|
दलितों पर हो रहे जुल्मों की तथ्यपरक रिपोर्टिंग मीडिया की जिम्मेदारी
सामयिक मुद्दों पर मीडिया के रुख और रुखाई की परतें ख्ांगालता यह स्तंभ समर्पित है विश्व के पहले पत्रकार कहे जाने वाले देवर्षि नारद के नाम। मीडिया में वरिष्ठ पदों पर बैठे, भीतर तक की खबर रखने वाले पत्रकार इस स्तंभ के लिए अज्ञात रहक प्रकार का भुगतान नहीं किया जाता।
2002 के गुजरात दंगों के समय कुछ चैनलों और अखबारों ने फर्जी खबर दी थी कि 'हिंदू दंगाइयों ने एक मुस्लिम महिला का पेट फाड़कर बच्चा निकाल लिया'। ये और ऐसी ही ढेरों झूठी खबरें छापी गई थीं, जो बाद में मनगढ़ंत निकलीं। यहां तक कि 'दंगाई हिंदू' और 'दंगा पीड़ित मुसलमान' की जो तस्वीरें दुनिया भर में फैलाई गर्इं वे भी फर्जी यानी 'फेक' थीं। तब से लेकर आज तक कुछ भी नहीं बदला है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि ऐसे दुष्प्रचार का शिकार ज्यादातर हिंदुत्वनिष्ठ संगठन और व्यक्ति ही बनते हैं। यही बात शक पैदा करती है कि झूठी खबरों का यह पूरा उद्योग कांग्रेस की मदद से चल रहा है। कैंब्रिज एनालिटिका के खुलासे के बाद इस शक की पुष्टि हो चुकी है। वैसे चर्चा यह होनी चाहिए कि क्यों कुछ समाचार पत्र, चैनल और वेबसाइट लगातार झूठ उगलने की मशीन बने हुए हैं। उनकी खबरों के निशाने पर रा.स्व.संघ और भाजपा ही नहीं, बल्कि पूरा हिंदू समाज क्यों है?
प. बंगाल के आसनसोल में हिंदू विरोधी दंगों की खबर मीडिया ने लगभग गायब कर दी। चैनलों ने वहां पर हिंसा की रिपोर्टिंग तो की, लेकिन ज्यादा जोर एक मस्जिद के इमाम को ‘इनसानियत का मसीहा’ साबित करने पर रहा। दिल्ली के पूरे मीडिया ने बताया कि दंगे में बेटे की मौत के बावजूद इमाम ने लोगों से शांति की अपील की। जबकि आसनसोल के पुलिस कमिश्नर कहते रहे कि यह साबित नहीं हुआ है कि इमाम का बेटा हिंसा में मारा गया है या कहीं और।
2 अप्रैल को भारत बंद के दौरान कई जगह भारी हिंसा हुई। एक पूर्वनियोजित तरीके से आम लोगों में भ्रम फैलाया गया कि सरकार ने आरक्षण खत्म कर दिया है। कोई कोर-कसर न रह जाए इसलिए राहुल गांधी ने प्रत्यक्ष तौर पर लोगों को उकसाने की कोशिश की। लेकिन कुछ एक जगहों को छोड़ दें तो ज्यादातर चैनलों और अखबारों ने राहुल गांधी की बयानबाजी को बंद के दौरान हुई हिंसा से जोड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई। शायद यही वह काम है जिसके लिए कांग्रेस ने कैंब्रिज एनालिटिका जैसी बदनाम संस्था को कथित तौर पर करोड़ों रुपये की फीस चुकाई है। जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरोध में दलित आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की गई, उससे यह शक मजबूत होता है कि कैंब्रिज एनालटिका अब भी अपने काम में जुटा हुई है। सोशल मीडिया पर एक 'आंदोलनकारी' की तस्वीर भी सामने आई जो फिल्म पद्मावत के विरोध में हुए आंदोलन में राजपूत बनकर हिस्सा ले रहा था और दलितों के आंदोलन में भी कपड़े बदलकर दलित बना हुआ था। लेकिन मुख्यधारा मीडिया इस मामले में हमेशा की तरह उदासीन बना रहा।
गुजरात के भावनगर की एक खबर सारे अखबारों के पहले पन्ने पर छपवाई गई कि वहां पर एक दलित को घुड़सवारी के शौक के कारण गांव के ‘ऊंची जाति के लोगों ने मार डाला’। अगले ही दिन सच सामने आ गया कि हत्या किसी और विवाद में हुई है और आरोपी ऊंची जाति के नहीं हैं। दलितों पर अत्याचार हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है, इससे जुड़ी खबरों को पूरी गंभीरता से लिया जाना चाहिए। लेकिन इसकी आड़ में राजनीतिक दुष्प्रचार किया जाता रहा तो इससे दलितों की समस्याएं और बढ़ेंगी। यह साफ है कि हिंदू समाज को आपस में लड़ाने के लिए कांग्रेस और उसकी एजेंसियां खुलकर सेकुलर मीडिया की मदद ले रही हैं। यह जिम्मेदारी मीडिया की भी है कि वह खुद को इससे बचाए। वरना समाज में विद्वेष तो फैलेगा ही, मीडिया की विश्वसनीयता भी कम होगी।
टिप्पणियाँ