मनमोहन वैद्य
भारत की स्वाधीनता के 75 वर्ष की यात्रा और राष्ट्रीय विचारों की पत्रिका पाञ्चजन्य का अपने 75वें वर्ष में प्रवेश करना, संयोग मात्र नही है। स्वाधीनता से शुरू हुई यात्रा सही अर्थ में स्व-तंत्रता तक पहुंचानी है तो उस ‘स्व’ के उद्घोष का स्वर वैचारिक तथा मीडिया जगत में क्या हो, यह दिशा तय करने वाला विमर्श प्रस्थापित करने की प्रक्रिया पाञ्चजन्य पत्रिका की शुरुआत थी।
द्वितीय महायुद्ध 1945 में समाप्त हुआ। तब इंग्लैण्ड, जर्मनी और जापान इन देशों की बहुत हानि हो चुकी थी। उन्होंने अपने देश को फिर से खड़ा करने की शुरुआत की। 1948 में इज्राएल ने एक अर्थ में शून्य से शुरुआत की थी। भारत 1947 में स्वाधीन हुआ। इंग्लैण्ड, जर्मनी या जापान जैसी हानि भारत की नहीं हुई थी। नैसर्गिक संसाधन, प्रतिभा, जनसंख्या, प्रदीर्घ इतिहास, जीवन का परिपूर्ण चिंतन, अनुभव इन सभी दृष्टि से भारत इन चारों देशों से बहुत आगे था, समृद्ध था। फिर भी इन चारों देशों ने जीवन के अनेक क्षेत्रों में जितनी प्रगति की है, उतनी भारत नहीं कर सका है। इसका एकमात्र कारण यह है कि जब तक ‘लोक’ के नाते हम कौन हैं, यह हम तय नहीं करते, तब तक राष्ट्र के नाते हमारी प्राथमिकताएं हम तय नहीं कर सकते। और उपरिल्लेखित इंग्लंड, जर्मनी, जापान और इज्राएल, इन चारों देशों के लोगों में ‘राष्ट्र’ के नाते ‘हम’ कौन हैं, हमारे पुरखे कौन थे, हमारा इतिहास क्या है, भूतकाल में हमारी गलतियां, उपलब्धि क्या रही है, इस के बारे में वे सब सहमत थे। केवल भारत ही ऐसा एक देश है जिसके लोगों में हम कौन हैं, हमारा इतिहास क्या रहा है, हमारी उपलब्धि, विशेषताएं क्या रहीं, इस के बारे में हम सहमत नहीं हैं। इसी कारण स्वाधीनता के बाद हमारी विदेश नीति, रक्षा नीति, शिक्षा नीति और अर्थनीति अपने ‘स्व’ के प्रकाश में ना रहकर दूसरे, पश्चिम के अननुभवी या कम अनुभवी विचार या देशों के आधार पर तय होती गई। और, भारत की धन, बुद्धि, संसाधन, सम्पदा का अपव्यय ही होता चला गया।
अब सोमनाथ मंदिर के निर्माण की ही बात लेते हैं। जूनागढ़ रियासत के भारत में विलीनीकरण की प्रक्रिया पूर्ण कर (1948) स्वाधीन भारत के प्रथम गृह मंत्री सोमनाथ गए। प्रसिद्ध, ऐतिहासिक द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से प्रमुख, लाखों भारतीयों की आस्था का केंद्र, ऐसे सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेष देख कर उनका मन पीड़ित हुआ और उस मंदिर का जीर्णोद्धार करने का संकल्प उनके मन में जगा। पंडित नेहरू की कैबिनेट में मंत्री श्री कन्हैय्यालाल मुंशी जी को उन्होंने यह कार्य सौंपा। मुंशी जी जब महात्मा गांधी जी से मिले तब गांधी जी ने इसे सरकारी धन से नहीं, अपितु समाज से धन लेकर इसे पूर्ण करने के लिए कहा। उस समय के, स्वाधीन भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए (1952) पधारे थे। इन सभी गणमान्य लोकनेता के मन में सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार भारत के गौरव की पुनर्स्थापना का कार्य था। ये सभी कांग्रेस के मूर्धन्य नेता थे। परंतु पंडित नेहरू का इस कार्य के लिए कड़ा विरोध था। वे इसे हिंदू पुनर्जागरणवाद की घटना के नाते देख रहे थे। यही है भारत की दो भिन्न अवधारणाओं के बीच का अंतर। इसी कारण भारत की स्वाधीनता के पश्चात की यात्रा भारत के ‘स्व’ के प्रकाश में शुरू न होकर पश्चिम के विचारों के प्रभाव में शुरू हुई।
ठीक इसी समय भारत की ‘स्व’ की बात को समाज तक पहुंचा कर राष्ट्र जागरण करने के हेतु से लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका का आरम्भ हुआ, जिसके प्रथम सम्पादक ज्येष्ठ चिंतक, दार्शनिक पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे। परंतु इतने मात्र से काम नहीं चलने वाला था। राष्ट्रीय विचार, राष्ट्रीय अस्मिता पर ही आघात करने वाले, उसके बारे में सम्भ्रम निर्माण करने वाले, इस अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को नकारने वाले तत्व – शक्तियां सक्रिय हो गई थीं। राष्ट्रीय अस्मिता को नकारना, जिस भारत को दुनिया शतकों से जानती आई है, उसे नकारना, यह मानो अपने-आप को बुद्धिजीवी, प्रगतिशील और लिबरल कहलाने का फैशन चल पड़ा।
एक अर्थ में यह राष्ट्रीय अस्मिता का ‘धर्मयुद्ध’ ही छिड़ गया था। इसलिए फिर राष्ट्रीय शक्तियों को राष्ट्र की पहचान को नकारने वाले, उसकी नकारात्मक प्रस्तुति, प्रतिपादन और प्रचार करने वालों के विरुद्ध युद्ध, धर्मयुद्ध छेड़ना आवश्यक हो गया। धर्मयुद्ध में दुर्योधन, दु:शासन, शकुनि जैसे दुष्टों का विरोध करना आवश्यक होता है, उसी तरह धर्म की रक्षा हेतु, भीष्माचार्य, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे वंदनीय लोगों पर भी शरसंधान करना आवश्यक होता है। इस धर्मयुद्ध के शंखनाद के प्रतीक, ऐसे पाञ्चजन्य के उद्घोष से स्वाधीन भारत के वैचारिक जगत में धर्मयुद्ध के लिए, राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा, उसका प्रसार, प्रबोधन और अपप्रचार का प्रतिकार करने की दृष्टि से 1948 में ‘पाञ्चजन्य‘ साप्ताहिक वैचारिक पत्रिका का आरम्भ हुआ, जिस के प्रथम सम्पादक श्रेष्ठ साहित्यिक, कवि अटल बिहारी वाजपेयी थे।
राष्ट्रधर्म जगाने की, राष्ट्रीय प्रबोधन और जागरण करने की ‘पाञ्चजन्य’ की यह साधना आसान नहीं थी। अनेक अवरोध, विरोध, दमन का सामना करता हुआ ‘पाञ्चजन्य’ का यह अभियान निरंतर चलता हुआ आज 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
महाभारत के धर्मयुद्ध के समय दोनों पक्ष में एक ही परिवार के लोग थे। कौरव पक्ष के जीवनमूल्य और जीवनादर्श अलग थे, पर वे थे तो अपने ही। इसी तरह ‘पाञ्चजन्य’ ने राष्ट्रविरोधी विचारों का विरोध, उनके षड्यंत्रों का पर्दाफाश सफलतापूर्वक करते हुए भी वे अपने ही हैं, यह ध्यान में रखकर ‘ युद्धस्व विगतज्वर’, इस का भी सतत ध्यान रखा है। कभी-कभी विमर्श हेतु उनके विचारों को भी अपनी पत्रिका में स्थान दिया है। यही भारत की परम्परा रही है। अपने विरोधियों को समूल नष्ट करना, यह सेमेटिक मूल का सिद्धांत, जिसे ईसाईयत, इस्लाम और साम्यवादियों ने अपनाया दिखता है, पूर्णत: अभारतीय है। समन्वयात्मक और समावेशी, ऐसे भारतीय चरित्र का परिचय कराते हुए ‘पाञ्चजन्य’ की इस सफल विकास यात्रा के 75वें वर्ष के उपलक्ष्य में उनके संचालक एवं सम्पादकों का हार्दिक अभिनंदन।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)
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