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ऋतु परिवर्तन के समय आधि-व्याधि से बचने के लिए सबसे पहले अपनी प्रकृति को पहचानें
इस स्तंभ में आयुर्वेद, एलोपैथी और होमियोपैथी के चिकित्सक और विशेषज्ञ विभिन्न रोगों की जानकारी देंगे और उनकी रोकथाम के उपाय भी बताएंगे। आप अपनी समस्या मेल या डाक से भेज सकते हैं।
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वैद्य योगेश कुमार पाण्डेय
हिंदू पंचांग में चैत्र-वैशाख (मार्च के मध्य से मई मध्य) तक का काल आयुर्वेद के अनुसार वसंत ऋतु का समय माना जाता है। वसंत ऋतु के प्रारंभ में ठंड ढलान पर होती है और गर्मी बढ़ने लगती है। यदि आप कफ प्रकृति के हैं तो आपको अभी भी ठंड लगेगी, जबकि आपके साथ बैठे पित्त प्रकृति के मित्र को गर्मी लगेगी और वहीं वात प्रकृति वाले मित्र को छाया में अथवा पंखा चलने पर ठंड लगेगी और तनिक धूप में जाते ही गर्मी लगने लगेगी। अत: इस ऋतु में स्वस्थ रहने के लिए अपनी प्रकृति को पहचानें और उसी के अनुरूप वस्त्र पहनें, भोजन करें और उसी के अनुरूप दिनचर्या निर्धारित करें।
गर्मी बढ़ने के कारण शरीर के अंदर संचित हुआ कफ दोष पिघलने और बढ़ने लगता है। छाती, हृदय, आमाशय, सिर, मुख एवं सन्धियां शरीर में कफ के स्वाभाविक स्थान होते हैं। इसलिए जब भी कफ का प्रकोप बढ़ता है तो शरीर के यही अंग सबसे पहले रोगग्रस्त होते हैं। कफ स्वभावत: भारी एवं द्रव स्वभाव वाला होता है। अत: बढ़े हुए कफ का असर सबसे पहले जठराग्नि अर्थात् पाचन शक्ति पर पड़ता है और वह मंद हो जाती है। इसी को मंदाग्नि कहा जाता है। मंदाग्नि को प्राय: सभी रोगों का मूल कारण माना जाता है। इस ऋतु में सर्दी-खांसी, जुकाम, बुखार, सांस फूलना, जोड़ों में जकड़न एवं सूजन आदि रोग होना आम बात है। इसलिए कफ को कुपित न होने दें और अपनी पाचनशक्ति को दुरुस्त रखें। इन उपायों से आप स्वस्थ रह सकते हैं-
वमन कर्म : यह एक प्रकार की शोधन प्रक्रिया है जिसके द्वारा कफ को प्राकृतिक तरीके से शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। पूरी प्रक्रिया संपन्न करने में 7 से 15 दिन का समय लगता है। यह प्रक्रिया किसी वैद्य की देखरेख में ही करें।
नस्य : नाक से औषध प्रयोग को आयुर्वेदीय भाषा में नस्य अथवा शिरोविरेचन कहा जाता है। इस विधि से सिर में कुपित कफ दोष का शोधन एवं शमन किया जाता है।
धूम्रपान : इस ऋतु में वैद्य प्राय: तीक्ष्ण धूम्रपान की सलाह देते हैं। इस निमित्त जो धूमवर्ति बनाई जाती है उसमें मालकांगुनी, हल्दी, दशमूल, मैनसिल, हरताल, लाख, चिड़चिड़ा, त्रिफला आदि औषधीय द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रयोग किसी वैद्य से परामर्श लेकर ही करें।
गण्डूश एवं कवल : गण्डूश का अर्थ कुल्ला करना तथा कवल ग्रह का अर्थ मुख को औषध द्रव्य से भरकर रखना होता है। वसंत ऋतु में शोधन गण्डूश एवं कवल का प्रयोग करना चाहिए। शोधन गण्डूश करने के लिए नीम-पटोल-करैला आदि तिक्त द्रव्यों अथवा सोंठ-काली मिर्च-पीपल-नागरमोथा आदि कटु द्रव्यों को पानी में उबालकर प्रयोग करें।
व्यायाम एवं विहार : सीधी हवा के सेवन से बचें। पूरे कपड़े पहन कर ही बाहर निकलें। नित्य व्यायाम करें। व्यायाम उतना ही करें जिससे कि आपके माथे तथा बगल में पसीना आ जाए। नियमित व्यायाम से आपका प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। कफ प्रकोप होने के कारण दिन में आलस्य का अनुभव होता है, परंतु किसी भी सूरत में दिन में न सोएं। भोजन के बाद का समय
इष्ट मित्रों के साथ समाजोपयोगी सात्विक चर्चा में बिताएं। ऐसा करने से मन के तामसिक भाव दूर होंगे तथा कफ के प्रकोप से बचा जा सकेगा। स्नान के लिए हल्के गर्म जल का प्रयोग करें।
आहार : मीठा, खट्टा और नमकीन कफ के सधर्मी माने जाते हैं। इसके उलट तीखा, कड़वा एवं कसैला भोजन कफ का शमन करता है। इसलिए मीठे, खट्टे और नमकीन के अधिक प्रयोग से बचें। कफ का प्रकोप दिन एवं रात के प्रथम प्रहर में होता है अत: उस समय पेट भरकर न खाएं। एक बार में अधिक आहार न लें।
(लेखक चौधरी ब्रह्मप्रकाश आयुर्वेद चरक संस्थान, खेड़ा डाबर, नजफगढ़, नई दिल्ली में कायचिकित्सा विभाग में सह आचार्य हैं)
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