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मान्यता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। सतयुग का आरंभ चैत्र प्रतिपदा को हुआ। लोक मान्यता के अनुसार चैत्र प्रतिपदा को ही भगवान राम का और फिर धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया गया था। इसलिए इस तिथि को अति शुभ माना गया है
सर्जना शर्मा
छह ऋतुओं में ऋतुराज वसंत को सबसे सुंदर, मोहक और सौम्य ऋतु माना गया है। इसे पुनीत मधुमास भी कहा गया है। प्रकृति धरती पर अपना जितना वैभव बिखेर सकती है, बिखेरती है। न शीत, न घाम है, मलयज बयार बहती है। बाग-बगीचों में फूल, वृक्षों के नवपल्लव, आम के पेड़ों पर नवमंजरियां, कोयल की कूक। प्रकृति जब अपने यौवन पर होती है तभी आता है भारतीय नववर्ष। इसे नवसंवत्सर, गुड़ी पड़वा, उगादि, चेटी चंद, विक्रमी संवत्, सृष्टि संवत् आदि नामों से जाना जाता है। हिंदू पंचांग के मास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवसंवत्सर का शुभारंभ होता है और समापन चैत्र कृष्ण अमावस्या को। चैत्र की शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष के साढ़े तीन अति शुभ मुर्हूतों में से एक माना गया है, क्योंकि ब्रह्मा जी ने इसी दिन को सृष्टि की रचना के लिए चुना था। भारतीय ऋषि-मुनियों और मनीषियों ने काल की सूक्ष्म गणना की। अंग्रेजी कैलेंडर में वर्ष, महीना और तारीख तीन प्रमुख अंग हैं, जबकि भारतीय कैलेंडर पंचांग कहलाता है। इसके पांच अंग हैं—तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। इनकी गणना करके पूरे वर्ष का पंचांग बनाया गया। काल की गणना सूर्य और चंद्रमा दोनों की गति के अनुसार की गई। सौर वर्ष सूर्य के मेष राशि में आने से आरंभ होता है, तो चंद्र वर्ष चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से। सौर वर्ष में 365 दिन, तो चंद्र वर्ष में 355 दिन होते हैं। 11 दिन का अंतर पाटने के लिए हर तीसरे वर्ष मल मास आता है जिसे अधिक मास कहते हैं। इस वर्ष हिंदी कैलेंडर का ज्येष्ठ महीना अधिक मास है।
भारत के कुछ हिस्सों में सौर वर्ष से नव वर्ष मनाया जाता है और कुछ हिस्सों में चंद्र वर्ष के अनुसार। लेकिन सभी शुभ कार्यों और जन्मकुंडली में चंद्रमा की गति से ही शुभ दिन तय किया जाता है। इसलिए चंद्र वर्ष का महत्व उनके लिए भी उतना ही है जो सौर वर्ष मनाते हैं। भारतीय संस्कृति में कालगणना केवल साल, महीने और दिनों की गिनती नहीं है, इसका अत्यंत खगोलीय और वैज्ञानिक आधार है। हर संवत्सर अपने साथ भविष्य के संकेत तथा शुभ और अशुभ फल लेकर आता है। इसलिए संवत्सर के नाम से भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाला वर्ष कैसा रहेगा। हर महीने के बारे में सूक्ष्म से सूक्ष्म भविष्यवाणी की जाती है। यहां तक कि वर्षा कैसी होगी, फसल कैसी होगी, किस वस्तु के दाम बढ़ेंगे, किसके दाम घटेंगे, राजा यानी शासक वर्ग कैसा व्यवहार करेगा, प्रजा कैसी रहेगी। त्योहारों, व्रतों, उपवासों और पर्वों का सूक्ष्म ब्योरा। एक त्योहार दो दिन पड़ रहा हो या कोई संशय हो तो उसका निराकरण भी आपको पंचांग में मिलेगा। जबकि ग्रेगेरियन यानी अंग्रेजी के कैलेंडर में आपको केवल महीना, दिन और तारीख ही देखने को मिलती है।
भारतीय पंचांग में महीनों के नाम नक्षत्रों के अनुसार रखे गए हैं। जिस महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उसे वही नाम दिया गया है। चैत्र महीने में चंद्रमा चित्रा नक्षत्र में होता है। चंद्रमा कुल मिलाकर 27 नक्षत्रों में भ्रमण करता है। भ्रमण पूरा होने पर एक चंद्रमास पूरा होता है। 27 स्थिर तारा समूह नक्षत्र हैं अश्वनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठ, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरा आषाढ़ा़, श्रवण, श्रविष्ठा, शतभिषा, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद और रेवती। चित्रा नक्षत्र 14वें क्रमांक पर आता है। इसके आगे 13 और बाद में भी 13 नक्षत्र आते हैं। यानी बिल्कुल मध्य में है चित्रा। चित्रा नक्षत्र एक सुंदर चमकीले तारे से बना है जिसकी आकृति मोती के समान है। इसके देवता देव शिल्पी विश्वकर्मा और स्वामी मंगल ग्रह है। विश्वकर्मा अति सृजनशील, कल्पनाशील और कलात्मक हैं। मंगल ग्रह साहसी, ऊर्जावान और महत्वाकांक्षी है, लेकिन साथ ही स्वभाव में उग्र है। मोती सीप के भीतर आकार लेता है, वैसे ही चित्रा नक्षत्र का प्रभाव भी अपनी प्रकृति के अनुसार होता है।
हर नक्षत्र के चार चरण होते हैं। चित्रा के दो चरण तुला राशि में और दो चरण कन्या राशि में होते हैं। कन्या का स्वामी बुध और तुला का शुक्र ग्रह है। इस नक्षत्र को मंगल की ऊर्जा, बुध की बुद्धि और शुक्र की प्रेरणा मिलती है। वर्ष का पहला महीना होने के कारण यह नक्षत्र विशेष बन जाता है। सोने पर सुहागा हैं देवशिल्पी विश्वकर्मा। किसी भी नवसृजन के लिए जो उत्साह, बुद्धि, कलात्मकता, कल्पनाशीलता और प्रेरणा चाहिए वे सब चित्रा में हैं। चैत्र मास में भगवान सूर्य धाता रूप में विराजमान रहते हैं। धाता सूर्य आठ हजार किरणों से तपते हैं। उनके रथ पर पुलस्त्य ऋषि, वासुकी नाग, कृतस्थली अप्सरा, रथकृत यक्ष और तुम्बुरू गंधर्व रहते हैं। जब सूर्य भूमध्य रेखा को दक्षिण से उत्तर की ओर पार करता है तो उसके बाद जो प्रतिपदा आती है, वह चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष में पड़ती है। ब्रह्म पुराण, अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जगत के रचयिता ब्रह्मा जी ने चैत्र प्रतिपदा को सृष्टि की रचना के लिए चुना उस दिन रविवार था। वर्ष प्रतिपदा 2075 से, लगभग एक अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 हजार 119 वर्ष पूर्व सूर्योदय से ब्रह्माजी ने जगत की रचना प्रारंभ की।
अब प्रश्न यह है कि चैत्र महीना जब से आरंभ हुआ, तब से क्यों नहीं नवसंवत्सर प्रारंभ होता। भारतीय पंचांग में कृष्ण पक्ष में चंद्रमा के बल को क्षीण माना गया है और जब चंद्रबल क्षीण हो तो नया कार्य आरंभ नहीं किया जाता, जबकि अंग्रेजी तारीखों में 30 या 31 दिन का महीना होता है। उसमें कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष नहीं होता। भारतीय पंचांग की तरह दिन सात ही होते हैं, लेकिन पक्ष नहीं होते। सत्य तो यह है कि विश्व के किसी भी देश में भारत जैसी कालगणना नहीं हुई थी। हमारे मनीषियों ने काल की सही गणना की, खगोलीय घटनाओं के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का गहन अध्ययन किया, जांचा-परखा और खरा पाए गए तत्व को संग्रहित किया। यह सारा गणित शुद्ध रूप से वैज्ञानिक अनुसंधान की विधा है।
पृथ्वी पर होने वाले दिन और रात का समय घटता-बढ़ता रहता है मगर दिन और रात का संयुक्त समय एक ही रहता है। चंद्रमा लगभग निश्चित क्रम में बढ़ता और घटता है और लगभग निश्चित अंतर से रात्रि में पूर्ण प्रकाश (पूर्णिमा) और अप्रकाश (अमावस्या) आता है। यह भी सामने आया कि पूर्णिमा या अमावस्या भी एक निश्चित समय के पश्चात् पुन: आती है जो माह के नाम से जाना गया। इतना ही नहीं, जब अन्य क्षेत्रों पर ध्यान दिया गया तो पाया कि वर्षा, सर्दी, गर्मी के तीनों मौसम निश्चित अंतर से पुन: आते हैं। सभी छह ऋतुओं का भी सुनिश्चित चक्र है और इसी चक्र से अन्तत: स्थापित हुआ वर्ष, क्योंकि बारह पूर्णिमाओं के बाद फिर वही स्थिति आती है। इसी कारण 12 माह की एक इकाई के रूप में वर्ष शब्द आया और इस वर्ष के शुभारंभ को वर्ष प्रतिपदा कहा गया।
यह दिन किसी भी शुभ कार्य के लिए श्रेष्ठ माना गया है। चैत्र प्रतिपदा के साथ और भी बहुत-सी शुभ घटनाएं और पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। जगत् के पालक भगवान विष्णु ने इसी दिन दशावतारों में अपना पहला अवतार मत्स्य अवतार लिया। मालवा के नरेश विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर 2075 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् आरंभ किया। विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने के लिए चैत्र प्रतिपदा को ही चुना। गुरु अंगददेव जी चैत्र प्रतिपदा को प्रकट हुए और स्वामी दयानंद सरस्वती ने चैत्र प्रतिपदा को ही आर्य समाज की स्थापना के लिए चुना। सिंध प्रांत के प्रसिद्ध समाज रक्षक संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए थे। सिंधी चैत्र प्रतिपदा को चेटी चांद के रूप में मनाते हैं।
युग आरंभ होने के कारण युगादि मनाया जाता है जिसे दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में युग आदि यानि उगादि नाम से मनाया जाता है। विंध्य पर्वत के पीछे और कावेरी नदी के बीच जो भूभाग है, वहां चांद्र वर्ष और चंद्र पंचांग का अनुसरण किया जाता है। उगादि नवसंवत्सर पंचांग की रचना महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने की थी। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में चैत्र प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा के नाम से मनाया जाता है। हर घर के बाहर सजी-धजी गुड़ी यानी धव्जा सजी रहती है। बांस पर हरे या पीले रंग का नूतन वस्त्र बांधा जाता है, नीम और आम के पत्ते सजाए जाते हैं। लाल फूलों की माला पहनाई जाती है। फिर इसके ऊपर चांदी या तांबे के लोटे को उलटा करके लटका दिया जाता है और नीचे रंगों की रंगोली बनाई जाती है। घर-घर में मीठी पूरण पोली बनाई जाती है।
उत्तर भारत में वासंतिक नवरात्र चैत्र प्रतिपदा से आरंभ होते हैं। प्रकृति को शक्ति स्वरूपा कहा गया है। बारह महीनों में प्रकृति चैत्र महीने में सबसे सुंदर और मोहक होती है। शक्ति के पूजन का नौ दिनी पर्व बहुत धूमधाम और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह ऋतु परिवर्तन का समय भी है। शरद ऋतु में जो गरिष्ठ भोजन खाया जाता है उसे अब शरीर को डीटॉक्सीफाई करने का समय आ जाता है। नौ दिन तक अन्न छोड़ना आयुर्वेद की दृष्टि से शरीर के लिए बहुत लाभदायक रहता है। नौ दिन का खानपान का संयम शरीर को आने वाली ग्रीष्म और वर्षा ऋतु के लिए तैयार करता है। नवरात्र का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है। जगत् जननी मां अंबे के नौ रूपों की पूजा करके आमजन अपने विभिन्न मनोरथों की सिद्धि करते हैं।
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