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देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के संबंध में अपने फैसले पर रोक लगाने से इनकार किया, किन्तु साथ ही इस संबंध में केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका को भी स्वीकार किया। इस एक कदम में आपस में गुंथी दो सकारात्मक बातें छिपी हैं—सख्ती और संवेदनशीलता। लोकतंत्र में न्यायपालिका यदि अपनी दृढ़ता खो दे तो बाकी रह क्या जाता है! इसी तरह कार्यपालिका-न्यायपालिका यदि नाजुक मुद्दों पर संवेदनशील नहीं हैं तो उनका होना बेमानी है। किन्तु इस न्यायिक और प्रशासकीय समझ-बूझ के बरअक्स उन्माद का एक अंधड़ है। न्यायपालिका ने क्या कहा, केन्द्र सरकार का रुख क्या है, इस सबसे बेपरवाह यह आंधी जहरीली सियासत की है। क्या यह महज संयोग है कि अनुसूचित-जाति-जनजातियों के नाम पर उमड़े जत्थों में शामिल युवाओं को ठीक से यह भी मालूम नहीं था कि विवाद का मुद्दा क्या है! कई स्थानों पर पत्रकारों ने जब आक्रोशित युवाओं से उनके गुस्से का कारण जानना चाहा तो उनका कहना था कि केंद्र सरकार ने संविधान से आरक्षण समाप्त कर दिया है! और क्या यह भी केवल संयोग है कि जब देश के 10 राज्य उत्पात की आग में जल रहे थे, दर्जनभर लोगों की जान इस हिंसा में जा चुकी थी, उस वक्त भी कुछ नेता ट्विटर पर जनता को भ्रमित और आक्रोशित करने वाली चिनगारियां छोड़ने में व्यस्त थे! इन ‘संयोगों’ को जोड़कर देखें तो एक दुर्योग का चित्र दिखाई पड़ता है। विद्वेषक राजनीति बीते सत्तर वर्ष से समाज के हाशिए पर पड़ी जनता को ‘जलावन’ के तौर पर इस्तेमाल करने निकली है। नफरत की आग लगाते, असंगत-हिंसक लामबंदियों में जुटते राजनीति के पैरोकार बाबासाहेब की बातों से कोसों दूर हैं। वंचितों के दर्द का छद्म ओढ़े ये ऐसी टोलियां हैं जिनकी आंखें कुर्सी पर लगी हैं किन्तु साथ ही गर्दन इस लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के प्रति उपेक्षाभाव से तनी है। कांग्रेस, बसपा-सपा और वामपंथी, नफरत की आंधी उठाने में आज कौन पीछे है? किन्तु कुछ बातें हैं जिन पर गौर करने और सवाल उठाने की जरूरत है।
— कांग्रेस इस बात पर कन्नी काट जाती है कि बाबासाहेब के प्रति ताजा उमड़े प्रेम के उलट क्यों उसका नजरिया उनके प्रति ऐतिहासिक रूप से उपेक्षा और वितृष्णा भरा था। इस बात का भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता कि क्यों इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे के बाद कांग्रेस को तो सत्ता मिली किन्तु अनुसूचित जाति/जनजाति के रूप में समाज के इस बड़े वर्ग का जीवन नारकीय ही बना रहा।
— तथ्यों को गच्चा देने वाली कुछ ऐसी ही कहानी बसपा की भी है। सर्वोच्च न्यायालय यदि अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को दोषहीन और अधिक युक्तिसंगत बनाना चाहता है तो इसमें नई बात क्या है? क्या इस अधिनियम के विषय में कुछ ऐसे ही निर्देश वर्ष 2007 में मायावती ने नहीं दिए थे! राजनीतिक पैंतरे और प्रशासनिक पहल का यह अंतर केवल इतना है कि मायावती उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं और इस समय राजनीति में खाली हाथ हैं।
— सेकुलर, प्रगतिशील, जनवादी और सिविल सोसाइटी के लबादे ओढ़े वामपंथ का संज्ञान भी लिया जाना जरूरी है। विस्फोटक होती स्थितियों में सोशल मीडिया के माध्यम से और बारूद बिछाने का काम करते वामपंथी खूब दिखे। अनुसूचित जाति/जनजाति से जुड़े मुद्दे पर मुस्लिम उन्मादियों को जोड़ने, बाबासाहेब, संविधान और इस देश से जुड़े तमाम ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत करने का काम इस दौरान कामरेड नेता और प्यादे करते रहे।
न्यायालय के फैसले, केंद्र सरकार के रुख और खुद बाबासाहेब के दृष्टिकोण की मनमानी हिंसक व्याख्याएं कौन कर रहा है, यह बात लोगों को पता चलनी ही चाहिए। इस देश की अखंडता के सवाल पर जिनके होंठ सिले हैं, समाज को बांटने के लिए उन्होंने हाथ मिला लिए हैं। नफरत की आंधी उठाने वालों के चेहरे इस अफरातफरी के बीच भी इस देश ने पहचान लिए हैं।
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