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ईरान में जरतुश्त पंथियों में अस्मिता का भाव जाग्रत होने के बाद से वहां इस्लाम के शिकंजों से छूटने की सरगर्मी बढ़ने लगी है। लोग अब इस्लाम की बंदिशों में जकड़े रहने को तैयार नहीं
शंकर शरण
ईरान में सरकार ने 29 महिलाओं को सिर का हिजाब उतार फेंकने पर गिरफ्तार किया है। वहां सार्वजनिक रूप से महिलाओं का सिर न ढकना एक अपराध है। लेकिन महिलाएं बड़ी संख्या में इसका प्रतिरोध कर रही हैं। वे इसे उनके ‘जीवन में मजहब का अनुचित दखल’ कह रही हैं। यह बड़ी बात है।
वस्तुत:, यह केवल हिजाब का विरोध ही नहीं, आमतौर पर मजहबी दबदबे का विरोध है। हाल में ईरान में उभरे सरकार विरोधी आंदोलन में एक अनोखी बात देखी गई। आंदोलनकारी केवल सत्ताधारियों के प्रति ही आक्रोश नहीं प्रकट कर रहे थे, वे इस्लामी वैचारिक, मजहबी तानाशाही के खिलाफ भी खुलकर बोल रहे थे। आक्रोश केवल आर्थिक, राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि सामाजिक, वैचारिक स्वतंत्रता के लिए भी था। हालांकि, ईरान के लिए यह कोई नयी बात नहीं है। सोशल मीडिया के कारण भले इस बार इसे सारी दुनिया ने देखा। सच यह है कि ईरान में लंबे समय से इस्लामी मतवाद को चुनौती मिलती रही है। इस हद तक कि बौद्धिक, उच्चवर्गीय तबका इस्लामी कायदों, प्रतीकों का प्रदर्शन करने वाले लोगों को पिछड़ा, मंदमति समझता था। यह तो 1979 में अयातुल्ला खुमैनी की इस्लामी क्रांति का दबदबा था, जिससे ये बातें कुछ समय के लिए दब गईं, पर खत्म नहीं हुईं।
अमूमन आम ईरानी लोगों के रहन-सहन, पहनावे और सामाजिक व्यवहार में कोई इस्लामी झलक नहीं दिखती। यह केवल ऊपरी बात नहीं है। तमाम मुस्लिम देशों में ईरान और मिस्र में ही सर्वाधिक उदार लेखक, कवि आदि होते रहे हैं। कारण, इन देशों की विशिष्ट प्राचीन सभ्यता है, जो इस्लाम के पहले विश्व-प्रसिद्ध थी। इस्लामी अधीनता में आने के बाद भी इन देशों की वह बौद्धिक, सांस्कृतिक, ज्ञान-परंपरा समूल नष्ट नहीं हुई। वहां किसी न किसी रूप में उसकी अंतर्धारा बनी रही। वहां के प्रबुद्ध लोग यह समझे बिना नहीं रह सकते थे कि इस्लाम के पहले और बाद में उनके देश-समाज में किस प्रकार के परिवर्तन हुए। उन्हें क्या मिला और क्या छिन गया।
इसीलिए, आधुनिक नवजागरण के बाद जब यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान और उद्योग की उन्नति दुनिया में फैलने लगी तो ईरान में भी अपने मूल सांस्कृतिक, दार्शनिक स्रोतों को जानने-समझने की उत्सुकता बढ़ी। यूरोप में ग्रीक चिंतन के प्रति नया आदर जगा था और प्लेटो, अरस्तू आदि ईसा-पूर्व के महान चिंतकों के प्रति गहरी रुचि पैदा हुई।
उसी तरह, ईरानियों ने भी इस पर ध्यान दिया कि इस्लाम-पूर्व फारसी सभ्यता महान थी। फलत: ईरानी लोगों में जरतुश्त (ेङ्म१ङ्मं२३ी१) के धर्म-दर्शन के प्रति उत्सुकता बढ़ी, जो इस्लाम से पहले फारस में प्रतिष्ठित था। भारत में पारसी लोग इसी दर्शन को मानते हैं, जो फारस पर इस्लामी आक्रमण के बाद भाग कर यहां आए थे और उस धर्म को बचा कर रखा।
गत कुछ पीढ़ियों से ईरानी शिक्षित वर्ग में जरतुश्त दर्शन के प्रति आकर्षण इसलिए भी बढ़ा क्योंकि यह दिनोदिन और स्पष्ट होने लगा कि इस्लामी मतवाद वैश्विक मनीषा की तुलना में कुछ जोड़ने के बदले केवल अन्य सभी ज्ञान, दर्शन के प्रति उदासीन या हिकारत का भाव रखता है। इसी कारण अनेक ईरानी बौद्धिक अपने देश को अरबी साम्राज्यवाद का शिकार समझते हैं, जिसने एक महान और उन्नत देश फारस पर अधिकार कर उसकी सभ्यता-संस्कृति को नष्ट किया, उसका सहज विकास बाधित किया। इस तरह वे इस्लाम को एक बाहरी, थोपी गई चीज समझते हैं।
क्योंकि यह तो जगजाहिर इतिहास है कि 7वीं सदी में फारस पर आक्रमण के बल पर ही वहां इस्लाम जमा। उसे फारसी लोगों ने स्वेच्छा से स्वीकार नहीं किया था। असंख्य जरतुश्त-पंथी वहां से भागकर भारत, चीन और बाल्कन देशों में जाकर रहे। किन्तु उनमें कुछ ईरान में भी रहते हुए सदियों तक प्रतिरोध करते रहे। 15वीं सदी तक भी ईरान में उनकी संख्या काफी थी, विशेषत: गीलान और मोजनदारान प्रांतों में। उन्होंने इस्लामी शासकों को जजिया टैक्स दिया और अपमानजक पहचान का पीला पट्टा पहना था। वैसे प्रतिरोध करने वाले लोग आज भी हैं। बल्कि, उनकी संख्या कुछ बढ़ी ही है। खुमैनी सत्ता से पहले वे खुलकर नवरोज (पारसी नववर्ष) और वसंतोत्सव मनाते थे। अभी भी ईरान का आधिकारिक नववर्ष नवरोज से ही शुरू होता है।
वस्तुत: 1970 के दशक तक ईरानियों के बीच प्राचीन जरतुश्त परंपरा की बात करना, उस पर गर्व करना आदि सामान्य बात थी। प्रवासी ईरानियों के अनुसार तब ईरान में बुर्का आदि पहनने वाली स्त्री को अशिक्षित, गंवार, नौकरानी आदि जैसा समझा जाता था। वह भावना खुमैनी की इस्लामी क्रांति के तीन दशक बाद भी खत्म नहीं हुई है। अनेक शिक्षित ईरानियों को मानना था कि इस्लाम से फारस को लाभ नहीं हुआ, वह भावना आज भी है।
बहरहाल, ईरानियों में अपने मूल धर्म-दर्शन, जरतुश्त के विचारों में रुचि लेने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। इसे वे अपनी सभ्यता की गौरवशाली थाती समझते हैं, जो इस्लाम से 2,000 साल पहले उत्पन्न हुई थी। वहां इस्लाम छोड़कर गुप्त रूप से पारसी धर्म में पुनरांतरण भी हो रहा है। यह नवयोत (नवजोत) संस्कार द्वारा होता है। अमेरिका और यूरोप में रहने वाले ईरानियों में यह अधिक खुले रूप में है, जिनके परिवारों में कई जरतुश्त धर्म-रीतियों का पालन होता है। प्रवासी ईरानियों के बीच इस धर्म-दर्शन पर शोध, प्रकाशन करने वाले संगठन हैं। उन का ईरान में रहने वाले लोगों के साथ भी सक्रिय संपर्क है।
गत 4-5 दशकों में दुनिया में इस्लामी दबदबे के नए उभार ने इस प्रक्रिया को बलपूर्वक दबाये रखा। 1979 में खुमैनी के सत्तारोहण के बाद अनेक जरतुश्त पंथी वहां से पलायन कर गए। जो रहे, वे छिपे-से मौन हो गए। इसीलिए ईरान में पारसी अंतर्धारा के प्रति आज दुनिया को बड़ी कम जानकारी है। लोग यह तथ्य भी नहीं जानते कि 2011 की जनगणना के अनुसार आधिकारिक रूप से आज भी ईरान में 25 हजार जरतुश्त मतावलंबी हैं। भारतीय पारसियों समेत दुनिया भर में जरतुस्त एक जीवित धर्म है, जिसके मानने वाले विविध क्षेत्रों में अग्रणी लोग हैं।
2007 में ‘फेडरेशन आॅफ जोरास्ट्रियन एसोसियेशन आॅफ अमेरिका’ ने पाया था कि विश्व में अभी लगभग दो लाख जरतुश्तपंथी हैं। यह संख्या काफी अधिक हो सकती है। ईरान में जरतुश्तपंथियों की गिनती संपूर्ण नहीं है। कई लोग इस्लामी शासन के भय से इसे व्यक्त नहीं करते, न खुलकर नवयोत का उपयोग करते हैं। क्योंकि अभी ईरान में इस्लाम छोड़ने की सजा मौत है। इसी संदर्भ में, हाल के आंदोलन में खुली इस्लाम विरोधी अभिव्यक्तियों का महत्व समझना चाहिए।
प्रवासी ईरानी अपनी सभ्यता की पुरानी भाषा अवेस्तां, जिसमें जरतुश्त-पंथ की शिक्षाएं हैं, पर शोध, अध्ययन करते हैं। सत्कर्म का आग्रह उसकी एक केंद्रीय शिक्षा है। जरतुश्त ने तीन चीजों पर बल दिया था— अच्छे विचार, अच्छे शब्द और अच्छे कर्म। अग्नि को जरतुश्त-पंथी पवित्र और ज्ञान का दैवी प्रकाश मानते हैं। रोचक बात है कि ईरान में चालू आधिकारिक इतिहास कुछ वैसे ही पढ़ाया जाता है, जो भारत में अपनी भूमिका के बारे में अंग्रेज पढ़ाते थे कि ‘अरब मुस्लिमों ने फारस को जरतुश्तवादियों की बर्बरता से मुक्त कर ‘सभ्य’ बनाया’!
1979 के बाद खुमैनी क्रांति ने ईरान में हर क्षेत्र में इस्लामी कानूनों को सख्ती से लागू किया। खुमैनी ने पहले ही लिखा था कि, ‘जरतुश्त-पंथी लोग हीन, अग्नि-पूजक हैं। …यदि फारस के मंदिर की इस धूल की आग नहीं बुझाई गई तो यह फैल जाएगी और लोगों को (जरतुश्त) पंथ में निमंत्रित करने लगेगी।’ लिहाजा, खुमैनी के सत्तासीन होने के बाद जरतुश्त-पंथ पर भारी चोट की गई। इस पंथ के लोगों को प्रताड़ित किया गया। कुछ मारे गए, कइयों को जेल हुई और उनकी नौकरियां चली गईं। उन्हें बड़े सरकारी, सैनिक पदों पर रखना प्रतिबंधित कर दिया गया। वे अपने पांथिक प्रकाशन सीमित संख्या में ही छाप सकते थे। तेहरान के जरतुश्त मंदिर में जरतुश्त के चित्र हटाकर खुमैनी की तस्वीर लगा दी गई आदि।
पर इन्हीं कड़ाइयों ने अनेक ईरानियों में अपनी प्राचीन जरतुश्त-सभ्यता के प्रति नए सिरे से कौतूहल भी जगाया। इस्लाम छोड़कर गोपनीय रूप से पुनरांतरण भी होते रहे। जो लोग ईरान से बाहर भागे, उनमें भी एक पुनर्जागरण चलता रहा। धीरे-धीरे उन्हें अपनी दो पहचानों, ईरानी और मुस्लिम के बीच एक फांक महसूस हुई।इस प्रसंग में, कुछ जरतुश्तपंथी इंटरनेट को वरदान मानते हैं। इससे ईरानियों के बीच अपने इतिहास के प्रति नई उत्सुकता और ललक बढ़ी। इसने बौद्धिक, साहित्यिक प्रतिबंधों को लगभग नकारा बना दिया है। ‘पर्शियन रेनेसां फाउंडेशन’ जैसे संगठन ईरानी नवजागरण के प्रति उत्सुकता रखने वालों को तरह-तरह की रोचक सामग्रियां उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ईरानियों की संख्या लाखों में बताई जाती है जो यह महसूस करते हैं कि चाहे वे मुस्लिम समझे जाते रहे, पर उन्होंने कभी सोच-विचार कर इस्लामी मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया था। अब वे नए सिरे से जरतुश्त दर्शन को जानना-परखना चाहते हैं ताकि अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को स्वयं तुलनात्मक रूप से समझ सकें।
जरतुश्त-पंथ की पवित्र पुस्तक गाथा में जरतुश्त द्वारा रचित 17 गीत हैं, जो किसी मतवाद के बजाए संतुलित और शान्तिपूर्ण जीवन का दर्शन है। किसी जबरिया थोपे गए मतवाद के सामने वह आज भी अत्यंत उपयोगी और आकर्षक प्रतीत होता है।
यह सब नई ईरानी युवा पीढ़ी के चिंतनशील लोगों में एक जटिल अंतर्द्वंद्व पैदा करता है। पर धुंधले रूप में वे ईरान का भविष्य एक बहुपंथी, उदार समाज के रूप ही देख रहे हैं जहां वैचारिक, सांस्कृतिक, मजहबी दमन या एकाधिकार नहीं रहेगा। विशेषकर, जहां जरतुश्त-पंथ का सम्मानजनक स्थान होगा। अत: जिसे ईरान में ही दमित-प्रताड़ित रखना तर्कहीन प्रतीत होता है।
कुछ ईरानी तो यहां तक महसूस करते हैं कि जैसे यहूदियों का अपना देश इस्रायल है, उसी तरह जरतुश्तपंथियों की अपनी भूमि ईरान ही है। संभवत: इसी संकेत से डरकर, ईरान के इस्लामी नेता इस्रायल को दुनिया के नक्शे से मिटा देने की कसमें खाते हैं! वरना उन्हें डर है कि देर-सवेर पुन: जरतुश्त-पंथ ईरान को अपना केंद्र बना लेगा और इस्लामी एकाधिकार जाता रहेगा। न केवल ईरान, बल्कि पास-पड़ोस के अन्य मुस्लिम देशों में भी जरतुश्त-पंथ के प्रति आकर्षण बढ़ सकता है। वैसे अयातुÞल्लाह खुमैनी की यह आशंका निराधार न थी, इसका सब से बड़ा प्रमाण खुमैनी की नहीं इस्लामी क्रांति के 10 साल बाद स्वयं एक ईरानी राष्ट्रपति के विस्तृत भाषण में मिलता है।
ईरान के राष्ट्रपति सैयद मुहम्मद खातमी ने अपने सार्वजनिक भाषणों में भी खुला संकेत दिया था कि इस्लाम कोई सर्वकालिक विचारधारा, सभ्यता या व्यवस्था नहीं है। वे 1982 से 1992 तक ईरान के संस्कृति मंत्री और 1997 से 2005 तक वहां के राष्ट्रपति रहे थे। 2000 में अपने एक भाषण में उन्होंने प्रश्न उठाए, ‘‘क्या इस्लामी सभ्यता कभी एक बार उदित होकर कुछ सदी पहले अस्त नहीं हुई? क्या किसी सभ्यता के अवसान का यह अर्थ नहीं होता कि अब हम इसकी शिक्षाओं के आधार पर अपने विचार तथा कर्म नहीं गढ़ सकते? क्या यह नियम हमारे इतिहास पर लागू नहीं होता? क्या इस्लामी सभ्यता के उदय और अस्त का मतलब यह नहीं था कि इस्लामी सभ्यता का आधार बनने वाले इस्लाम मत का युग जा चुका?’’
ध्यान दें, इस्लामी ईरान गणतंत्र के राष्ट्रपति पद से ऐसे प्रश्न उठना ही वहां की सामाजिक, वैचारिक स्थिति और वहां के सामाजिक-बौद्धिक वर्ग में चलने वाले विवादी चिंतन की पर्याप्त झलक दे देता है! यह सब खुमैनी की इस्लामी क्रांति के 20 वर्ष बाद कहा गया। अर्थात् इस कथन में उस खुमैनी-क्रांति की व्यर्थता को स्वीकार करने की भी पूरी झलक है, कि उस क्रांति ने कठोर इस्लामी तानाशाही और अंतहीन मजहबी प्रचार के बावजूद वस्तुत: कुछ हासिल नहीं किया और न आम ईरानियों को इस्लाम के प्रति नि:शंक बनाया। उसी भाषण में आगे राष्ट्रपति खातमी कहते हैं, ‘‘ये प्रश्न हमारी क्रांति को मथ रहे हंै। यदि हमने उस पर पूरे संयम, संतुलन तथा वस्तुनिष्ठ होकर विचार नहीं किया, यदि हमें इन प्रश्नों के ठोस उत्तर नहीं मिले तो हमारी क्रांति को अपरिहार्य रूप से बड़े खतरों तथा कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।’’ फिर वे एक बड़ी गंभीर, बात कहते हैं, ‘‘भले ही मजहब की कोई विशेष व्याख्या, जो अतीत में इस्लामी सभ्यता की भावभूमि रही, अब अनुपयोगी हो चली हो।’’ अपने भाषण में वे मानवता से प्रेम और मानवीय स्वतंत्रता की जरूरत भी बताते हैं।
राष्ट्रपति खातमी की इन बातों पर ध्यान दें। ये ऐसी बातें हैं जो कोई भी हिन्दू, बौद्ध या यूरोपीय सेक्युलर विद्वान भी खुशी-खुशी स्वीकार करेगा। ठीक इसीलिए, जिन बातों को कोई इस्लामी आलिम, उलेमा कतई मंजूर नहीं करेगा। यानी, न केवल राष्ट्रपति खातमी एकांतिक इस्लाम की कोई अनुशंसा नहीं कर रहे, बल्कि वे प्रकारांतर से साफ मानते हैं कि अब नई सभ्यता की तैयारी का समय है तथा पुरानी इस्लामी मान्यताओं को तिलांजलि देनी पड़ेगी, क्योंकि वे अनुपयोगी हो चुकी हैं। यह सर्वोच्च ईरानी नेता के बेलाग, सार्वजनिक, विचार थे! यह भारत में तमाम मुसलमानों के लिए विशेषकर विचारणीय है। उक्त तमाम बातें साफ दशार्ती हैं कि ईरानी उच्च और बौद्धिक वर्ग किन प्रश्नों से जूझ रहा है। वह इस्लामी कायदे-कानूनों, रिवाजों को न तो खुदाई मानता है, न सार्वभौमिक, न सार्वकालिक। नोट करें, गंभीरतम बातें रखते हुए खातमी ने एक बार भी न तो कुरान, न प्रोफेट को याद किया, न किसी बात पर उनकी अनुशंसा, उद्धरण ढूंढने की जरूरत महसूस की। बल्कि राष्ट्रपति खातमी ने मूल इस्लामी शिक्षाओं को केवल तात्कालिक समाज के लिए उपयुक्त कहकर उसे स्पष्टत: मनुष्य निर्मित, न कि अल्लाह-प्रदत्त माना। इन सभी बातों का अर्थ यही है कि खातमी मूल इस्लामी किताब, प्रोफेट, उनके बनाए नियम आदि के प्रति आदर रखने के बावजूद आज की समस्याओं के लिए उनमें कोई समाधान या मार्ग नहीं देखते। यह स्पष्टत: इस्लाम को ‘अतीत की चीज’ मानने का ही दूसरा तरीका है।
निस्संदेह, राष्ट्रपति खातमी ईरानी लोगों के बीच कोई अपवाद न रहे होंगे। यह सब कहने के 5 वर्ष बाद तक वे राष्ट्रपति बने रहे थे। अर्थात्, उनके जैसे सोचने-समझने वाले वहां बड़ी संख्या में हैं और उच्च-वर्ग में भी हैं। वरना, ऐसे स्वतंत्र चिंतक को ईरान का राष्ट्रपति कैसे बनाते? इस पृष्ठभूमि में ही हाल के ईरानी आंदोलन में इस्लाम-विरोधी अभिव्यक्तियों को ठीक-ठीक समझा जा सकता है। अनेक प्रबुद्ध ईरानियों को लगता है कि धीरे-धीरे ईरान में अपनी सांस्कृतिक चेतना का विकास वर्तमान इस्लामी राज को यदि खत्म नहीं, तो काफी-कुछ परिवर्तित कर देगा। अपनी प्राचीन, समृद्ध, ऐतिहासिक विरासत के प्रति अधिकाधिक जागरूकता और ईरानी अस्मिता की भावना में वृद्धि इस का मार्ग प्रशस्त करेगी।
शोधकर्ताओं के अनुसार, अभी कम से कम एक लाख ऐसे ईरानी मुस्लिम हैं जो औपचारिक रूप से मुस्लिम दर्ज होते हुए भी जरतुश्त की शिक्षाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार, सभी संकेतों से लगता है कि ईरानी लोगों में मजहबी दबाव से स्वतंत्रता पाने की मांग बढ़ने वाली है। हमारे लिए रोचक तथ्य यह भी है कि जरतुश्त-दर्शन अनेक हिन्दू मान्यताओं और वैदिक विचारों से मिलता-जुलता है।
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