आजकल आप हेराका संगठन के माध्यम से नागा जीवनशैली की रक्षा का अभियान चला रही हैं। क्या युवा नागा इस ओर आकर्षित हो रहे हैं? एक ओर ईसाई पादरियों का आकर्षण है, जिनके पास धन और अन्य सुविधाएं हैं, दूसरी ओर आपकी पुकार है-और आपके पास उस मात्रा में न धन है, न सुविधाएं। आप उनका सामना कैसे कर पाती हैं?
यह सच है कि हम गरीब हैं और ईसाई बहुत धनी। लेकिन हमारे पास नैतिक बल है। हम जानते हैं कि जो हम कर रहे हैं उससे हमारे समाज का भला होगा। हमारा कार्य ईश्वरीय कार्य है, ईश्वर की आज्ञा से हो रहा है। जबकि ईसाई पैसे का लालच देकर, बहला-फुसलाकर अपने विचार फैलाते हैं। हमारे हेराका आन्दोलन की ओर पढ़े-लिखे युवक-युवतियां बहुत बड़ी संख्या में आकर्षित हो रहे हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास है कि अपनी आस्था की रक्षा करके ही जीवन में सुखी रहा जा सकता है।
क्या ईसाई बनकर भी नागा रहा जा सकता है?
मैं जानती हूं कि ईसाई भी ईश्वर में यकीन करते हैं। वे ईसाइयत का प्रचार करने का बहुत प्रयास कर रहे हैं। मेरे पास भी बैप्टिस्ट ईसाई आए थे और मुझसे ईसाइयत स्वीकार करने के लिए कहा था। पर मैंने कभी ऐसा विचार नहीं किया। अपनी परम्पराएं, रीति—रिवाज एकदम फेंके नहीं जा सकते। जैसे, यह कुर्सी जिस पर मैं बैठी हूं, यह अलग-अलग टुकड़ों से मिलकर बनी है, अगर इसका कोई भी टुकड़ा अलग निकाल दिया जाए तो कुर्सी की उपयोगिता खत्म हो जाएगी। इसी तरह अगर इसमें कोई दूसरे रंग—रूप का टुकड़ा जोड़ दिया जाए तो कुर्सी का सारा रूप भद्दा दिखेगा। नागा जीवन भी इसी तरह का है। अगर उसकी परम्पराएं या रीति—रिवाज बदले जाते हैं और विदेशी परम्पराएं अपनाई जाती हैं तो वह नागाओं के लिए अच्छा नहीं होगा। हमारा भला तभी होगा जब कुर्सी के भिन्न-भिन्न अवयवों की भांति नागा जीवन के सभी रीति-रिवाज एक एवं सुरक्षित रहें।
नागालैण्ड की अशान्त स्थिति के बारे में आपका क्या मत है?
आग पर हमेशा पानी की ही विजय होती है। आग की जीवन में आवश्यकता होती है। पर अगर उससे भोजन पकाने के बजाए घर जलाया जाए तो उसे बुझाना जरूरी होता है। हम लोग नागालैण्ड में शांति से रहना चाहते हैं, पर कुछ सिरफिरे नागालैण्ड को भारत से अलग करना चाहते हैं।
आपके राजनीतिक संगठन ‘जेलियांगरांग पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ के क्या उद्देश्य हैं?
हमारे क्षेत्र में तीन प्रकार की बोलियां बोलने वाली जनजातियां हैं-जेमि, लियांगमेई और रांगमेई। इनको एक संयुक्त नाम 'जेलियांगरांग' देकर हम अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, क्योंकि वर्तमान नागालैण्ड राज्य में बहुसंख्यक ईसाई हैं, वे हमारे विरुद्ध हैं। इसीलिए हम नागा होने के बावजूद अपने लिए एक पृथक स्थान चाहते हैं। मैं नागालैण्ड में मिलना नहीं चाहती क्योंकि वहां हम अपनी संस्कृति, धर्म को सुरक्षित नहीं रख सकते। वे हमें ईसाई बनाना चाहते हैं। मेरे हमेशा इनकार करने से कारण वे बहुत क्रुद्ध हैं। कुछ समय पूर्व उन्होंने नागालैण्ड विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित करने का असफल प्रयास भी किया था, जिसमें सरकार द्वारा मुझे दी जी रही सुविधाएं वापस लेने की व्यवस्था थी। नागाओं की सांस्कृतिक परम्पराएं एक समान हैं। नागालैण्ड में सैकड़ों जातियों की भिन्न-भिन्न परम्पराएं व बोलियां हैं। हम चाहते हैं जेलियांगरांग को एक पृथक क्षेत्र बना दिया जाए ताकि हम शासन में हिस्सा ले सकें और हमारा विकास हो। अभी स्थिति यह है कि जेलियांगरांग क्षेत्र तीन राज्यों-नागालैण्ड, मणिपुर और असम—में बंटा हुआ है।
फिजो और आपके आन्दोलन में क्या अन्तर है?
फिजो हिंसा में यकीन करता है और उसका किसी भारतीय धर्म से विश्वास नहीं है। सन् 50 के दशक में फिजो मुझसे मिला और उसने मुझे अपने साथ मिलाने का प्रयास किया। तब मैंने जवाब दिया कि ‘फिजो तुम आसमान पर हो, जमीन पर तुम्हारे पांव नहीं हैं। मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकती’।
आपने कहा कि फिजो के पांव आसमान में हैं, इसका क्या अर्थ था?
फिजो शस्त्र प्रयोग द्वारा भारत से पृथक ईसाई राज्य बनाना चाहता है-यह आसमान पर चलना हुआ। जबकि मैं स्वयं को भारतीय मानती हूं और इसलिए भारत से अलग होने वालों का साथ नहीं दे सकती। प्रस्तुति: तरुण विजय
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