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श्री बदरीनाथ धाम हिंदुओं का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल, जानिए इसके ऐतिहासिक तथ्य

by WEB DESK
Feb 5, 2022, 06:01 am IST
in भारत, उत्तराखंड
बदरीनाथ

बदरीनाथ

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भगवान बदरीनाथ की प्रतिमा नारद कुंड में कैसे पहुंची? इस बारे में पुराने लोग कहा करते हैं कि एक बार तिब्बती लोग बदरीनाथ मंदिर से शालिग्राम मूर्ति चुराकर अपने देश ले गए। बदरीनाथ के माना गांव के लोग तिब्बत क्षेत्र में व्यापार के लिए जाते थे, उन्होंने एक मठ में अपने शालिग्राम देव मूर्ति को पहचान लिया और वो एक योजना बनाकर वहां से छिपा कर अपने साथ ले लाए।

दिनेश मानसेरा / प्रमोद शाह

 

श्री बदरीनाथ धाम कपाट खुलने की तिथि की घोषणा हो गई है। मंदिर का कपाट 8 मई को प्रातः 6:15 बजे खुलेंगे। भगवान विष्णु कहे या भगवान शालिग्राम का ये पावन मंदिर हिंदू धर्म का आज सबसे बड़ा तीर्थस्थल की मान्यता रखता है। श्री बदरीनाथ मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह आदि गुरु शंकराचार्य काल से भी पुराना मंदिर है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी के मध्य में बदरीनाथ स्थित नारद कुंड में कई वर्षों से छुपा कर रखी गयी, विष्णु रूप भगवान शालिग्राम की मूर्ति को पुनः बदरीनाथ मंदिर में स्थापित किए जाने के साथ ही श्री बदरीनाथ धाम के रूप में मान्यता प्राप्त हुई।

भगवान बदरीनाथ की प्रतिमा नारद कुंड में कैसे पहुंची? इस बारे में पुराने लोग कहा करते हैं कि एक बार तिब्बती लोग बदरीनाथ मंदिर से शालिग्राम मूर्ति चुराकर अपने देश ले गए। बदरीनाथ के माना गांव के लोग तिब्बत क्षेत्र में व्यापार के लिए जाते थे, उन्होंने एक मठ में अपने शालिग्राम देव मूर्ति को पहचान लिया और वो एक योजना बनाकर वहां से छिपा कर अपने साथ ले लाए। इस बात की खबर जब तिब्बती लोगों को हुई तो वो मूर्ति की खोज में अपनी सेना लेकर माना गांव पहुंचे। माना गांव वासियों ने मूर्ति को गरमपानी के नारद कुंड में छुपा दिया। मूर्ति को लेकर माना गांव के लोगों और तिब्बती लोगों के बीच तनाव कई वर्षों तक चला। उसी दौरान आदि शंकराचार्य का बदरीनाथ आना हुआ, जिन्हें आभास था कि यहां शालिग्राम का पुराना मन्दिर कभी हुआ करता था। माना गांव वासियों से जब उन्हें इस बात की जानकारी मिली तो उन्होंने गर्म पानी के नारद कुंड में उतर कर वहां दबी हुई शालिग्राम की मूर्ति निकालकर उसकी बदरीनाथ मन्दिर परिसर में विधि विधान से पुनः स्थापित किया और उन्होंने माना गांव के निवासियों को बदरीनाथ मंदिर का रक्षक नियुक्त किया। आज भी जब शरदकाल में धाम द्वार जब बन्द होते है माना गांव के लोग ही मन्दिर की रक्षा का दायित्व निभाते हैं।

राजदरबार में बैठे बद्रीनाथ मंदिर प्रबन्धन के सदस्य 

आदि शंकराचार्य ने बदरीनाथ की जो व्यवस्था बनाई वो आज भी चली आ रही है। उन्होंने ही जोशीमठ में शंकराचार्य पीठ को स्थापित कर सनातन धर्म की परंपराओं की नींव को मजबूत किया। बहुत जल्द ही हिमालय के इस तीर्थस्थान ने अखिल भारतीय मान्यता प्राप्त कर ली। देश के कोने-कोने से यात्रियों का यहां आना प्रारंभ हो गया। नवी शताब्दी के 888 वर्ष में जब गढ़वाल के चांदपुर गढ़ी में भानु प्रताप राजा थे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि राजस्थान और गुजरात की धारा नगरी के शक्ति संपन्न पंवार वंशीय राजकुमार कनक पाल भगवान बद्रीश की यात्रा को आ रहे हैं। कत्यूरी शासकों के विरुद्ध शक्ति प्राप्त करने के लिए, उनके राजकीय अतिथ्य के लिए राजा भानु प्रताप ने अपना दल उनके स्वागत को हरिद्वार भेजा। चांदपुर गढ़ी के राजा के राजकीय आतिथ्य में राजकुमार कनक पाल की यात्रा प्रारंभ हुई। कनक पाल एक धर्म निष्ठ राजकुमार थे। बदरीनाथ में उनके द्वारा भगवान बदरीनाथ से संवाद स्थापित किया। तब से वह बोन्दा बद्री कहलाए। वापसी में राजा भानु प्रताप ने अपनी एक मात्र पुत्री का पाणिग्रहण  कनक पाल के साथ संपन्न किया और उनसे यहीं राज्य करने का आग्रह किया। 

कनक पाल ने तब अलग से त्रिहरी अपभ्रंश टिहरी राजवंश की स्थापना की और 1803 तक लगातार न केवल साम्राज्य किया, बल्कि साम्राज्य का विस्तार भी किया। टिहरी साम्राज्य सुदूर कुमाऊं तक और दक्षिण में सहारनपुर तक फैल गया। 1803 में गोरखा युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ा।  तब राजा प्रद्युमन शाह मारे गए। सुदर्शन शाह को सेना ने सकुशल वापस निकाल लिया। 1815 में अंग्रेजों की मदद से सुदर्शन शाह ने गोरखाओं से अपना खोया राज्य वापस ले लिया, लेकिन यहां टिहरी रियासत का विभाजन हुआ। पूर्वी गढ़वाल जिसे ब्रिटिश गढ़वाल कहा गया। कुमायूं का भाग हुआ तथा कालसी से पश्चिम का क्षेत्र व देहरादून को संधि द्वारा अंग्रेजों को दे दिया। इस विभाजन से बोलन्दा बद्री का बद्रीनाथ से संपर्क कट गया।

ब्रिटिशकाल सन 1815 से पूर्व बदरीनाथ धाम की पूजा-अर्चना तथा आर्थिक प्रबंध टिहरी राजा द्वारा स्वयं देखे जाते थे। वह अपने राज्य को बद्रीश चर्या के रूप में ही प्रचारित करते थे। श्री बदरीनाथ धाम के प्रति राजा का यह समर्पण  तथा पूर्वज कनक पाल की बद्रीश संवाद परम्परा उन्हें 'बोलन्दा बद्री" बोलता बद्रीनाथ के रूप में स्थापित करती  हैं। जब यह दुर्गम क्षेत्र था, पुजारी रावल तथा स्थानीय लक्ष्मी मंदिर के पुजारी डिमरी परिवार पर राज प्रसाद की विशेष आर्थिक कृपा रही।  1815 के बाद बदरीनाथ धाम ब्रिटिश गढ़वाल के अंतर्गत आ गया। तकनीकी रूप से राजा का यहां का प्रबंध करना कठिन हो गया। ब्रिटिश सरकार ने 1810  के बंगाल रेगुलेटिंग एक्ट  से  इस मंदिर की व्यवस्था प्रारंभ की, लेकिन अत्यधिक दूरी होने के कारण यह प्रबंध प्रभावी नहीं रहा। हालांकि प्रथम ब्रिटिश कमिश्नर विलियम ट्रेल ने मठ मंदिरों की सहायता हेतु सदाव्रत की राजस्व व्यवस्था रखी थी। तब भी मंदिर के स्थानीय पुजारियों को  लगातार  संकट का सामना करना पड़ा। 

टिहरी के राजा  मंदिर के पुजारी  रावल और डिमरी संप्रदाय की लगातार मदद करते आ रहे थे। भावनात्मक रूप से मंदिर का प्रबंधन टिहरी राज दरबार से ही संचालित होता रहा। 1860 के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन से खुद को अलग कर लिया। उसका लाभ बद्रीनाथ मंदिर को भी प्राप्त हुआ। अब टिहरी राज दरबार पुरानी परंपराओं के अनुसार बदरीनाथ धाम की पूजा व्यवस्था और आर्थिकी का संचालन करने लगे। सुदर्शन शाह के बाद प्रताप शाह ,कीर्ति शाह और नरेंद्र शाह राजा हुए। इन सब राजकुमारों ने अपनी राजधानियां अलग-अलग कस्बों में क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेंद्र नगर बसाई, लेकिन टिहरी राजवंश का भगवान बदरीनाथ के प्रति परंपरागत समर्पण और परंपराओं का निर्वहन बना रहा। टिहरी रियासत ही बदरीनाथ धाम का धार्मिक एवं आर्थिक प्रबंध लगातार देखती रही है।

मंदिर का आर्थिक संकट : 
कुमाऊं के इतिहास पुस्तक में लिखा है कि  1823 में अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर ट्रेल साहब ने बदरीनाथ मंदिर की व्यवस्था हेतु कुमायूं के 226 गांव को मंदिर को उधार देने की बात करते हैं, लेकिन फिर भी जब 1924 में  भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। बदरीनाथ धाम में यात्रियों की संख्या न के बराबर रह गई तो रावल को भोजन का संकट खड़ा हो गया। कोई सरकारी मदद नहीं थी तब रावल ने पूजा-अर्चना छोड़ वापस केरल जाने की धमकी दे दी। तब पंडित घनश्याम डिमरी के नेतृत्व में स्थानीय पंडा समाज ने अंग्रेजों से बदरीनाथ धाम का प्रबंध वापस टिहरी रियासत को करने की मांग की। तब से राजा ने प्रतिवर्ष ₹5000 की आर्थिक सहायता बदरीनाथ धाम मंदिर को देना प्रारंभ की। 1928 में टिहरी में हिंदू एडॉर्मेंट कमेटी का गठन कर बदरीनाथ मंदिर का प्रबंध देखा जाना प्रारंभ किया। इस तंग आर्थिकी और जन दबाव का परिणाम यह हुआ पौड़ी के एक्सीलेंसी माल्कम हाल ने 6 सितंबर 1932 को बदरीनाथ मंदिर का धार्मिक आर्थिक प्रबंध टिहरी राज दरबार को सुपुर्द करने का पत्र गवर्नर संयुक्त प्रांत को लिखा,जो स्वीकार कर लिया गया और बदरीनाथ धाम का आर्थिक एवं धार्मिक प्रबंध पूर्व की तरह टिहरी राजा को सौंप दिया गया। यहां बदरीनाथ रिहाइश के सिविल अधिकार टिहरी राजा को नहीं दिए गए।

टिहरी राजदरबार

1948 के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बदरीनाथ धाम का प्रबंध स्वयं अपने हाथ में लिया, लेकिन बदरीनाथ मंदिर के धार्मिक प्रबंध, पूजा मुहूर्त और रावल की नियुक्ति के संबंध में टिहरी रियासत को प्राप्त अधिकारों को पूर्ववत संरक्षित रखा। 1939 के मंदिर समिति  नियम से  "बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति " का गठन किया गया, जोकि अबतक चला आ रहा है। बीच में सरकार ने देवस्थानम बोर्ड भी बनाया, लेकिन तीर्थ पुरोहितों के विरोध के चलते सरकार ने इस भंग कर दिया और पुरानी मन्दिर समिति की व्यवस्था फिर से लागू कर दी गई। वर्तमान में इस समिति के अध्यक्ष अजेंद्र अजय है, लेकिन टिहरी राजवंश की परंपराएं बरकरार रही है। 

बदरीनाथ धाम में टिहरी रियासत की परम्परा : 
बदरीनाथ धाम के शीतकालीन कपाट बंद हो जाने के बाद प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी के दिन राजमहल नरेंद्र नगर में राजपुरोहित श्री संपूर्णानंद जोशी और श्री राम प्रसाद उनियाल सरस्वती की पूजा अर्चना करने के बाद शुभ मुहूर्त की गणना करते हैं। इसी दिन बदरीनाथ मंदिर की पूजा अर्चना के लिए  "गाडू  घड़ा कलश "अर्थात तिल का तेल निकालने का मुहूर्त भी निकाला जाता है। बदरीनाथ मंदिर समिति बसंत पंचमी के दिन इस कलश को राजमहल को सौंपती है। इस वर्ष 2022 में कपाट खुलने का मुहूर्त 8 मई प्रातः 6:15 बजे का तय किया गया है। साथ ही गाडू घड़ा कलश के लिए मुहूर्त 22 अप्रैल का तय है।

क्या है गाडू घड़ा कलश ? : 
महारानी तथा राजपरिवार व रियासत की लगभग सौ सुहागन महिलाओं के द्वारा सिल बट्टे पर पीस कर तिल का तेल निकाला जाता है, जिसे 25 .5 किलो के घड़े में भरकर मंदिर समिति को सौंपा जाता है। महल में निकाले गए इस तिल के तेल से ही भगवान के विग्रह रूप में लेप भी किया जाता है। यह यात्रा राजमहल से बदरीनाथ  तक 7 दिन में पूरी होती है। इसे गाडू घड़ा कलश यात्रा कहते हैं।

नौटियाल हैं राजा के प्रतिनिधि : 
बदरीनाथ धाम के कपाट खोलने में पहले राजा स्वयं मौजूद रहते थे, लेकिन समय के साथ उनकी उपस्थिति कठिन हुई तो चांदपुर गढ़ी के पुरोहित परिवार नौटी जनपद चमोली के नौटियाल  परिवार जिसमें वर्तमान में श्री शशि भूषण नौटियाल, कल्याण प्रसाद नौटियाल और हर्षवर्धन नौटियाल हैं। बारी-बारी बदरीनाथ मंदिर के कपाट खोलने में उपस्थित रहते हैं। धार्मिक प्रबंधों की निगरानी करते हैं।

रावल की नियुक्ति  : 
अब हालांकि रावल मंदिर समिति के कर्मचारी होते हैं, लेकिन परंपरा से टिहरी के राजा रावल के परामर्श से उप रावल की नियुक्ति करते हैं। उप रावल ही रावल का उत्तराधिकारी होता है। रावल को हटा देने का अधिकार राजा के पास निहित था। इस परंपरा का वर्तमान में भी निर्वाह किया जा रहा है।

जोशी हैं राजपरिवार के ज्योतिष : 
श्री संपूर्णानंद जोशी उस जोशी परिवार की 16वीं पीढ़ी में हैं, जो दरअसल पाटी नैनीताल जनपद के पांडेय हैं। इनके पूर्वज मेदनी शाह के समय टिहरी राजपरिवार से जुड़ गए, मेदनी शाह गंगा की धारा को मोड़ देने के लिए भी प्रसिद्ध हैं। जोशी की वंश परंपरा में फलित ज्योतिष के आश्चर्यजनक किस्से जुडे़ हैं, जो उनियाल परिवार के साथ मिलकर बदरीनाथ के कपाट खोलने बंद करने के मुहूर्त निकालते हैं। वर्तमान में श्री ईश्वरी नम्बूदरीपाद  रावल और श्री भुबन उनियाल बदरीनाथ मंदिर के धर्माधिकारी हैं। 

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