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कानपुर की एक लोकप्रिय मिठाई की दुकान की टैगलाइन है— ‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं।’ यह टैगलाइन नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विक्रम कोठारी, विजय माल्या जैसे कारोबारियों की होनी चाहिए
आलोक पुराणिक
बुरा न मानो होली है, जो कह रहा है, उसे विनम्र ही मानिये। बुरा मान भी ले कोई तो क्या कर लेगा? बड़े-बड़े चोर अरबों-खरबों रुपये लेकर देश से बाहर चले जाते हैं, उनके वकील हमें यहां भारत में समझाते हैं, घपला थोड़े ही है वह। पैसे जैसे यहां थे, वैसे ही स्विस बैंक में हैं। काहे की परेशानी।
बड़ा आदमी बताता -इन्हें दो
रकम आखिर में विजय माल्या और नीरव मोदी के पास ही जानी है। कोई बड़ा आदमी बीच में पड़ता है, यह बताने के लिए इन्हें दे दो या उन्हें दे दो। कुछ साल पहले महेंद्र सिंह धोनी बता रहे थे कि आम्रपाली बहुत भरोसे का बिल्डर है। आम्रपाली ने रकम रख ली, फ्लैट नहीं दिये। बवाल मचा, तो धोनी अलग हो गये आम्रपाली के इश्तिहारों से। आप बुरा मानिए, क्या कर लेंगे?
विराट कोहली जिस बैंक को भरोसेमंद बताते हैं, वह कतई भरोसे के काबिल नहीं निकलता। उस पर चोर टाइप कारोबारियों का भरोसा कामयाब हुआ। अब पंजाब नेशनल बैंक से जिन्होंने पैसा लिया है, उन्हें पूरा भरोसा है कि पैसे वापस नहीं करने पड़ेंगे। आम तौर पर कारोबारियों के ऐसे भरोसे सही साबित हुए हैं। आम आदमी बैंकों के पांच हजार रुपये भी नहीं मार सकता और बड़ा आदमी पांच हजार करोड़ मार लेता है। कई बड़ों का बड़ापन तुलता ही इस बात पर है कि कौन, कितने मार लाया। बहुत बड़े बने घूमते थे विजय माल्या। मार ले गए बैंकों का करीब 8 हजार करोड़। अब नीरव मोदी, चौकसी डपट सकते हैं विजय माल्या को, क्या भाव खाते हो हम 11,000 करोड़ रुपये से ज्यादा मार कर लाये हैं। जिस बैंक ने किसी बड़े उद्योगपति की रकम नहीं खाई, उसे छोटे-मोटे लोगों का ही बैंक मान लेना चाहिए। रेटिंग इस बात से तय होनी चाहिए कि माल्या मार गये इस बैंक से या यहां चौकसी ज्यादा चौकस रहे?
जिसके यहां न चौकसी आएं, न विजय माल्या आएं, वो काहे के बैंक? उन्हें तो बैंकों के नाम पर बैकिंग झुग्गी टाइप कहा जा सकता है। सचमुच की झुग्गी में आने की मजबूरी होती है नेताओं की। पर बैंकिंग झुग्गी में क्यों आएं माल्या और चौकसी, जब पूरे के पूरे बैंक खाए जाने को तैयार बैठे हों।
डाकुओं का भरोसा
विराट कोहली बता रहे थे कि पंजाब नेशनल बैंक भरोसे का प्रतीक है। नीरव मोदी, मेहुल चौकसी ने भरोसा कर लिया, भरोसे के परिणाम भी आ गए। पंजाब नेशनल बैंक वालों ने ऐसा भरोसा कर लिया मोदी-चौकसी पर कि 11,400 करोड़ रुपये थमा दिये। बड़े बैंक बड़े आदमी का भरोसा कर लेते हैं। छोटे आदमी के सौ रुपये बकाया रह जाएं तो उसे परेशान कर मारते हैं। बैंकों का उद्देश्य अब कुल मिलाकर यही रह गया दिखता है कि छोटे से लेकर बड़े को थमा दो, इतना थमा दो कि वह बड़े-बड़े महंगे वकील अफोर्ड करके दुनिया को यह बता सके कि आप जिसे घोटाला कह रहे हैं न, वह घोटाला नहीं है। बस यूं समझें— रकम इधर से उधर हो गई है।
हम तो यहीं हूं
रोटोमेक पेन कंपनी के मालिक विक्रम कोठारी (3,700 करोड़ घोटाला फेम) कह रहे हैं कि मैं नहीं गया विदेश। मैं तो कानपुर में ही हूं। यह अहसान है इस धरा पर कि जाने को वे लंदन या न्यूयॉर्क भी जा सकते थे, पर यहीं कानपुर में बैठकर उड़ा रहे हैं अपनी रकम। कानपुर की एक मशहूर मिठाई की दुकान की टैगलाइन का आशय है- ‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं।’ नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विक्रम कोठारी, विजय माल्या— यह टैगलाइन इन कारोबारियों की होनी चाहिए।
कह कर लूटेंगे
इधर, बैंकों की नई-पुरानी इश्तिहारी टैगलाइनों, नारों का अध्ययन किया तो डर लगा। दरअसल, लगभग हर बैंक आपको चेतावनी दे रहा है। हम ही टेलीविजन पर हनीप्रीत की गुफा देखने में इतने मग्न रहते हैं कि चेतावनी सुनाई नहीं पड़ती। हनीप्रीत की गुफा से मुक्त हों, तो टीवी चैनल वाले रोज उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग से एटम बम चलवा लेते हैं। इस एटम बम के खौफ से मुक्त हों तो लो जी भानगढ़ किले के भूत टीवी स्क्रीन पर डांस करने लगते हैं। भूत से लेकर गुफा और एटम बम तक बंदा इस कदर फंसा है कि चेतावनियों पर ध्यान ही नहीं जा पा रहा है।
आंध्रा बैंक की एक इश्तिहारी लाइन देखी, जिसका आशय था कि आपको फोकस में रखकर ज्यादा हो सकता है। मैं डरा, पांच-सात हजार रुपये हैं इस बैंक में मेरे। उसका ज्यादा कुछ यूं न हो जाये कि किसी चौकसी, किसी मोदी को दे दे। बैंक आॅफ इंडिया की इश्तिहारी लाइन तो बहुतै कातिल है— जिसका आशय है बैंकिंग से आगे जाकर संबंध। मुझे यह डर है कि कहीं जेबकटी का संबंध न निकल जाये! कानपुर के रोटोमेक पेन कारोबारी ने सरकारी बैंकों के करीब 3,700 करोड़ रुपये डुबोने का इंतजाम कर लिया है। इसमें सबसे ज्यादा रकम करीब 755 करोड़ बैंक आॅफ इंडिया की ही है। यह बैंक उस तरह के कारोबारियों से खास रिश्ते रखता है, पर आम आदमी के अगर पांच लाख रुपये जमा हों, तो बैंक कानूनन कह सकता है कि हम आपके सिर्फ एक लाख सुरक्षित लौटायेंगे, सिर्फ एक लाख। लेकिन सरकारी बैंक में तो एक-एक पाई सुरक्षित रहती है न।
सुरक्षा सिर्फ आस्था है, अंधविश्वास है
जी! यह आपका अंधविश्वास है, आपकी आस्था है कि सरकारी बैंक में एक-एक पाई सुरक्षित है। सिर्फ एक लाख रुपये तक की गारंटी है। एक लाख रुपये से ज्यादा की रकम बैंकों में असुरक्षित है। बैंक कानूनी तौर पर उसे देने से इनकार भी कर सकते हैं। बैंक पब्लिक को बोल सकते हैं— माल्या जी ले गये, अब आपके लिए रकम नहीं बची। पर पब्लिक यही मानती है कि हमारी रकम सरकारी बैंकों में एकदम सुरक्षित है। यह आस्था है, अंधविश्वास चाहे जो रख लें, अंधविश्वास तो यहां तक है कि इच्छाधारी नागिन भेष बदलकर डांस करती है। ऐसे ही अंधविश्वास यह भी है कि सरकारी बैंकों में रखी रकम सुरक्षित है। सरकारी बैंकों में रखी रकम उनके लिए सुरक्षित है जो उसे पार करके लंदन या न्यूयॉर्क ले जाते हैं। रकम को विदेश ले जाये बंदा, फिर खुद भी विदेश चला जाए, तो रकम भी सुरक्षित रहती है और बंदा भी। भारत में कई बार बंदे की सुरक्षित रहने की शर्त यह रहती है कि रकम ढीली कर दी जाए अपहरणकर्ताओं को, सो बंदा सुरक्षित रहे, इस चक्कर में रकम असुरक्षित हो जाती है।
हर परिवार को एक बैंक
बैंक आॅफ महाराष्ट्र की इश्तिहारी लाइन देखकर तो मैं बेहोश ही हो गया। उसका आशय था— एक परिवार, एक बैंक। चौकसी परिवार पीएनबी ले जाए, नीरव मोदी परिवार इलाहाबाद बैंक ले जाए। विजय माल्या परिवार आईडीबीआई बैंक ले जाए। इस हिसाब से तो पब्लिक से और रकम बटोरकर बहुत बैंक बनाने पड़ेंगे! इतने औद्योगिक घराने हैं देश में, सबको एक-एक बैंक देना होगा न। बैंक आॅफ महाराष्ट्र वाले बता रहे हैं— एक परिवार एक बैंक। कॉरपोरेशन बैंक की इश्तिहारी लाइन देखकर भी आतंकित हुआ था, जिसका आशय था कि सबके लिए संपन्नता। हे भगवान! यह बैंक चौकसी, कोठारी टाइप लोगों की संपन्नता की आकांक्षा तो नहीं कर रहा है न?
आइए, बड़ी चोरी करें
आईडीबीआई बैंक की इश्तिहारी लाइन का आशय है-आओ सोचें बड़ा। इसी टैगलाइन ने भारत के बहुत चोरों को प्रेरित किया है। क्या दो-पांच लाख का खेल कर रहे हो, बड़ा सोचो और अरबों लेकर निकल लो लंदन माल्या के माफिक।
लूट का संयुक्त उपक्रम कनारा बैंक की इश्तिहारी लाइन तो एकदम नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के संयुक्त उपक्रम की इश्तिहारी लाइन है, जिसका आशय है कि हम साथ-साथ बहुत कुछ कर सकते हैं। आईसीआईसीआई बैंक की इश्तिहारी लाइन पता नहीं डराती है या आश्वस्त करती है। इस लाइन का आशय है— हम हैं न। आशय यह है कि जब आप लुट-पिट जाएं, आपकी सारी रकम माल्या ले जाएं। बैंक खाली हो जाए और आपको एक लाख रुपये से ज्यादा रकम देने से इनकार कर दे। तब हमारे पास आइए, हम आपको कर्ज देंगे। छोटे आदमियों से कर्ज वसूली हो जाती है। छोटे आदमी को बैंक बेवकूफ बना सकता है, बड़ा आदमी यही काम बैंक के साथ करता है। एक लुटे-पिटे बैंक के अफसर से एक छोटा ग्राहक यही बोला- विजय माल्या ने मेरा बदला लिया है। तुमने बहुत उलटे-सीधे चार्ज लगाकर मेरी जेब काटी है। लो विजय माल्या अब बैंक ही काटकर निकल लिया।
लूट सके तो लूट
हम हैं न— यह लाइन मुझे इन दिनों तमाम मुफ्त भंडारों और लंगरों के आयोजन स्थल पर दिखाई देती है। सबकुछ लूट लें, फिर भी चिंता न करें, मुफ्त खाना खाइये। बल्कि यह तक संभव है कि चौकसी-कोठारी-माल्या ही कहीं भंडारे स्पांसर न कर रहे हों, यहां से बैंक लूटो, फिर पुण्य लूटो। लूटपाट अब चौतरफा है।
व्हाट्सएप से रकम
व्हाट्सएप से अब सिर्फ घटिया जोक्स और गुड मार्निंग के अलावा रकम का ट्रांसफर भी हो सकता है। व्हाट्सएप वाले भले लोग हैं, रकम ट्रांसफर करते हैं तो बता कर करते हैं। चौकसी-कोठारी बिना बताए कर लेते हैं। रकम ट्रांसफर करने की सुविधा व्हाट्सएप तब दे रहा है जब बैकों से रकम गायब हो चुकी है। व्हाट्सएप वालों को पता चल चुका है, दिन-रात व्हाट्सएप में गंवाने वाले इस कदर बेरोजगार टाइप हो जाएंगे कि इन्हें खर्चे-पानी के लिए रकम मांगनी पड़ेगी। तो व्हाट्सएप ही रकम का अनुरोध कर ले। रकम वहीं की वहीं आ जाएगी। कुछ दिनों में एक-दूसरे के परिचितों को रकम देने के बाद इस तरह की सहायता बंद हो जाएगी। तब व्हाट्सएप चाहे तो आॅनलाइन भीख का विकल्प भी खोल सकता है। होगा सबकुछ, एक बैंक की इश्तिहारी लाइन का आशय यही है—साथ-साथ हम बहुत कुछ कर सकते हैं।
निकम्मे बाबुओं की जरूरत
तमाम बैंकों को अब उन निकम्मे बाबुओं की जरूरत है, जो सुबह नौ बजे हाजिरी लगाकर पास के पार्क में ताश खेलने चले जाएं। कोई पैसा निकाल ही न पाए। फिर यूं हो कि चौकसी आये हैं पैसा ट्रांसफर कराने तो उन्हें बताया जाए कि आज नहीं कल आना। आज बाबूजी, फूफाजी के यहां सगा में गए हैं। चौकसी अगले दिन आए, तो फिर बताया जाए- बाबूजी, फूफाजी के यहां से आगे निकल लिए हैं दूर के चाचा के यहां। इस तरह से चौकसी को आठ-दस महीने टहलाया जाए। एक पैसा ट्रांसफर न होता।
मटका उर्फ बैंक
बैंक सुरक्षित न बचे। उसमें रखी रकम सुरक्षित न बची। तो क्या करें? एक मटका लायें। मटके में सारी रकम रख दें। घर में रखी रकम चोर-डाकू चुरा कर न ले जाएंगे। तो साहब बैंकों में क्या हो रहा है, वहां चौकसी-कोठारी-मोदी ले जा रहे हैं।
एक काम करें- मटके में भी रखने लायक रकम भी क्यों बचाए? जो भी रकम हो खर्च कर डालें। एप्पल का नया फोन हर साल लॉन्च होता है, उनसे कहकर हर महीने लॉन्चिंग करवा देंगे। कमाइए एप्पल वालों को थमाइए। और खाना वगैरह कहां खाएंगे? तमाम मुफ्त भंडारा-लंगर-स्थलों पर पढ़िये- हम हैं न! भारतीय बैंकों की इश्तिहारी लाइनें पढ़िए सब बता रखा है, उन्होंने पहले ही।
हम साथ-साथ कर सकते हैं!
इधर के हाल समझने की कोशिश करें, तो समझ आता है कि पाकिस्तान में सेना, आईएसआई, आतंकी एक भारतीय बैंक की इश्तिहारी लाइन के हिसाब से काम कर रहे हैं। इस इश्तिहारी लाइन का आशय है-हम साथ-साथ बहुत कुछ कर सकते हैं। पाकिस्तानी सेना ही वहां की आईएसआई है। आईएसआई ही वहां का आतंकी चेहरा। ये सब मिल-जुलकर बहुत कुछ कर देते हैं। इतना कुछ कर देते हैं कि मुल्क को चौपट करने की किसी बाहरी साजिश की जरूरत ही नहीं पड़ती। पाकिस्तानी सेना अपने मुल्क के खिलाफ इतनी बड़ी साजिश है कि कोई बाहरी साजिश वहां चाहिए ही नहीं। हम साथ-साथ बहुत कर सकते हैं। एक सरकारी बैंक की इश्तिहारी लाइन भारत के ठग और पाकिस्तानी आतंकी एक साथ ही फॉलो कर रहे हैं।
वहां सब साथ हैं। सब साथ मिलकर पाकिस्तान को लूट रहे हैं। चीन भी आ लिया है, जो बची-खुची कसर है, वह चीन पूरी कर देगा। बतौर मुल्क पाकिस्तान का एक ही रोल कायदे का है और वह है विज्ञापनदाताओं के लिए, स्पांसरों के लिए। भारत-पाक क्रिकेट मैच सबसे ज्यादा देखे जाने वाले आयोजनों में से एक है। कभी लगता है कि पाकिस्तान का जन्म ही इसलिए हुआ था कि भारत-पाक मैच हो सके और इश्तिहारों के जरिये तमाम आइटम बिक सकी। क्रिकेट मैचों को हटा दें तो पाकिस्तान से इस धरती को होने वाले फायदों को तलाशना मुश्किल है। पाकिस्तान से होने वाले फायदे तो दूर, पाकिस्तान से पाकिस्तान को होने वाला फायदा भी नहीं तलाशा जा सकता। पाकिस्तान से सिर्फ फौजी जनरलों और नेताओं को फायदा होता है, जिनके ठिकाने लंदन, दुबई, सऊदी अरब वगैरह में होते हैं। पाकिस्तानी जनता तो उन आतंकियों की तबाही देखती है, जो पैदा तो भारत एक्सपोर्ट के लिए किये जाते हैं, पर एक्सपोर्ट न हो पाने की सूरत में अपनी परफारमेंस लोकल ही दिखानी शुरू कर देते हैं।
साथ-साथ रह सकते हैं
‘साथ-साथ बहुत कुछ कर सकते हैं’ की तर्ज पर भाजपा शिवसेना की इश्तिहारी लाइन हो सकती है कि जो भी हो, साथ-साथ रह सकते हैं। विवाह के बाद जीवनयापन कैसे करें—इस तरह की शिक्षाएं कई संस्थान देते हैं। ये संस्थान सिखाते हैं कि शिवसेना की तरह किचकिच चाहे जितनी कर लेना पर, वहीं जमी रहना, छोड़ न आना। राजनीतिक दल से वैवाहिक जीवन पर सीख मिले, यह तो राजनीतिक दल की सार्थकता ही हुई। किचकिच रोज होनी है, रोज पचास बार होनी है। पर साथ भी रहना है। डॉक्टर से शिकायत करो- जी, पत्नी शिवसेना की तरह चिकचिक करती है। डॉक्टर कहेगा-तो आप भाजपा हो जाइए।
साथ-साथ कनफ्यूजन
वैसे कौन किसके साथ है, कौन किसके साथ नहीं है, यह भारतीय राजनीति में पता लगाना बहुतै मुश्किल काम है। हार्दिक पटेल गुजरात में कांग्रेस के साथ थे। अब उन्होंने तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी को नेता मान लिया है। ममता बनर्जी बंगाल में कांग्रेस को सीपीएम की सहयोगी मानती हैं। सीपीएम ममता बनर्जी की परम विरोधी पार्टी है। पर सीपीएम हर जगह कांग्रेस की मित्र पार्टी नहीं है। सीपीएम पार्टी केरल में कांग्रेस को अपनी विरोधी पार्टी मानती है। सीपीआई की हालत यह है कि वह किसी को भी मित्र मान ले, किसी को भी विरोधी मान ले, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। केजरीवाल जी यूं भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, पर लालूजी के साथ दिख जाते हैं। लालू जी सिर्फ अपने परिवार के साथ हैं। परिवार यूं सेकुलर पॉलिटिक्स के साथ है। सेकुलर पॉलिटिक्स की पार्टियां कांग्रेस और सीपीएम कहीं एक साथ हैं, कहीं साथ नहीं हैं। यूपी में सेकुलर पॉलिटिक्स वाली दो पार्टियां कांग्रेस और समाजवादी पार्टी साथ-साथ थीं, अब साथ-साथ नहीं हैं। यूं यह पूरे तौर पर साफ नहीं हुआ है कि वो साथ-साथ नहीं हैं। यूं यह पूरे तौर पर यह भी साफ नहीं है कि वो साथ-साथ हैं। कौन किसके साथ है, यह पता लगाना बहुत मुश्किल है। इतना ही मुश्किल जितना यह सवाल कि बगदादी असल में मारा गया या नहीं। बगदादी को मारने के लिए कई टीवी चैनल इतने प्रतिबद्ध हैं कि सौ से ज्यादा बार बगदादी को मार चुके हैं। ओफ्फो! कितना कनफ्यूजन है। जी बिल्कुल है। रजनीकांत इतने बड़े सुपरहीरो हैं कि अकेले ही कुछ भी कर सकते हैं। वह मंगलयान को अपने हाथ से फेंककर लॉन्च कर सकते हैं और चंद्रयान को हाथ से अंतरिक्ष से उठाकर जमीन पर ला सकते हैं। फिर भी तमिलनाडु में वह दूसरे फिल्म स्टार कमल हासन के साथ हैं या कम से कम साथ लगते हैं। कमल हासन अरसे से किसी हिट फिल्म के साथ नहीं हैं। यूं वह जनता के साथ हैं। तमिलनाडु की जनता किसके साथ है, यह कनफ्यूजन है। एक चुनाव में वह किसी और के साथ और दूसरे चुनाव में किसी और के साथ है।
– मतलब यह हो क्या रहा है?
जी… अगर आप कनफ्यूज्ड नहीं हो रहे हैं, तो समझिये कि आपने देश की पॉलिटिक्स को पूरे तौर पर समझा नहीं है।
देशप्रेम है, पर कैशप्रेम भी है
चीनी सामान का बहिष्कार हो, एक देशप्रेमी मैसेज आता है। जिस फोन से आता है, वह भी चाइनीज है। जिस फोन पर आता है, वह भी चाइनीज है। मुल्क के स्मार्टफोन बाजार का पच्चीस प्रतिशत हिस्सा एक चाइनीज कंपनी के पास है। हम देश प्रेमी हैं। पर चाइनीज फोन खरीदकर कुछ कैश बच जाता है। कैश ठोस होता है। देश प्रेम इतना ठोस नहीं होता। चाइनीज फोन बढ़ रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि देश प्रेम नहीं बढ़ रहा है। चाइनीज फोन के साथ देश प्रेम भी बढ़ सकता है। लेकिन ऐसा देश प्रेम कहीं चाइनीज टाइप तो नहीं हो जाएगा कनफ्यूजन है जी, इस पर। चीन पाकिस्तान में कर्ज बेचता है और भारत में स्मार्टफोन। स्मार्टफोन एकाध साल चलते हैं पाकिस्तान में कर्ज कई दशक चलेगा।
चीन पाकिस्तान का वह हाल करेगा कि वहां के बंदों को पांच सौ रुपये का चाइनीज फोन खरीदने के लिए भी चीनी बैंकों से कर्ज लेना पड़ेगा, चीन पांच सौ के कर्ज के पांच हजार वसूलेगा। पाकिस्तान मुल्क कमाल है वैसे। आतंकियों के लिए वहां सैटेलाइट फोन होते हैं और पब्लिक के लिए नॉर्मल फोन का बिल भरने के लिए भी संकट होता है।
हनीप्रीत से आईपीएल तक
भारतीय पब्लिक कमाल है वैसे। न देश प्रेम की कमी है न कैश प्रेम की। कमाल यह है कि वह हनीप्रीत की गुफा से लेकर आईपीएल मैचों को समान भक्तिभाव से देखती है। आईपीएल के मैचों में एक बात समझ नहीं आती कि जीतने वाली टीम भी भारतीय है और हारने वाली टीम भी भारतीय है, फिर काहे को मैच देखना।
काहे को देखना—यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है, पर फिजूल सवाल है। टीवी पर भारतीय पब्लिक हनीप्रीत की गुफाओं से लेकर नागिनों के प्रेम प्रसंग तक देख लेती है। आईपीएल में तो फिर भी चीयर लीडर्स के डांस होते हैं। पब्लिक कुछ भी देख सकती है।
रोजाना प्राइम टाइम में होने वाली पकाऊ डिबेट को देखकर पब्लिक इस कदर बोर हो जाती है कि हनीप्रीत की खाली गुफाओं तक में अपनी कल्पनाओं के रंग भर लेती है। हनीप्रीत, किम योंग के एटम बम के अलावा क्या और मुद्दे बचे नहीं हैं। हैं जी, बिल्कुल हैं—सास बहू और भिंडी टाइप कार्यक्रम हैं। बहुत कुछ है देखने के लिए। भगवान और टीवी क्या-क्या दिखा दे, कुछ पता नहीं। भगवान तो फिर आप मान लें कि एक हद के बाद न दिखाएगा। पर टीवी के बारे में ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता, वह तो कुछ भी दिखा सकता है।
(लेखक व्यंग्य के होलसेल डिस्ट्रीब्यूटर हैं और इसी चक्कर में इनका अर्थशास्त्र भी मजबूत हो गया है)
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