योजनाएं बनाते समय हमको कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा। अपनी योजना के पीछे हम अपने देशवासियों की संपूर्ण कार्यशक्तियों को खड़ा कर सकें, इसके लिए आवश्यक है कि उस योजना की जड़ उनके हृदयों में हो, उसका संबंध उनके जीवन के सारभूत तत्वों से हो। उनको वह अपनी मालूम हो और उसको कार्यान्वित करना उनको हितकर प्रतीत हो। हमारी आज की अधिकांश योजनाओं में कल्पनाशक्ति रहती है, अर्थ नीति के गहन सिद्धांतों का समावेश रहता है किंतु दुर्भाग्यवश उनमें भारतीयता नहीं रहती और इसीलिए ये भारत की भूमि में, भारत की कोटि-कोटि जनता के हृदय में पनप नहीं पातीं। वे पाश्चात्य विद्या विभूषित कुछ विद्वानों की चर्चा का विषय मात्र बन कर समाप्त हो जाती हैं। अत: भारतीयता हमारी योजनाओं का सबसे प्रमुख गुण होना चाहिए। उसी से आत्मविकास संभव है और उसी के पीछे आत्मप्रेरणा से संपूर्ण देश खड़ा हो सकता है।
दीनदयाल जी स्पष्ट कह रहे हैं कि विकास का आधार स्थानीयता होना चाहिए, स्थानीय संस्कृति, स्थानीय मानस, स्थानीय संसाधन, स्थानीय आवश्यकता। दीनदयाल जी आगे कहते हैं—
हमको आज भारतीयता की पूजा करनी है, किंतु भारतीय जीवन शून्य में अवस्थित तो है नहीं। विश्व में होने वाली घटनाओं और चलने वाली विचार क्रांतियों से वह अपने आप को अछूता कैसे रख सकता है। अंत: भारतीय जीवन का विचार करते समय हमको संसार सागर को उद्वेलित करने वाली विचार वीथियों को दृष्टिगत रखना ही होगा, अपनी तरी हमको सागर की अवस्था का विचार करके ही निर्माण करनी होगी।
दीनदयाल जी थोड़ा विगत इतिहास का आसरा लेकर भारत की तात्कालिक स्थिति की बात करते हैं। वे लिखते हैं-
एक हजार की विकृत अवस्था का परिणाम आज का भारतवर्ष है। इस भारत वर्ष को आज हमें स्वरूप देना है। जो विकृति आ गई है, उसको दूर निकाल कर फेंकना है। आज अपनेपन को पहचान कर दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हमको आगे बढ़ना है। जबसे हम अपने जीवन के स्वामी स्वयं न रहे, तबसे संसार बहुतआगे बढ़ चुका है। आज न तो हम लौटकर अपने पुराने स्थान से यात्रा प्रारंभ कर सकते हैं और न आज की विकृत अवस्था को ही प्रकृत अवस्था मानकर चल सकते हैं। हमारा सौभाग्य है कि दासता की लंबी अवधि में भी अपनी प्रकृति को व्यक्त करने वाले महापुरुष हुए हैं, फलत: हमारे जीवन के कितने ही विकार क्यों न आ गए हों, हमारी प्रकृति पूर्णत: आक्रांत होकर मरी नहीं है। हम अपनी इस प्रकृति की अखंडधारा को पहचानें। उसको शक्तिशाली करके विकृति की अस्वच्छता को प्रकृति की प्रवाहजन्य स्वच्छता से धो डालें और इस प्रकार शक्ति संपन्न हो संसार के साथ आगे बढ़ें।
दीनदयाल जी की यह दृष्टि आज भी प्रासंगिक है। योजनाओं की सफलता के लिए उसे कार्यान्वित करने वालों के हृदय से उसे जुड़ा होना चाहिए, तभी वह फलीभूत होती है। वह देश को उसकी मूल क्षमता का स्मरण करा रहे हैं। अपनी क्षमताओं पर संशय करने वाला व्यक्ति कभी उपलब्धि हासिल नहीं कर सकता। इसलिए स्वयं पर विश्वास बहुत आवश्यक है। दीनदयाल जी आगे सतर्क करते हैं-
एक बात और। अपने इस विकास में आज भी हम पूर्ण स्वतंत्र नहीं हैं। संसार के अनेक देशों की वक्र दृष्टि हमारी ओर लगी हुई है। अत: हमको सावधानी रखनी होगी कि हम अपने जर्जर शरीर को रोगमुक्त करके जब तक स्वस्थ हो कर खड़े हों, तब तक कोई हमारे ऊपर हावी न हो जाए।
दीनदयाल जी अगस्त, 1953 के अंक में प्रकाशित आलेख अखंड भारत : ध्येय और साधन में स्पष्ट करते हैं कि
अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का परिचायक है। यह तो हमारे संपूर्ण दर्शन का मूलाधार है। एक देश, एक राष्ट्र, एक संस्कृति की आधारभूत मान्यताओं का समावेश अखंड भारत शब्द के अंतर्गत हो जाता है।
फिर दीनदयाल जी खंडित भारत को विकृति बताते हुए कहते हैं-
कई लोगों के मन में शंका होती है कि अखंड भारत सिद्ध होगा भी कि नहीं। अखंड भारत की सबसे बड़ी बाधा मुस्लिम सम्प्रदाय की पृथकतावादी एवं अराष्ट्रीय मनोवृत्ति रही है। पाकिस्तान की सृष्टि उस मनोवृत्ति की विजय है। अखंड भारत के संबंध में शंकाशील यह मानकर चलते हैं कि मुसलमान अपनी नीतियों में परिवर्तन नहीं करेगा। यदि उनकी धारणा सत्य है तो फिर भारत में 4 करोड़ मुसलमानों को बनाए रखना राष्ट्रहित के लिए बड़ा संकट होगा। क्या भारत से मुसलमानों को खदेड़ दिया जाए? यदि नहीं तो उन्हें भारतीय जीवन के साथ समरस करना होगा।
दीनदयाल जी स्पष्ट बताते हैं कि यद्यपि मुसलमानों को देश से बाहर नहीं किया जा सकता, लेकिन फिर राष्ट्रीय एकता कैसे होगी? दीनदयाल जी इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं –
यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता, जो हिंदी राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति, जो हिंदू संस्कृति है, उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधारा में सभी प्रवाहों का संगम होने दें।
जनवरी, 1954 के एक अंक में दीनदयाल जी भारतीय जनसंघ की अर्थ नीति को उद्घाटित करते हैं। वह लिखते हैं कि भारतीय संस्कृति में संपत्ति समाज की होती है। इसी दृष्टि के आधार पर वह जनसंघ की अर्थनीति में ट्रस्टीशिप के सिद्धांत, मानव समाज के वर्गीकरण, धर्म और श्रम, श्रम झ्र मनुष्य का कर्तव्य, श्रम का अधिकार, जनशक्ति का आधार, भूमि व्यवस्था में परिवर्तन, कृषि उत्पादन, छोटी और सस्ती मशीनों के उपयोग, भूमिकर, कुटीर उद्योग, वितरण व्यवस्था, श्रम और पूंजी के संबंध एवं संयमित उपभोग जैसे बिंदुओं पर विचार रखते हैं। पाञ्चजन्य में प्रकाशित उनके अनेकानेक आलेखों में वे भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट, नया नेतृत्व उभरने की आवश्यकता जैसे प्रश्नों पर विचार करते दिखते हैं। इन आलेखों से स्पष्ट है कि दीनदयाल की दृष्टि समग्रता आधारित थी। और, समस्याओं का समाधान सत्य और संस्कृति की भावभूमि पर ढूंढते थे।
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