसपास सूखे पत्तों को जलाने तक ही सीमित रह जाती हैं। वन विभाग के पास कोई भी उपकरण ऐसा नहीं है, जिससे आग को बुझाने में इस्तेमाल किया जाता रहा हो। जंगल मे आग लगने की घटनाओं का पिछले 12 सालों का आंकड़ा जो वन विभाग से मिला है वह इस प्रकार है-

       साल       घटनाएं    नुकसान (हेक्टेयर)

  • 2010      789        1810.82
  • 2011       150        231.75
  • 2012       1328      2823.89
  • 2013       245       384
  • 2014       515       930.33
  • 2015       412       701.61
  • 2016      2074    4433.75
  • 2017      805       1244.64
  • 2018     2150      4480.04
  • 2019     2158      2981.55
  • 2020     135        172.69
  • 2021     2813      3943.88

आंकड़े बताते हैं कि पिछले 12 सालों में 13574 आग की घटनाएं सामने में आई हैं। जंगल विभाग का मानना है कि वनाग्नि के पीछे सबसे बड़ा कारण गर्मियों में चलने वाली गर्म हवाएं हैं। लोग बीड़ी सिगरेट या कुछ भी ऐसी चीज जला देते हैं, जो कि आग का बड़ा कारण बन जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार चीड़ के पत्ते पतझड़ के दिनों में गिरते हैं वो आग तेज़ी से पकड़ते हैं। वन विशेषज्ञ डॉ शाह बिलाल कहते हैं कि इन पत्तों को स्थानीय लोग यदि उठा लें और इसका उपयोग अपनी ऊर्जा की जरूरतों के लिए करेंगे तो आग की घटनाएं कम हो सकती हैं। एक रिपोर्ट ये भी कहती है कि चीड़ के पेड़ से लीसा निकाला जाता है जिस पर वन विभाग का अधिकार होता है, लेकिन लीसा माफिया इसकी चोरी करते हैं और पकड़े न जाएं इसलिए जंगल में आग लगा देते हैं। इसी तरह लकड़ी माफिया भी करते हैं।

1982 में वन अधिनियम आने से पहले स्थानीय लोगों को जंगल की लकड़ी उठाने के लिए हक हक्कू का अधिकार  हुआ करता था। अब गांव वालों को ये अधिकार नहीं रहे, जिसकी वजह से उनका जंगल के प्रति  प्रेम कम हो गया। स्थानीय लोग यदि जंगल से जुड़े रहते तो वो जंगल की आग को लगने से रोकने में रुचि दिखाते। उत्तराखंड के चीफ वाइल्ड लाइफ वॉर्डन डॉ पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि जंगल की आग लगना स्वाभाविक प्रकिया भी है। कारण मानवीय हो सकते हैं। आम तौर पर ये देखा गया है कि मानसून से पहले लोकल रेन्स यदि नहीं हुई तो आग की घटनाएं बढ़ जाती हैं और हर तीसरे साल ऐसा होता भी है। कई बार आग को बुझाने में वन विभाग क्यों असफल रहता है? इस बारे में ये माना गया है कि बहुत से पहाड़ के जंगल ऐसे हैं जो कि रिजर्व फॉरेस्ट जोन में है। यहां तक सड़के नहीं हैं और पिछली दफा हेलीकॉप्टर से आग को बुझाने के लिए ऊपर से जब पानी फेंकने के प्रयोग किये गए तो वो इसलिए असफल हो गए क्योंकि हेलीकॉप्टर की हवा से आग और फैलने लगी।

डॉ धकाते बताते हैं कि अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग को बुझाने के उपायों का अध्ययन किया जा रहा है कि ये भारत में खास तौर पर शिवालिक उत्तराखंड में कितने कारगर साबित होंगे। बहरहाल उत्तराखंड में जंगल की आग बुझाने के लिए सिर्फ प्राकृतिक बारिश ही एक मात्र सहारा है। बारिश समय से हो गई तो जंगल बचे रहेंगे। पर्यावरणविद राजेन्द्र बिष्ट कहते हैं कि जंगल में आग से होने वाले नुकसान की कल्पना करें तो राजस्व का नुकसान तो है ही। पेड़-पौधे, जड़ी-बूटी, वन संपदा और पर्यावरण अंसतुलन का जो नुकसान है उसकी कोई भरपाई नहीं है।

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