पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू का बड़बोलापन उनकी सबसे बड़ी परेशानी बन गया। इससे भी बड़ी दिक्कत यह रही कि वे अपने 'पंजाब मॉडल' को लेकर इतने ज्यादा उतावले हो गए कि हर जगह इस पर ही बात करने लगे। इससे पार्टी के भीतर जो नेता उनके पक्ष में खड़े होते थे, वे भी धीरे-धीरे सिद्धू से कटने लगे। इसका परिणाम हुआ कि पार्टी के भीतर भी धीरे-धीरे उनके विरोधी बढ़ते चले गए। इससे पार्टी के भीतर सिद्धू की वकालत करने वाले कम रह गए। एक मौका तो ऐसा आया कि वह खुद को मुख्यमंत्री चेहरे के तौर पर प्रस्तुत करते रहे। इस कारण भी वे मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी से पिछड़ते चले गए।
इस वक्त सिद्धू अपने सियासी जीवन के सबसे चुनौतिपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। अपने विधानसभा क्षेत्र में उन्हें राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी चुनौती मिल रही है। बिक्रमजीत सिंह मजीठिया उनके सामने अकाली दल के उम्मीदवार हैं। उन्होंने जीतने के लिए पूरी ताकत लगा रखी है। इस सीट को अकाली दल ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है। यह पहला मौका है, जब अपनी सीट से सिद्धू को इतनी जबरदस्त टक्कर मिल रही है। इस वक्त सिद्धू पार्टी और अपनी सीट पर सबसे ज्यादा दिक्कत में हैं।
सिद्धू के हालात ऐसे क्यों बने?
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सिद्धू बात तो अपने 'पंजाब मॉडल' की कर रहे थे, लेकिन उनका अपना विधानसभा क्षेत्र ही पिछड़ा हुआ है। पंजाब की राजनीति कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार हरबंस सिंह चीमा ने बताया कि सिद्धू अमृतसर पूर्व से 2004 से लेकर अभी तक जीत हासिल करते रहे हैं। 2012 में उनकी पत्नी यहां से विधायक रही। सिद्धू इस सीट से सांसद भी बने। लेकिन इतने लंबे कार्यकाल के बाद भी वे अपने क्षेत्र में विकास का ऐसा कोई मॉडल नहीं खड़ा कर पाए, जिसे पंजाब भर में उदाहरण के तौर पर दिखा सकें। यहां विकास की कोई योजना नहीं है, जिससे यह पता चले कि सिद्धू विकास को लेकर गंभीर हैं। यह सब देखकर उनके विपक्षी यह आरोप लगाने लगे कि वे बोलते ज्यादा हैं, लेकिन जमीन पर काम नहीं करते हैं।
पूरा ध्यान 'पंजाब मॉडल' पर केंद्रित
सिद्धू ने पूरा ध्यान अपने 'पंजाब मॉडल' पर ही केंद्रित कर दिया। इससे पार्टी में यह संदेश गया कि इस मॉडल से किसी न किसी स्तर पर सिद्धू अपने राजनीति प्रतिद्वंद्वियों से निपटने की तैयारी कर रहे हैं। मजीठिया पर केस दर्ज कराने का उनका दांव भी उल्टा पड़ चुका था। पार्टी के रणनीतिकार यह मान रहे थे कि 'पंजाब मॉडल' सुनने में जितना अच्छ लगता है, उसे अमल में लाना उतना ही मुश्किल है। पार्टी यह भी समझ रही थी कि यदि सिद्धू को मुख्यमंत्री का चेहरा बना दिया तो वह अपने 'पंजाब मांडल' को लागू करने लिए पूरी ताकत लगा देंगे। इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री पद से दूर रखा गया। 'पजाब मॉडल' पर उनका ज्यादा बोलना भी नकारात्मक माना गया।
भूल गए कांग्रेस में पद मांगा नहीं जाता
पत्रकार बलविंदर सिंह कहते हें कि सिद्धू ने एक और गलती की। उन्होंने पार्टी से मुख्यमंत्री पद मांग लिया। उन्हें नहीं मालूम कि कांग्रेस में मांगा नहीं जाता। जिसने कुछ मांग लिया, उसे वह नहीं मिलता। लेकिन सिद्धू हर मौके पर सीएम पद की मांग करते रहे, इससे पार्टी को लगा कि वे मुख्यमंत्री बनने के लिए ही इतना सक्रिय हैं, जबकि कांग्रेस जैसी पार्टी की सोच यह है कि नेता का जुड़ाव विचार और सिद्धांत के साथ होना चाहिए, न कि वह किसी पद के लालच में काम करे।
प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश
जब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सीएम पद छोड़ा, तब सिद्धू प्रदेशाध्यक्ष बन गए थे। लेकिन वे सीएम पद के लिए प्रदेशाध्यक्ष का पद तक छोड़ने को तैयार हो गए थे। उन्होंने बोल दिया कि था कि उन्हें ही सीएम बनाया जाए। इससे पार्टी हाईकमान में यह संदेश गया कि वह सीएम पद को लेकर जल्दबाजी में हैं। इससे उनकी सोच और काम करने के तरीके पर सवाल उठा। बस यहींं से चन्नी, सिद्धू से आगे निकल गए। सिद्धू पर चन्नी की यह बढ़त अभी तक बरकरार है।
पत्नी के बयान ने पूरी कर दी कसर
पार्टी द्वारा मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किए जाने से पहले सिद्धू की पत्नी डॉ. नवजोत कौर ने बयान दिया कि दोनों हर माह लाखों रुपये कमाते थे। लेकिन राजनीति में आने के बाद उनका नुकसान हो रहा है। यदि वे राजनीति में सफल नहीं हुए तो अपने-अपने पेशे में वापस चले जाएंगे। नवजोत कौर का यह बयान भी सिद्धू के खिलाफ गया। कांग्रेस में यह संस्कृति बन रही है कि विपक्ष पर हमला करते वक्त हल्के शब्दों का इस्तेमाल न किया जाए। लेकिन द्धू विपक्ष, खासतौर पर बिक्रमजीत सिंह मजीठिया के खिलाफ बहुत ही आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं। पंजाब में उनका इस बात को लेकर खासा विरोध भी हो रहा है। इसके बाद भी सिद्धू अपनी भाषा और शब्द चयन को लेकर गंभीर नहीं हुए।
सिद्धू के कारण अकाली दल को बढ़त
पिछले विधानसभा चुनाव में अकाली दल ने 15 सीट पर जीत दर्ज की थी। यह उनका अभी तक का सबसे कमजोर प्रदर्शन था। इस बार भी अकाली दल की स्थिति खास मजबूत नहीं थी। लेकिन सिद्धू ने जिस तरह से अकाली दल को लक्ष्य कर हमला शुरू किया, उससे मतदाता अकाली दल के साथ मतदाता जुड़ते चले गए। दूसरी ओर कांग्रेस की स्थिति कमजोर होती गई। सिद्धू यह तथ्य समझ नहीं पाए। वह लगातार अकाली दल पर आक्रामक रहे।
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