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कितनी पुरानी मुस्कान की कहानी

by
Feb 26, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 26 Feb 2018 11:11:12

 

हास्य-व्यंग्य का मूल स्रोत भारत की हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता, संस्कृति और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। चाहे रामायण हो या महाभारत, हास्य का दर्शन  हर जगह मौजूद है

नागार्जुन

हंसना मनुष्य का स्वाभाविक लक्षण है। जीवन के आस्वादन के लिए परिमित हास्य आवश्यक है, क्योंकि यह जीवन का विटामिन है। हिंदी साहित्य के नौ रसों में हास्य का स्थान स्वतंत्र माना गया है। गीतिकाव्य के मुताबिक, हास्य और व्यंग्य का विधान आधुनिक युग की देन है। हंसना जितना सरल है, हास्य का विश्लेषण उतना ही कठिन है। हास्य की उत्पत्ति शृंगार रस से मानी गई है। इसका मतलब यह नहीं है कि हास्य रस की व्यापकता केवल शृंगार रस तक सीमित है। उसकी व्यापकता शृंगार रस से भी अधिक है। हास्य से शृंगार में संपन्नता आती है और उसकी श्रीवृद्धि होती है। इसलिए यह शृंगार का भी शृंगार है। रंभा-शुक संवाद की शब्दावली में कहा जा सकता है, ‘वृथा गतं तस्य नरस्य जीवनम्।’ हालांकि अन्य रसों के आधारभूत अनुभव दुखद भी हो सकते हैं, किंतु हास्य का लौकिक और साहित्यिक अनुभव आनंदरूप ही होता है।

हंसी के भेद
हंसी के कई भेद होते हैं- स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित और अतिहसित। कटाक्षपूर्ण हंसी को स्मित, जिसमें दांत दिखे उसे हसित, जिसे लोग सुन लें या हा…हा की ध्वनि निकले वह विहसित, हंसने पर अंग हिले तो उपहसित, हंसते-हंसते आंखों में पानी आ जाए या पेट पकड़ने वाली हंसी अपहसित तथा जोरदार ठहाके से झकझोरने वाली हंसी जिससे पसलियों पर जोर पड़े वह अतिहसित की श्रेणी में आती है। स्मित और हसित को श्रेष्ठ, विहसित-उपहसित को मध्यम वर्गीय तथा अपहसित-अतिहसित को अधम लोगों के योग्य कहा गया है। इसी तरह, हंसी को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहले प्रकार में, हंसी-मजाक में किसी के ऊपर हंसना यानी दूसरे पर व्यंग्य करना, उसका उपहास या अपमान करना। इस हंसी में हिंसा और प्रतिशोध के भाव छिपे होते हैं। दूसरे प्रकार की हंसी वह होती है जिसमें हम स्वयं पर हंसते हैं। तीसरे प्रकार की हंसी जीवन के यथार्थ से जुड़ी होती है। ऐसी हंसी प्रेरणादायी होती है।
हंसी के कई फायदे भी हैं। हास्य तनाव और दुख तो दूर करता ही है, शरीर में नव जीवन व नव बल का भी संचार करता है जिससे आरोग्य की वृद्धि होती है। केलकर के अनुसार, ‘‘जिस समय मनुष्य नहीं हंसता, उस समय श्वासोच्छवास की क्रिया सीधी और शांत तरीके से होती है और हंसने के समय उसमें एकाएक व्यत्यय हो जाता है। लेकिन उस व्यत्यय का परिणाम श्वासोच्छवास की इंद्रियों और शरीर के रक्त प्रवाह पर अच्छा ही होता है।’’
वैदिक साहित्य में
श्रीराम का मनोहारी सौम्य हास्य अलौकिक आश्वस्ति प्रदान करता है, जबकि श्रीकृष्ण तो इस विधा के विशेषज्ञ ही माने जाते हैं। उनकी बाल्यकाल की हंसी-ठिठोली और किशोरवय की चुहल भरी मस्ती का अपना ही रंग है। महाकवि सूरदास की रचनाओं में मुख्य रूप से कृष्ण की मौज-मस्ती भरी हास्यपूर्ण गतिविधियां अलौकिक मनोरंजन करती हैं। रंगोत्सव पर कृष्ण की मौज-मस्ती तो सदियों से परंपराओं के रूप में हमसे जुड़ी हुई है।
वहीं, रामायण के उत्तरकांड में श्रीराम के बाल रूप से जुड़ी घटना, जिसमें काक भुशुंडी का बार-बार उनकी थाली से भोजन लेकर उड़ जाना, कभी-कभी उनके सिर में चोंच मारना और अंत में काक भुशुंडी को उदर में डालकर उसे ब्रह्मांड का दर्शन कराने के बाद अट्टहास करने वाला चित्रण तो बेहद मनोहारी है। इसी तरह, मंथरा के कुचक्र में फंसने के बाद कैकेयी द्वारा उसके सौंदर्य और बुद्धि का बखान भी कम मनोरंजक नहीं है। मंथरा से कैकेयी कहती हैं, ‘‘यदि मेरा मनोरथ पूरा हुआ तो मैं तुम्हारे लिए सुंदर-सुंदर गहने बनवा दूंगी। तुम्हारे कूबड़ पर उत्तम चंदन का लेप करके उसे छिपा दूंगी व अच्छे-अच्छे वस्त्र दूंगी, जिन्हें पहन कर तुम देवांगना की भांति विचरना। चंद्रमा से स्पर्धा करने वाले अपने मुखमंडल के लिए सर्वाग्रणी बन कर शत्रुओं का मान-मर्दन करती हुई गर्वपूर्वक इठलाना।’’ भवभूति रचित ‘उत्तर रामायण’ नाटक में लक्ष्मण जब भगवान रामचंद्र के यश का बखान करते हैं, तब लव की व्यंग्योक्ति भी गजब की है। हालांकि रामायण की अपेक्षा महाभारत में हास्य-व्यंग्य के प्रसंग अधिक हैं। जैसे- स्त्री शिखंडिनी का पुरुष के वेष में राजकन्या से विवाह, राजा विराट के राहमहल में द्रौपदी के रूप में भीम द्वारा कीचक का स्वागत, अश्विनी कुमारों के च्यवन के रूप में सुकन्या को असमंजस में डालना, और नल बनकर चारों लोकपालों का दमयंती को भ्रांत करना। इसके अलावा, दुर्योधन के पानी में गिरने पर उसे ‘अंधे का पुत्र अंधा’ कहकर द्रौपदी द्वारा उपहास भी हास्य, व्यंग्य और कटाक्ष को प्रस्तुत करता है। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में हास्य बरबस ही दिखता है। उनके बाल रूप से जुड़ा ऐसा ही एक रोचक प्रसंग है। जब श्रीकृष्ण चार वर्ष की अवस्था में साथियों के साथ नंद गांव में एक ग्वाले के घर मक्खन चुराने गए, पर पकड़े गए। तब ग्वालिन ने डांटते हुए पूछा- ‘‘क्या कर रहे थे?’’ श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं- ‘‘मैं तो तुम्हारी मक्खन की मटकी से चींटियां निकाल रहा था।’’
महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में विदूषक के पेटूपन का जो चित्रण किया है, वह भी बहुत रोचक है। ‘विक्रमोर्वशी’ नाटक में भी हास्य का एक प्रसंग है, जब राजा उर्वशी के प्रेम में पड़कर काशी नरेश की पुत्री और अपनी पत्नी को छोड़ देता है, तब राजा पर विदूषक व्यंग्य करता है। राजा (आसन पर बैठकर)-‘‘वयस्य! अभी देवी दूर तो नहीं पहुंची होंगी?’’ विदूषक- ‘‘जो कहना है जी खोलकर कह डालो। जैसे रोगी को असाध्य समझ कर वैद्य उसे छोड़ देता है, वैसे ही आपको देवी ने यह समझ कर छोड़ दिया कि आप सुधर नहीं सकते।’’ इसी तरह, ‘मृच्छकटिक’ नाटक में हास्य रस का अनूठा चित्रण है। नाटक का नायक चारुदत्त जब विदूषक से ब्राह्मण होने के कारण चरणोदक देने
को कहता है, तब विदूषक हास्यपूर्ण उत्तर देता है—
चारुदत्त- ‘‘ब्राह्मण को चरणोदक दो।’’ विदूषक- ‘‘मेरे चरणोदक से क्या लाभ है? मुझे गधे की भांति जमीन में ही लोटना है।’’

लोक परंपरा में
हास्य-व्यंग्य में लिपटा दर्शन लोक परंपरा में सदियों से विद्यमान है। चार्वाक दर्शन का तो प्रयोग ही धार्मिक रूढ़ियों पर चोट करने लिए किया जाता है- ‘‘यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।’’ अर्थात जब तक जियो सुख से जियो। उधार लेकर घी पिओ, क्योंकि देह के भस्मीभूत हो जाने पर फिर लौट कर आना कहां से होगा?
संत-काल के व्यंग्यकारों में कबीर को सबसे आगे रखा जा सकता है। वीरगाथा काल के अंतिम दौर में जन्मे कबीर ने हिंदी साहित्य में व्यंग्य परंपरा की शुरुआत की। उनके व्यंग्य बड़े तीखे होते थे। कबीर ने मध्यकाल की सामाजिक विसंगतियों पर व्यंग्यपूर्ण शैली में प्रहार किया है। संत काल में उनसे बड़ा व्यंग्यकार कोई नहीं हुआ। उन्होंने पाखंडियों तथा धर्मांधों पर जमकर व्यंग्य बाण छोड़े हैं। जाति-भेद, धार्मिक आडंबर, गरीबी-अमीरी, रूढ़िवादिता आदि पर कबीर के व्यंग्य बड़े मारक हैं। समाज की धर्मांधता पर कबीर व्यंग्यपूर्ण तरीके से कहते हैं- ‘‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।’’
फिर कहते हैं, ‘‘मूड़-मुड़ाये हरि मिले, तो सब कोई लेइ मुड़ाय। बार-बार के मूड़ते क्यों भेड़ न बैकुंठ जाय।’’
वहीं, उर्दू में सबसे पहले अकबर इलाहाबादी ने नज्मों व गजलों के जरिये व्यंग्य गीति की रचना की। इससे भी पहले हिंदी में रीतिकाल के काव्य में ‘खटमल बाईसी’ जैसी व्यंग्यात्मक रचना लिखी गई। विद्रोह युग की कविता में बेढब बनारसी, चोंच, बेधड़क आदि हास्य रस के कवि के रूप में मान्य थे, पर इन्होंने हास्य प्रधान गीतों की ही रचना की, व्यंग्य गीतों की नहीं। अकबर इलाहाबादी ने लिखा है—‘‘डार्विन साहब हकीकत से निहायत दूर थे, हम न मानेंगे कि मूनिस आपके       लंगूर थे।’’
भरत मुनि ने हास्य रस के बारे में ‘नाट्यशास्त्र’ में लिखा है—
विपरीत लङ्कारै विकृता चाराभिधान वेसै
विक्ततैरर्थ विशेषैर्हसतीति रस: स्मृतो हास्य। यानी हास्य रस
का स्थायी भाव ‘हास’ है।  
वैश्विक हंसी
स्पार्टा के एक लोकप्रिय नेता लाइकरगस ने भोजनालय में हास्य देवता की मूर्ति रखी हुई थी, क्योंकि उसका मानना था कि हास्य में पाचन शक्ति बढ़ाने का जितना गुण है, उतना किसी अन्य पदार्थ में नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन तो अपनी मेज पर हमेशा हास्य-विनोद की किताब रखते थे। जब काम करते-करते थक जाते या मन खिन्न हो जाता, तो किताब उठाकर पढ़ने लगते थे। जॉर्ज आॅरवेल का एक छोटा उपन्यास है- ‘एनिमल फार्म’। यह रूसी क्रांति के स्टालिन के विश्वासघात पर आधारित है। आॅरवेल ने इसे इसलिए लिखा, क्योंकि वह ‘सोवियत मिथक’ को तोड़ना चाहते थे। अंग्रेजी के प्रख्यात लेखक थेकरे हास्य प्रिय लेखक की उपयोगिता पर लिखते हैं, ‘‘हास्य प्रिय लेखक, आप में प्रीत, अनुकंपा और कृपा के भावों को जाग्रत कर उन्हें उचित ओर नियंत्रित करता है। असत्य दंभ व कृत्रिमता के प्रति घृणा एवं कमजोरी, दरिद्रों, ललितों और दुखी लोगों के कोमल भावों के उदय कराने में सहायक होता है। हास्यप्रिय साहित्य सेवी निश्चित रूप से ही उदारशील होते हैं। वह शीघ्र ही सुख-दुख से प्रभावित हो जाते हैं। वह अपने पार्श्ववर्ती लोगों के स्वभाव को भली-भांति समझने लगते हैं और उनके हास्य, प्रेम, विनोद तथा अश्रुओं में सहानुभूति प्रगट कर सकते हैं। सबसे उत्तम हास्य वही है जो कोमलता और कृपा के भावों से भरा हो।’’
16वीं सदी में स्पेन के मिगुएल द सरवांतेस (ट्रॅ४ी’ ऊी उी१५ंल्ल३ी२) ने ‘डॉन क्विकजोट’ (ऊङ्मल्ल द४्र७ङ्म३ी) की रचना कर पूरे यूरोप के खुदाई फौजदारों की हस्ती मिटा दी। इंग्लैंड में शेक्सपीयर ने सूदखोरों, फ्रांस के मौलियर ने अपने नाटक के पात्रों से तत्वज्ञानियों की खिल्ली उड़वा कर अरस्तू से मतभेद करने वालों को फांसी के तख्ते पर से उतार लिया। एच.एच. ब्राउन के मुताबिक, ‘‘हास्य-रस हृदय में आनंद की धारा ही प्रवाहित नहीं करता, दिल की गांठों को भी खोलता है। हास्य में उन सभी उदात्त गुणों का समावेश है, जिनके द्वारा मनुष्य सत्य-असत्य का विवेक जागृत कर क्षमाशील तथा उदारचेता बन सकता है।’’ फ्रांसीसी दार्शनिक हेनरी वर्गसां लिखते हैं, ‘‘हास्य कुछ इस प्रकार का होना चाहिए, जिसमें सामाजिकता की झलक हो। संक्षेप में कहा जाए तो यह यांत्रिक क्रिया के फलस्वरूप किए जाने वाले व्यवहार को मृदुल बनाता है।’’
महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुकरात, शेक्सपीयर, अब्राहम लिंकन, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ आदि ने मुस्कुराहट और विनोदप्रियता अपनाकर स्वयं को चिंतामुक्त रखा था। चार्ली चैप्लिन का निजी जीवन अनेक विसंगतियों से भरा था, पर उन जैसा हास्य का किरदार आज तक कोई न निभा सका। नेपोलियन का जो काम उसके एक दर्जन नौकर नहीं कर पाते थे, वह काम उसकी पत्नी जोजेफाइन अपनी मुस्कुराहट से करा देती थी। शेक्सपीयर कहा करते थे, ‘‘तुम्हें जो कुछ भी चाहिए, उसे अपनी मुस्कराहट से प्राप्त करने की कोशिश करो, न कि तलवार के जोर से।’’

हिंदी साहित्य में
हास्य के माध्यम से समाज सुधार का कार्य लंबे समय से होता आ रहा है। असामाजिक व्यक्ति, समाज की प्रचलित कुरीतियों और अन्य विकृतियां सदैव से हास्य रस के आलंबन बनते आए हैं। वीरगाथा काल में कायर, भक्ति काल में पाखंड, रीतिकाल में सूम तथा आधुनिक काल में नेता आदि हास्य के आलंबन बनाए गए हैं।
डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी के लिखते हैं, ‘‘परिस्थितियों के साथ हास्य के आलंबन बदलते रहते हैं और लोगों की मनोवृत्तियों में भी अंतर आता है। उसी के साथ हास्य की परिभाषाएं भी बदलती रहती हैं।’’ इसके बावजूद उन्होंने असंगति को ही हास्य का मूल आधार माना है। भारत में शृंगार का जितना विवेचन हुआ, अन्य रसों का उतना विवेचन नहीं हुआ है। हिंदी में स्नेह हास्य की कमी है। पाश्चात्य साहित्य के हास्य रस लेखकों की कृतियों का अध्ययन करने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मुताबिक, भारत में इस प्रकार के साहित्य का अभाव है। उन्होंने लिखा है, ‘‘समाज के चलते जीवन के किसी विकृत पक्ष या किसी वर्ग के व्यक्तियों की बेढंगी विशेषताओं को हंसने-हंसाने योग्य बनाकर सामने लाना बहुत कम दिखता है।’’  
हिंदी साहित्य में व्यंग्य निबंध लेखन की शुरुआत भारतेंदु काल में हुई। भारतेंदु के साथ प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि ने कई महत्वपूर्ण व्यंग्य लिखे। भारतेंदु काल में अधिकतर लेखकों ने व्यंग्य के जरिये अंग्रेजी पर निशाना साधा। हालांकि बाद के वर्षों में व्यंग्य लेखन में थोड़ा ठहराव तो आया, लेकिन श्रीलाल शुक्ल, गुलाब राय, रामविलास शर्मा के निबंधों में व्यंग्य का पुट मौजूद रहा। भारतेंदु काल के बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी का काल आया, जिसने हास्य के विषयों और उनकी अभिव्यंजना प्रणालियों का और अधिक परिष्कार एवं विस्तार किया। उस युग के बालमुकुंद गुप्त और पं. जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी हास्य रस के अच्छे लेखक थे। शिवपूजन सहाय और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हास्य रस के साहित्य की अच्छी श्रीवृद्धि की है। स्वातंत्र्योत्तर निबंधों में व्यंग्य निबंध के एक नए युग की शुरुआत हुई, जिसके अगुआ हरिशंकर परसाई थे। उन्होंने व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा की तरह प्रतिष्ठित किया।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी व्यंग्यकारों में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, गोपाल प्रसाद व्यास, बरसानेलाल चतुवेर्दी आदि प्रमुख हैं। शरद जोशी भी अलग भाषाई तेवर के साथ व्यंग्य करते हैं। शिल्प की सजगता इनके व्यंग्य लेखन की विशेषता है। वहीं, लतीफ घोंघी के व्यंग्य में मारकता का अभाव तो होता है, पर इनका कथ्य बहुत व्यापक है। नरेंद्र कोहली, प्रेम जन्मेजय, हरीश नवल, ज्ञान चतुवेर्दी, अशोक शुक्ल के अलावा नए व्यंग्यकारों में आलोक पुराणिक, सुशील सिद्धार्थ, सुभाष चंदर, अशोक मिश्र आदि प्रमुख हैं।

हिंदी में आधुनिक विधा
व्यंग्य की उत्पत्ति अपने समय की विदू्रपताओं के भीतर से उपजे असंतोष से होता है। हालांकि विद्वानों में इस पर मतभेद है कि व्यंग्य को अलग विधा माना जाए या वह किसी भी विधा के भीतर ‘स्पिरिट’ के रूप में मौजूद रहता है। असल में व्यंग्य एक माध्यम है जिसके द्वारा व्यंग्यकार जीवन की विसंगतियों, खोखलेपन और पाखंड को दुनिया के सामने उजागर करता है। इस विधा में सामाजिक विसंगतियों का चित्रण सीधे-सीधे (अभिधा में) न होकर परोक्षत: (व्यंजना के माध्यम से) होता है। इसीलिए व्यंग्य में मारक क्षमता अधिक होती है। कुछ विद्वानों ने इसे हास्य के अंतर्गत माना है, जबकि कुछ ने स्वतंत्र विधा के रूप में व्यंग्य का प्रतिपादन किया है। उषा शर्मा लिखती हैं, ‘‘हास्य, व्यंग्य का अभिन्न अंग है, किंतु हास्य, व्यंग्य तभी बनता है जब उसमें आलोचना जोड़ी जाती है।’’ हास्य की उपयोगिता पर प्रख्यात लेखक जी.पी श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘‘बुराई रूपी पापों के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरा गंगाजल नहीं है। यह वह हथियार है, जो बड़े-बड़ों के मिजाज चुटकियों में ठीक कर देता है। यह वह कोड़ा है, जो मनुष्यों को सीधी राह से बहकने नहीं देता। मनुष्य ही नहीं, धर्म
और समाज को भी सुधारने वाला है, तो यही है।’’
हास्य-व्यंग्य का मूल स्रोत भारत की हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता, संस्कृति और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है।  भारतीय संस्कृति में ईश्वरीय अवधारणा इस तरह रची-बसी है कि हम उससे डरते नहीं। तभी तो कबीर कहते हैं- ‘‘हम बहनोई, राम मोर सार। हमहिं बाप, हरिपुत्र हमारा।’’ कोई उपासक अपने उपास्य से इतने  आत्मविश्वास के साथ ऐसा रिश्ता जोड़ने का साहस नहीं कर सकता। यह हमारी संस्कृति की खास देन है।    

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