यतीन्द्र मिश्र
भारतीय संगीत के संसार में लता मंगेशकर की उपस्थिति अदम्य और अद्वितीय थी। आज, जब वे इस नश्वर संसार में नहीं हैं, तब उनके होने की प्रासंगिकता कुछ और अधिक जीवन्त ढंग से उभर आती है। दक्षिण एशियाई स्त्रियों के बीच में उनकी उपस्थिति इतनी शानदार है कि उसकी तुलना अमेरिका में एला फिट़जेरल्ड, फ्रांस में एदीत प्याफ और मिस्र में उम्मे कुलसुम से की जा सकती है। उनके जीवन की आभा ने कुछ ऐसा असाधारण रचा है कि आज भी उनके गाए हुए गीतों की चमक से दुनिया भर के फसाने लिखे जा सकते हैं। मजरूह सुलतानपुरी ने उनके लिए एक नज्म में कहा था- ‘मुझसे चलता है सारे बज्म सुखन का जादू / चांद लफ़्जों के निकलते हैं मेरे सीने से।’
बानबे बरस और हजारों गानों का विराट साम्राज्य। उन्हें ‘सुर-साम्राज्ञी’ कहा जाता है और जब वे नब्बे बरस की हुई थीं, तब भारत सरकार ने उन्हें विशेष मानद उपाधि ‘डॉटर आफ द नेशन’ से विभूषित किया था। यह अवसर हर उस भारतीय के लिए बहुत भावुक कर देने वाला पल भी रहा, जिसमें एक ऐसी स्त्री का गरिमापूर्ण सम्मान किया गया था, जिसने कभी तेरह बरस की उम्र में अपने पिता के असमय निधन पर मां से बड़े संयत भाव से यह पूछा था – ‘क्या मुझे कल से काम पर जाना पड़ेगा?’ पण्डित दीनानाथ मंगेशकर की वह बिटिया तब खुलकर अपने पिता की मृत्यु पर रो भी नहीं पाई थीं, क्योंकि अचेतन में ही उन्हें इस बात का आभास हो गया था कि इस समय अपने से छोटे चार-भाई बहनों और मां की जिम्मेदारी उनके नाजुक कन्धों पर है। उसी लड़की ने आम भारतीय जनमानस में अपने संघर्ष, तप और अदम्य जिजीविषा से आगे जाकर वह मुकाम हासिल किया कि आज हर भारतीय उनके प्रति श्रद्धा से भरा हुआ है।
आवाज का तिलिस्म
लगभग एक अर्द्धसदी से बड़े समय वितान पर फैला हुआ लता मंगेशकर की आवाज का कारनामा किसी जादू से कम नहीं है। वह एक ऐसे तिलिस्म या सम्मोहन का जीता-जागता उदाहरण रही हैं, जिनकी आवाज की गिरफ्त में आकर न जाने कितने लोगों को उनके दु:ख और पीड़ा से उबरने में मदद मिली है। यह वही लता मंगेशकर हैं, जो पहली बार अपने पिता का हाथ पकड़े हुए बारह बरस की उम्र में दिल्ली में ए.आई.आर. के बुलावे पर रेडियो में रेकॉर्डिंग के लिए पहुंचती हैं। कुछ सहमते हुए राग खम्भावती में ‘आली री मैं जागी सारी रैना’ बन्दिश गाती हैं। आज उनके महान सांगीतिक जीवन से गुजरते हुए इस बात का अन्दाजा लगाने में आश्चर्य होता है कि कैसे नौ साल की नन्हीं लता ने पिता की ‘बलवन्त संगीत नाटक मण्डली’ के ड्रामे ‘सौभद्र’ में नारद का रूप धरकर ‘पावना वामना या मना’ गीत गाया था। नन्हीं लता को पिता विंग में खड़े होकर देख रहे थे और उन्हें उसी उम्र में ‘वन्स मोर’ के शोर में तालियां मिल रही थीं।
लता जी को मिले सम्मान
|
जिस दौर में फिल्मों में पार्श्वगायन या अभिनय करना दोयम दर्जे का काम माना जाता था, लता ने वह कर दिखाया, जो नामुमकिन था। उन्होंने फिल्म गायन के बहाने ‘सुगम संगीत’ जैसे हल्के समझे जाने वाले क्षेत्र को अपनी उपस्थिति से ऐसा भरा कि उनके होने से तमाम इज्जतदार घरों की लड़कियों ने संगीत सीखने में दिलचस्पी दिखाई। घरानेदारी संगीत से लोहा लेती हुई उनकी अकेली कोशिश इतनी परिश्रम साध्य, तैयारी और रियाज से भरपूर तथा समाज को अपनी शर्तों पर मुरीद बनाने वाली रही कि एक दौर वह भी आया, जब संगीत और सुरीली आवाज का मतलब लता मंगेशकर होता था।
बदल दिया फिल्म संगीत का मुहावरा
पिछली शताब्दी का पांचवां और छठा दशक इस बात का साक्षी है कि कैसे लता मंगेशकर ने फिल्म संगीत का मुहावरा ही बदलकर रख दिया था। उनके पहले स्थापित गायिकाओं- कानन देवी, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अम्बालेवाली, सुरैया, राजकुमारी और शमशाद बेगम की तुलना में लता मंगेशकर का स्वर एक ऐसे उन्मुक्त वातावरण में सफल होता दिखाई देने लगा था, जो भारत की स्वाधीनता के बाद संघर्षशील तबके से आने वाली उस महिला की आवाज का रूपक था, जिसे तत्कालीन समाज बिल्कुल नए सन्दर्भों में देख-परख रहा था। 1949 में आई राज कपूर की बेहद कामयाब फिल्म ‘बरसात’ के गीत ‘हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का’ लता मंगेशकर की आवाज के बहाने उस दौर के उन तमाम संशयों और पुरानेपन को एकबारगी उड़ा ले गया था, जिसके बाद एक आधुनिक किस्म का फिल्म संगीत उभर सका। बाद का दौर लता मंगेशकर का वह सफलतम दौर है, जिसके माध्यम से भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने को उनके कुछ गीतों की अर्थ सम्भावनाओं के माध्यम से पढ़ा जा सकता है। आज जब वे इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी समाज निर्माण की प्रेरणा देने वाले ढेरों गीत याद आते हैं, जिनमें कुछ को यहां रेखांकित कर रहा हूं- ‘चली जा चली जा छोड़ के दुनिया’ (हम लोग), ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को’ (साधना), ‘मिट्टी से खेलते हो बार-बार’ (पतिता), ‘दुनिया में हम आए हैं, तो जीना ही पड़ेगा’ (मदर इण्डिया), ‘सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी’ (सीमा), ‘कभी तो मिलेगी बहारों की मंजिल राही’ (आरती), ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ (गाईड) आदि। यह अन्तहीन सूची है, जिसमें सैकड़ों गीत बरबस मोती की लड़ियों की तरह गुंथते चले जाएंगे, जब आप सामाजिक विमर्श के तहत लता मंगेशकर के काम को परखेंगे।
लता दीदी के परिवार के साथ हमारे परिवार के 70 साल के संबंध हैं। लता दीदी जैसी महान कलाकार मिल पाना सदियों में एक बार होता है। वह एक मनुष्य के रूप में भी महान व्यक्ति थीं। लता दीदी के पिताजी मास्टर दीनानाथ से मेरे पिताजी ने संगीत की शिक्षा पाई है। वह मेरे पिताजी के मित्र थे। मेरी लड़की तथा मेरे नातियों को जन्मदिन की शुभकामना देने के लिए लता दीदी रात देर तक जागती थीं। अभी आखिर में रुग्णालय में भर्ती होने के एक दिन पहले ही उन्होंने मुझे फोन किया था और कहा था कि मैंने जो एक चित्रपट में नरेंद्र मोदी जी का किरदार निभाया है, वह उन्हें बहुत अच्छा लगा। विक्रम गोखले ने आगे कहा कि लता दीदी के निधन से हमारा पूरा परिवार सदमे में है।
|
साक्षात मां सरस्वती थींउदित नारायण बताते हैं- ‘मैं जब गांव में 5-6 वर्ष का था, तब रेडियो पर लता जी के गाने सुना करता था। मैं हमेशा सोचा करता था कि जो इतनी मधुर और सुंदर आवाज की स्वामिनी हैं, वो कैसी दिखती होंगी। क्या मुझे कभी मौका मिलेगा इनसे एक बार मिलने का। फिर भगवान की कृपा हुई और मैं मुंबई आया। जब मुझे उनके साथ गाने का मौका मिला तो मेरा सपना साकार हो गया। आज की पीढ़ी में लता दीदी के साथ सबसे ज्यादा गाना गाने का मौका मुझे ही मिला। यहां तक कि 5 बार मुझे उनके साथ मंच साझा करने के मौके भी मिले। एक दिसम्बर 1992 की बात है, मैं उनके साथ बैंगलोर में शो कर रहा था, तो किसी ने उन्हें बता दिया कि आज उदित का जन्मदिन है। उन्होंने उसी मंच पर मुझे सोने की चेन पहनाई और कहा कि इन्हें ‘प्रिंस आॅफ प्लेबैक सिंगिंग’ का टाइटल दो। मुझसे ये भी बोला कि आपकी आवाज बहुत प्यारी है। हमें तो साक्षात मां सरस्वती का आशीर्वाद मिल गया।’
उदित ने बताया कि ‘जब वीर जारा फिल्म के गाने रिलीज हुए तो लता दीदी ने 21 सितम्बर, 2004 को मुझे फोन करके कहा, उदित आपने बहुत ही अच्छा गाया है। आधे घंटे बाद मैं हैरान रह गया जब उनकी मर्सडीस मेरे घर के बाहर खड़ी थी। उस दिन वो 4 घंटे मेरे पूरे परिवार के साथ बैठीं रहीं। हम सबने उनसे गुजारिश की कि वो हमारे साथ पोहा भी खाएं, तो वो मान गईं। मुझे नहीं लगता, ऐसा मौका ज्यादा लोगों को नसीब हुआ होगा।’ प्रस्तुति : प्रदीप सरदाना
|
सर्जनात्मक उपस्थिति
लता जी के होने से फिल्म संगीत परिदृश्य के माध्यम से समाज में बहुत कुछ ऐसा होता चला गया, जो आज भी मिसाल की तरह याद किया जाता है। ऐसे ढेरों वाकये हैं, जिनसे उनकी बड़ी सर्जनात्मक उपस्थिति का अन्दाजा मिलता है। यह लता मंगेशकर ही हैं, जिनके कारण यह सम्भव हुआ कि रेकॉर्ड कम्पनियों ने पहली बार फिल्मों के तवों पर पार्श्वगायकों/गायिकाओं के नाम देना शुरू किया। उन्होंने कभी अश्लील शब्दों के लिए अपनी आवाज की गुलुकारी नहीं की, भले ही फिल्म का बैनर और संगीतकार कितना ही बड़ा क्यों न रहा हो। साहिर लुधियानवी और शैलेन्द्र जैसे गीतकारों ने भी नज्में लिखते हुए इस बात का खास ध्यान रखा कि शब्दों का वजन लता मंगेशकर की गरिमा के अनुकूल हो। ‘अल्ला तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम’ जैसा गीत गाकर, जहां उन्होंने भारत की समावेशी संस्कृति को शिखर पर पहुंचाया, वहीं ‘जो समर में हो गए अमर’ जैसे श्रुतिमधुर गीत से देशभक्ति का भावुक माहौल रचने में कामयाब रहीं। ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ जैसा गीत उनके जीवन का एक ऐसा मुकाम है, जिस पर वे खुद भी गर्व करना पसन्द करेंगी। इसी गीत से उन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रुलाया था। एक बार फिल्म निर्देशक महबूब खान को हफ्ते भर ‘रसिक बलमा’ गीत सुनाती रहीं, जिससे उनका मन बहल जाए, क्योंकि उन्हें हार्ट अटैक हुआ था और वे उनसे यह गीत सुनना चाहते थे। पार्श्वगायिका नूरजहां के प्रति इतनी आदर से भरी हुई थीं कि लन्दन में नूरजहां के घर पर उनके अनुरोध पर लिफ्ट में ही ‘ऐ दिले नादां’ गाकर प्रसन्न किया। ‘ठुमक चलत रामचन्द्र बाजत पैजनिया’ में आस्था के सुर डालने वाली लता जी ने पण्डित भीमसेन जोशी के सुर में सुर मिलाते हुए ‘राम का गुणगान करिए’ गाकर पूरे भारत को यह गीत गुनगुनाने के लिए सहर्ष तैयार कर दिया था…
बुखार में भी की गीत की रेकॉर्डिंगलता जी ने कल्याणजी-आनंदजी की जोड़ी के संगीत निर्देशन में लगभग 350 गीत गाये। आनंदजी बताते हैं – ‘’लता मंगेशकर बरसों मेरी पड़ोसी रहीं। इसलिए भी लता जी से हमारे हमेशा अच्छे संबंध रहे। उनके लिए मैं एक वाक्य में कुछ कहूं तो यह कि वह सदाबहार महिला थीं। हमारे साथ उन्होंने करीब 350 गीत गाए। एक से एक शानदार, यादगार। वह हमेशा दिल से काम करती थीं। हमारे साथ उनका कभी कोई मनमुटाव नहीं हुआ। हालांकि कुछ लोग कहते थे कि वह नखरे दिखाती हैं। रेकॉर्डिंग अंतिम समय पर रद्द कर देती हैं। लेकिन मैंने देखा, कुछ लोग अपना दोष दूसरों के सर मढ़ देते हैं। आप किसी को तय करके समय से पैसे नहीं दोगे तो वह आपकी रेकॉर्डिंग क्यों करेगा। |
75 वर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की हमराह
ऐसी ढेरों कहानियां हैं, जिनसे इस महान पार्श्वगायिका की जीवन्त रचनात्मक उपस्थिति के कालजयी 75 सालों का सुरीला इतिहास हमें हासिल होता है। यह भी गर्व करने की बात है कि इतना ही समय अपने देश की स्वतंत्रता को भी हासिल है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि भारत की स्वाधीनता के बाद उसका जो सांस्कृतिक इतिहास पिछले पचहत्तर सालों में बनकर तैयार हुआ है, उसकी सबसे जीवन्त प्रतीक, साक्षी और हमराह रही हैं लता मंगेशकर। भले ही आज उनका भौतिक शरीर शान्त हुआ है, मगर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि शताब्दियों के आर-पार उजाला फैलाने वाली उनकी शाश्वत और अविनाशी आवाज अभी शताब्दियों तक इस दुनिया में रहने वाली है। जब तक इस पृथ्वी पर जीवन और मनुष्यता का वास रहेगा, लता जी कहीं नहीं जाने वाली। उनकी अमरता तो उनके जीते जी ही स्थापित हो गई थीं। अब जब वे नहीं हैं, तो एक किंवदन्ती की तरह भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक रूपक की तरह वे हर एक भारतीय के मन-मानस में बसने वाली हैं। उनकी महीयसी उपस्थिति को मेरा नमन और भावपूर्ण श्रद्धांजलि।
टिप्पणियाँ