जैसा कि अपेक्षा थी एडिटर्स गिल्ड खामोश रहा। खामोश इसलिए रहा क्योंकि वह खास मौके पर ही बोलता है। उसे पत्रकारिता से अधिक अपने लोगों की चिन्ता रहती है। वह पत्रकारों के उत्पीड़न से अधिक 'अपने लोगों' के उत्पीड़न पर सक्रिय होता है। अच्छा होता कि एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया की जगह यह संगठन अपना नाम 'एडिटर्स गिरोह आफ इंडिया' रख लेता। जब संपादकों को गिरोह की तरह ही संगठन का प्रबंधन करना है तो गिल्ड से अच्छा तो गिरोह ही होगा। कम से कम आम पत्रकारों को यह भ्रम तो ना रहे कि यह संगठन उनके लिए भी है। वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय ने हाल में एडिटर्स गिल्ड पर एक टिप्पणी की, ''प्रतीक्षा है कि एडिटर्स गिल्ड की तरफ से इस खुली धमकी पर कोई प्रतिक्रिया आती है या नहीं?''
प्रतिक्रिया नहीं आनी थी सो नहीं आई। दरअसल, बात यह थी कि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सुरक्षाकर्मियों ने एक पत्रकार को पीटा था, वरिष्ठ पत्रकार अशोक श्रीवास्तव ने इस बात के विरोध में सोशल मीडिया पर लिखा। मामला गाजियाबाद का है, जहां प्रेस कांफ्रेन्स के बाद एक निजी चैनल का पत्रकार अखिलेश यादव से सवाल पूछने के लिए सामने आया। जिसे अखिलेश के सुरक्षाकर्मियों ने ना सिर्फ धकिया दिया बल्कि मारा भी। वह चिल्लाता रहा, मुझे मारो मत। मुझे मारो मत। उसकी सुनी नहीं गई। उस पत्रकार की गुहार अनसुनी रह जाती यदि उसे सोशल मीडिया पर वरिष्ठ पत्रकार अशोक श्रीवास्तव ना उठाते। श्री श्रीवास्तव के टवीट से सुहेलदेव राजभर भारतीय समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर के बेटे अरुण राजभर इतने आहत हो गए कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से सोशल मीडिया पर वरिष्ठ पत्रकार को पीटने की धमकी दे डाली। एडिटर्स गिल्ड चुप रहा। अशोक श्रीवास्तव चुप नहीं रहे। उन्होंने नेता पुत्र के खिलाफ गाजियाबाद के लिंक रोड थाने में केस दर्ज कराया।
ऐसा नहीं है कि एडिटर्स गिल्ड साल—छह महीने में ही अपना बयान जारी करता है। वह एक बार फिर सामने आया है, ‘द कश्मीर वाला' न्यूज पोर्टल के संपादक फहद शाह की गिरफ्तारी की निंदा करने के लिए। 4 फरवरी को शाह की गिरफ्तारी अपने न्यूज पोर्टल में आतंकी गतिविधियों का महिमामंडन करने, कश्मीर को लेकर झूठी खबरें फैलाने और कानून-व्यवस्था के समक्ष चुनौती पैदा कर स्थानीय जनता को उकसाने के आरोप में हुई है।
अब यह समाज के बीच बहस का मुद्दा हो सकता है कि मीडिया की स्वतंत्रता का दायरा क्या होना चाहिए? यदि प्रेस की स्वतंत्रता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन जाए तो प्रेस की क्या जिम्मेवारी बनती है? प्रेस के पास जो स्वतंत्रता है, क्या वह देश की सुरक्षा की कीमत पर दी जा सकती है?
एक घटना के उदाहरण से कश्मीर वाला की रिपोर्टिंग को समझा जा सकता है। घटना पुलवामा की है, जहां चार आतंकियों को पुलिस ने मार गिराया। चार में से एक 17 साल का था। आतंकियों में बच्चे को शामिल पाकर शाह ने इसे एक अवसर की तरह देखा। उस परिवार से मिला। कोई भी परिवार कैसे इस बात को स्वीकार कर सकता है कि उनका बच्चा आतंकी है? परिवार ने आतंकी होने की बात से साफ इंकार किया। इस बात को इस तरह प्रकाशित किया गया, मानो चौथा युवक निर्दोष साबित हो गया। शेष तीन के संबंध में भी अधिक बात नहीं की गई। जिस तरह की विपरित परिस्थितियों में कश्मीर में पुलिस और सेना काम कर रही है, उसे सभी जानते हैं। वहां आतंकियों से ठीक आमने—सामने की लड़ाई है। वहां आतंकी चाहेंगे कि एक तीसरा मोर्चा खुल जाए जहां पुलिस और भारतीय सेना व्यस्त हो। जिससे उनका काम आसान हो जाए।
तीसरा मोर्चा आम नागरिकों का हो सकता है। इसके लिए यदि वे प्रेस का इस्तेमाल कर रहे हों तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं होगी। कश्मीर की स्थिति देश के दूसरे हिस्सों से बिल्कुल अलग है। सरहद और सामरिक दृष्टी से महत्वपूर्ण होने की वजह से वह भारत का एक संवेदनशील हिस्सा बन गया है। इसलिए वहां की सुरक्षा को अस्थिर करने की कोशिश चीन और पाकिस्तान दोनों की तरफ से होती रहती ही है। ऐसे कामों के लिए यदि फहद शाह जैसे लोग टूल बनते हैं तो यह आश्चर्य की नहीं बल्कि भारत के लिए सतर्क और चौकन्ना होने वाली बात है।
टिप्पणियाँ