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गत वर्ष जब पद्म सम्मानों की घोषणा हुई थी, तब तमाम ऐसे चेहरे सामने आए थे जो किसी यश की लालसा के बिना गुपचुप अपने-अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य कर रहे थे। इसी के साथ सिफारिशों और ‘लॉबियों’ से मुक्त पद्म सम्मान की एक नवीन परम्परा का सूत्रपात हुआ था। सरकार ने बेहतर ढंग से आगे बढ़ाने का काम इस वर्ष भी किया है। इस बार विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित कुल 85 व्यक्तियोंको पद्म सम्मान से सम्मानित किया गया है, जिनमें तीन पद्मविभूषण, नौ पद्मभूषण और 73 पद्मश्री सम्मान शामिल हैं। इन सम्मानित विभूतियों में अनेक ऐसे नाम हैं, जो लंबे समय से संघर्षपूर्ण ढंग से अपने-अपने क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं। और यह सब करते हुए उन्होंने किसी सम्मान या पुरस्कार की कभी लालसा ही न की थी। पद्म सम्मान से न केवल अब उनकी प्रतिभा और कार्य को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है बल्कि समाज उनके कार्यों एवं सेवा के बारे में जानने को उत्सुक है
जर्जर शरीर का
पहाड़ जैसा मन
भारतीय सेना के पूर्व सैनिक मुरलीकांत पेटकर 1965 के युद्ध में दुश्मनों से लोहा लेते हुए बुरी तरह से घायल होने के बाद बमुश्किल बच तो गए, मगर रीढ़ की हड्डी में गोली लग जाने के कारण उनकी कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। लेकिन, यह अक्षमता भारतीय सेना के इस जांबाज को बिस्तर पर नहीं बांध सकी!
अपने उद्यम और कठिन अभ्यास से उन्होंने खुद को पैरालंपिक प्रतियोगिता में तैराकी के लिए न केवल तैयार किया बल्कि 1972 के पैरालंपिक में वे देश के लिए प्रथम स्वर्ण पदक जीतने वाले खिलाड़ी भी बने। इस वर्ष उन्हें खेल के क्षेत्र में पद्मश्री प्रदान करने का निर्णय लिया गया है, जो कि निस्संदेह इस सम्मान के सम्मानित होने जैसा है
उचित सम्मान के हकदार
आइआइटी कानपुर से 1975 में इलेक्ट्रिकल में बीटेक करने वाले अरविन्द गुप्ता ने पढ़ाई पूरी करने के बाद किसी बड़ी नौकरी का रुख करने की बजाय कबाड़ से खिलौने बनाकर बच्चों को पढ़ाने का निश्चय किया। अबतक वे खिलौना निर्माण पर 18 भाषाओं में 6,200 लघु फिल्में बना चुके हैं। उनके इस तरीके की ख्याति दुनिया भर में है, मगर देश में उनका यह कार्य बहुत चर्चित नहीं हो सका। लेकिन, अब जब उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई, तो उनके इस कार्य की चर्चा देश भर में होने लगी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पद्म सम्मान की गरिमा को बहाल किया है। उनका शुरू से ऐसा कहना था कि पद्म सम्मान की संख्या सौ के अंदर रहनी चाहिए, जबकि कांग्रेस के जमाने में पद्म सम्मान रेवड़ी की तरह बांटे जाते थे। लेकिन अब इसकी संख्या धीरे-धीरे कम हुई है। इस बार प्रधानमंत्री ने यह ध्यान रखा कि पद्म सम्मान योग्य लोगों को मिलें और सम्मान की गरिमा भी बनी रहे। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही पद्म सम्मान के लिए सही नाम चुने गए, जो निस्संदेह अच्छी शुरुआत है।
—रामबहादुर राय
अध्यक्ष, इंदिरा गांधी राष्टÑीय कला केंद्र
बहुत-से लोग अपने-अपने क्षेत्र में चुपचाप अपना काम करते रहते हैं, अपनी चर्चा नहीं करवाते। ऐसे लोगों को जो अबतक अचर्चित थे, उनके काम के कारण अगर कोई सरकार पद्म सम्मान देती है, तो वह बधाई की पात्र है। यह प्रशंसनीय शुरुआत है।
—नरेंद्र कोहली, वरिष्ठ साहित्यकार
परिश्रम और उद्यम ने दिलाई पहचान
देश में उद्यमिता और परिश्रम से सफलता प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों को मणिपुर की सुभादानी देवी (66) से जरूर प्रेरणा लेनी चाहिए। पांच भाई-बहनों में दूसरी सुभादानी मणिपुर के हुईकप मेयाईलिका नामक स्थान पर एक साधारण परिवार में पैदा हुर्इं। उनके पिता बढ़ई थे और मां सब्जी बेचती थीं। निस्संदेह यहीं से सुभादानी के जीवन में परिश्रम और उद्यम के प्रति आकर्षण जन्मा होगा। उन्होंने अपनी मां से बुनाई सीखी और आगे चलकर इसे ही अपना जीवन-लक्ष्य बना लिया। शादी के बाद उन्होंने धीरे-धीरे अपना अधिकाधिक समय और श्रम हथकरघे को देना शुरू कर दिया। उनके बुने कपड़ों की ख्याति दूर तक फैलती गई। 1993 के दौरान उन्हें वस्त्र निर्माण में उत्कृष्टता के साथ-साथ मोइरंगफी (एक विशेष प्रकार की साड़ी) के विकास में योगदान के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके अलावा हथकरघा विरासत को जीवित रखने में उत्कृष्ट और बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें 2011 में प्रतिष्ठित संत कबीर पुरस्कार भी प्रदान किया गया। अब इस वर्ष बुनाई जैसी पारंपरिक कला के क्षेत्र में महती योगदान के लिए उन्हें देश का उच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री देने की घोषणा की गई है।
जीवनदान देने वाली दादी मां
केरल के कल्लोर में ताड़ के पत्तों से बने मकान में रहने वाली लक्ष्मी कुट्टी जड़ी-बूटियों के माध्यम से अबतक केवल अपनी याददाश्त के दम पर पांच सौ से अधिक प्राकृतिक औषधियां बना चुकी हैं। सर्प के दंश से पीड़ित व्यक्ति को जीवनदान देने वाली दवाएं बनाने में उन्हें महारत हासिल है। चूंकि, वे जिस क्षेत्र में रहती हैं वहां सांप आदि जहरीले जीवों का खतरा बना रहता है, इसलिए उनकी दवाएं अत्यंत उपयोगी और कारगर हैं। खबरों के अनुसार, वे अपने इलाके में ‘जंगल की दादी मां’ के संबोधन से भी मशहूर हैं। लक्ष्मी कुट्टी जब पद्म सम्मान ग्रहण करेंगी तो निस्संदेह उन सैकड़ों लोगों की आंखें प्रसन्नता से नम हो जाएंगी जिन्हें उनकी दवाओं ने जीवनदान दिया है।
हजारों लोगों को दिया जीवन
कर्नाटक के जनजातीय इलाकों में सात दशक से लगातार बिना किसी सरकारी सुविधा के अपने अनुभवजन्य ज्ञान के सहारे प्रसव सहायिका का कार्य कर रहीं सुलगति नरसम्मा (97) को इस वर्ष पद्म श्री प्रदान करने की घोषणा की गई है। गर्भस्थ शिशु की स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों का बिना किसी वैज्ञानिक उपकरण के स्पष्ट आकलन करने की अपनी अदभुत प्रतिभा के कारण नरसम्मा अपने क्षेत्र में ‘जननी अम्मा’ के नाम से भी मशहूर हैं।
सेवा के सेनानी
पश्चिम बंगाल के 99 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी सुधांशु विश्वास गरीबों और बेसहारा जनों की सहायता में लगे हैं। बेसहारा बच्चों के लिए अनाथालय, चिकित्सा केंद्र चलाने से लेकर नि:शुल्क स्कूल के संचालन तक वे गरीबों के लिए विविध प्रकार से लगातार कार्य कर रहे हैं। समाज-सेवा के क्षेत्र में स्वतंत्रता सेनानी सुधांशु विश्वास को पद्मश्री सम्मान के लिए चुना गया है।
निष्काम कर्म योगी
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में स्थित जांजगीर-चांपा के निवासी दामोदर गणेश बापट ने अपना पूरा जीवन कुष्ठ रोगियों की सेवा में समर्पित कर दिया है। 1962 में सदाशिव गोविंदराव कात्रे द्वारा स्थापित कुष्ठ आश्रम में 1972 में गणेश बापट वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यकर्ता के रूप में पहुंचे और फिर वहीं के होकर रह गए। पिछले साढ़े चार दशक से वे नाम और पैसे की चकाचौंध से दूर चुपचाप कुष्ठ रोगियों की सेवा में लगे हैं। गीता के ‘निष्काम कर्म’ के सिद्धांत को अपने जीवन में उतारने वाले इस कर्मयोगी को इस वर्ष समाज सेवा के क्षेत्र में पद्मश्री सम्मान के लिए चुना गया है।
नर सेवा, नारायण सेवा
देजयपुर के त्रिवेणी धाम के ब्रह्मपीठाधीश्वर संत श्री नारायण दास महाराज को अध्यात्म के क्षेत्र में पद्म पुरस्कार के लिए चुना गया है। नारायणदास महाराज बाल-संयासी हैं और त्रिवेणी स्थित अपने आश्रम में रहते हैं। लोक कल्याण के क्षेत्र उन्होंने वेद विद्यालय, अपने गुरु भगवान दास महाराज के नाम से चिमनपुरा में बाबा भगवानदास राजकीय कृषि महाविद्यालय, जगद्गुरु रामानंदाचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, लड़कियों के लिए बाबा गंगादास राजकीय परास्नातक महाविद्यालय, अजीतगढ़ में ग्राम पंचायत स्तर पर पहला 100 बिस्तर का सामान्य अस्पताल और बाबा नारायणदास राजकीय सामान्य चिकित्सालय आदि की स्थापना करने जैसे अनेक कार्य किए हैं। लेकिन इतना सब करने के बाद भी इस संन्यासी की सहजता और विनम्रता ऐसी है कि पद्मश्री के लिए नामित होने के बाद एक समाचार पत्र से बातचीत में उन्होंने कहा कि मेरा सम्मान किए जाने पर मुझे दु:ख होगा, क्योंकि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसके लिए मुझे सम्मान दिया जाए। आज जब लोग अपने जरा-जरा से सामाजिक कार्यों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित करने में लगे रहते हैं, संत श्री नारायणदास का यह कथन उनकी महानता का ही परिचायक है।
संकल्प से सफलता
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के एक छोटे-से गांव हांसपुकुर की रहने वाली सुभाषिनी मिस्त्री को समाजसेवा के क्षेत्र में इस वर्ष पद्मश्री सम्मान प्रदान करने की घोषणा की गई है। सुभाषिनी की कहानी संकल्प, साधना और सफलता की कहानी है। चिकित्सा की सुविधा न होने के कारण पति के अकाल मृत्यु का शिकार हो जाने के बाद सुभाषिनी अकेली तो हो गई, मगर कमजोर नहीं हुर्इं। उन्होंने संकल्प किया कि अब वे अपने इलाके में कम से कम चिकित्सा के अभाव में तो किसी को काल-कवलित नहीं होने देंगी। इसके बाद इस संकल्प की सिद्धि के लिए उनकी साधना और संघर्ष का आरम्भ हुआ। उनके सामने चार बच्चों के पालन-पोषण के साथ अस्पताल की स्थापना के लिए भी धनार्जन की चुनौती थी। सब बच्चों का पालन-पोषण करना संभव न होने के कारण उन्हें अपने दो बच्चों को अनाथालय में रखना पड़ा। अक्सर भूखे पेट भी रहना पड़ जाता। इस प्रकार लगभग तीन दशक के अथक संघर्ष और त्याग के बाद 1996 में आखिर वे एक अस्पताल की स्थापना करने में सफल हुर्इं, जिसमें गरीबों का मुफ्त इलाज किया जाता है। पच्चीस बिस्तरों का यह अस्पताल संकल्प से सफलता का सर्वोत्तम उदाहरण है। पद्म सम्मान के लिए चुने जाने पर उनका कहना है कि इस सम्मान की खुशी है, परन्तु इससे अस्पताल के विकास में मदद मिले तो और खुशी होगी।
फैलाया शिक्षा का आलोक
देश का पूर्वोत्तर क्षेत्र भी इस बार सरकार की दृष्टि से परे नहीं रहा। केन्द्र सरकार ने पूर्वोत्तर के राज्यों में गुपचुप कार्य कर रहे ऐसे कर्मयोगियों को खोजा और उन्हें उचित सम्मान प्रदान किया। नागालैंड के पियोंग तेमजिन जमीर ऐसे ही लोगों में से एक हैं। पियोंग को शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में उनके अनूठे योगदान के लिए इस वर्ष पद्मश्री से सम्मानित किया जाएगा।
कला के साधक
‘संस्कार भारती’ के संस्थापक बाबा योगेन्द्र ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने हजारों कला साधकों को एक माला में पिरोने का कठिन काम कर दिखाया है। वे जीवन के शुरुआती दिनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए और संघ के होकर रह गए। कला के प्रति श्रद्धा के चलते उन्होंने देश-विभाजन के समय एक प्रदर्शनी लगाई। जिसने भी इसे देखा, उसकी आंखें नम हो गर्इं। फिर तो ऐसी प्रदर्शनियों का सिलसिला चल पड़ा। शिवाजी, धर्म गंगा, जनता की पुकार, जलता कश्मीर, संकट में गोमाता, 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अमर गाथा, विदेशी षड्यन्त्र, मां की पुकाऱ.़.आदि ने संवेदनशील मनों को झकझोर दिया।
‘भारत की विश्व को देन’ नामक उनकी प्रदर्शनी को विदेशों में भी प्रशंसा मिली। कलाकारों को एक मंच पर एकत्र करने के लिए जब 1981 में ‘संस्कार भारती’ की नींव पड़ी तो इसकी कमान बाबा योगेंद्र ने संभाली। उनके अथक परिश्रम से यह संस्था आज कलाकारों की अग्रणी संस्था बन गयी है। शुरू से ही बड़े कलाकारों के चक्कर में न पड़ने वाले बाबा योगेंद्र ने नये लोगों को मंच प्रदान किया किन्तु शीर्ष कलासाधकों को भी संस्कार भारती से जोड़ते चले गए। इस वर्ष उन्हें पद्म सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा संपूर्ण कला-जगत में हर्ष का संदेश लाई है।
चिकित्सा पेशा नहीं, धर्मार्थ कार्य
अगर आपको कैंसर जैसी घातक बीमारी की सस्ती दवाई चाहिए तो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में भिक्षु डॉक्टर येशी धोंडेन से बेहतर कोई नहीं हो सकता। तिब्बती चिकित्सा पद्धति से कैंसर सहित विभिन्न बीमारियों का लगभग पांच दशक से इलाज कर रहे येशी दलाई लामा के भी चिकित्सक रह चुके हैं। इस वर्ष उन्हें पद्मश्री से सम्मानित करने की घोषणा हुई है। सम्मान मिलने की घोषणा के बाद केंद्र सरकार का धन्यवाद करते हुए उन्होंने कहा कि मुझे नहीं मालूम कि यह पुरस्कार कैसे मिला। शायद, हजारों मरीजों की दुआओं ने यह सम्मान दिलाया है।
उपर्युक्त नाम तो सिर्फ कुछ प्रमुख उदाहरण भर हैं, अन्यथा तथ्य यह है कि इस बार पद्म सम्मान के लिए चयनित नामों में से अधिकांश लोग यश की लालसा से मुक्त चुपचाप अपने कर्म में रत रहने वाले लोग हैं। इस वर्ष के पद्म सम्मान की एक खास बात यह भी है कि इनमें राजधानी दिल्ली का कोई चेहरा नहीं है। यह बात दिखाती है कि सरकार ने राजधानी में मौजूद लॉबिइंग के खिलाड़ियों को एकदम से दरकिनार कर ‘खास कामों’ में लगे देश के आम लोगों को सम्मान देने की नीति अपनाई है। देश भर के सत्कार्यरत और प्रतिभासंपन्न लोगों के सम्मान के बाद यह कहना गलत नहीं होगा कि सही अर्थों में पद्म सम्मान का अब जाकर राष्ट्रीयकरण हुआ है, जिसके लिए सरकार निस्संदेह सराहना और बधाई की पात्र है।
प्रस्तुति: पीयूष द्विवेदी
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