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पाञ्चजन्य ब्यूरो
प्राचीनकाल में देवताओं और राक्षसों ने समुद्र मंथन किया था, उसमें से चौदह रत्न निकले थे। मगर हास्य का रत्न नहीं निकल पाया। जो देवताओं को समुद्र मंथन करके नहीं मिला, वह रत्न मनुष्य को सहज और जन्मजात मिला है। हास्य मनुष्य की बोझिल और उबाऊ जिंदगी को कहकहो से भर देता है, उसे नई ऊर्जा देता है।
कहा जाता है, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मगर विद्वानों ने एक और बात कही है ‘मनुष्य एक हंसने वाला प्राणी है।’ मनुष्य और अन्य पशुओं के बीच अलग सूचित करने वाले—बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि जहां अनेक लक्षण हैं, वहां हास्य भी है। पशुओं को कभी हंसते नहीं देखा गया। यह परम सौभाग्य केवल मनुष्य को ही प्राप्त है।
ऐसे में रोजमर्रा की बातों पर हंसी-ठिठोली और हल्के-फुल्के मजाक, जो रिश्तों में माधुर्य घोलते हैं, जरूरी हैं। एक लेखक के अनुसार दु:ख, नैराश्य एवं अवसाद से जब मनुष्य का मन तनावग्रस्त हो जाता है, तब वह हास्य की जरूरत अनुभव करता है। मगर मनुष्य स्वयं सदा हंस नहीं सकता। अगर कोई हमेशा हंसता रहे, तो लोग उसे पागल कहेंगे। इसलिए मनुष्य मानसिक एवं शारीरिक तनाव दूर करने के लिए कृत्रिम उपायों से हास्य का सृजन करता है। शरीर-शास्त्रवेत्ताओं का कहना है कि जैवधर्म के नियमानुसार हास्य की सार्थकता है। मान लीजिए, कोई प्रौढ़-वयस्क व्यक्ति जल्दी से किसी काम के लिए सड़क पर जा रहा है। तेजी से कदम बढ़ाते हुए अचानक उसका पांव फिसल गया और वह धड़ाम से गिर पड़ा, तो हमें हंसी आती है। क्यों? इसलिए कि एक वयस्क व्यक्ति के धीर-गंभीर भाव से चलने के साथ उसके पांव का फिसलना असंगत है और अनपेक्षित भी। किंतु एक बच्चा, जिसे अभी ठीक से चलना नहीं आया है, यदि फिसलकर गिर पड़ता है, तो हमें हंसी नहीं आती; क्योंकि अभी वह चलने का अभ्यस्त नहीं हुआ है और न उसमें उतनी सतर्कता ही आई है। इसके सिवा बच्चे के प्रति हमारी स्वाभाविक अनुकंपा भी होती है। मगर वही प्रौढ़ व्यक्ति यदि ट्रेन से गिर जाए, तो हमें हंसी नहीं आएगी। कभी-कभी अनपेक्षित घटनाओं या अपेक्षाभंग होने से भी हास्य पैदा होता है।
एक कहानी है। एक बनिया अपने बेटे के साथ तैरने गया। तैरते हुए बच्चा डूबने लगा। एक आदमी ने उसे बचाया और उसके बाप के पास ले गया। बाप ने धन्यवाद देने के बजाय बचाने वाले को कहा, ‘‘तुमने बचाया, यह ठीक है मगर मेरे बच्चे की टोपी कहां गई।’’ हास्य और चुटकुलों का भी यही विज्ञान है। चुटकुला कहा जाए और तुम हंसते हो। चुटकुला एक तरह की उत्तेजना पैदा करता है। चुटकुले की सारी व्यवस्था इस तरह से है कि कहानी एक दिशा में जा रही है और अचानक मोड़ लेती है; मोड़ इतना अचानक होता है, इतना अनपेक्षित कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। उत्तेजना बढ़ती जाती है और आप खास बात का इंतजार करते हैं। और अचानक, जिस किसी भी बात की आप अपेक्षा कर रहे थे, वह नहीं होती है, कुछ पूरी तरह से विपरीत, कुछ पूरी तरह से असंगत और उपहासपूर्ण, चुटकुला कभी भी तर्कसंगत नहीं होता। यदि चुटकुला तर्कसंगत होगा तो हंसी की सारी क्षमता खो जाएगी, हंसी की सारी गुणवत्ता खत्म हो जाएगी, क्योंकि आप पूर्वानुमान लगा सकते हैं। तब जब चुटकुला कहा जा रहा है, तभी आप निष्कर्ष पर पहुंच चुके होते हैं, क्योंकि यह सामान्य गणित होगा, लेकिन तब हंसी नहीं हो सकती। चुटकुला अचानक मोड़ लेता है, इतना अचानक कि आपके लिए लगभग इसकी कल्पना करना तक संभव नहीं होता।
वैसे कई लोग मानते हैं कि हंसी की एक बेटी है जिसका नाम मुस्कान है, जिसके बारे में एक कवि ने लिखा है-
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है
यह अलग बात है कि उसमें
हंसी से कहीं ज्यादा जान है
मगर जब हंसी खुलकर खेलती है तो उसे ठहाके लगाना कहा जाता है। कई बार हंसी इससे भी आगे बढ़ जाती है और विरोध का रूप ले लेती है। जैसी हंसी हाल ही में संसद में रेणुका चौधरी से सुनी गई। उसे अट्टाहास कहते हैं। हास्य रस का एक विशिष्ट स्थान है। इस बात को साहित्यकारों ने भी स्वीकार किया है। नवरस में हास्यरस को भी स्थान दिया है। संस्कृत साहित्य का यह श्लोक प्रसिद्ध है—
उष्ट्रानाम विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा
परस्परं प्रशंसति अहो रूपं अहो ध्वनि।
ऊंट की शादी में गधा गीत गाता है और दोनों एक-दूसरे की प्रसंसा करते हैं कि वाह तेरा क्या रूप है, वाह तेरी क्या आवाज है। जहां हास स्थायी भाव विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस रूप में परिणत हो, वहां हास्य रस होता है। उदाहरण काहू न लखा सो चरित वीसेखा! सो सरूप नर कन्या देखा!! ऐसा ही एक उदाहरण है-
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता।
हास्य पर कई जगह गंभीर विचार किया गया है। भगवान बुद्ध ने एक बार अपने शिष्य सारिपुत्र से कहा कि तुम हंसी को ध्यान से देखो और मुझे बताओ कि हंसी कितनी तरह की होती है। सारिपुत्र ने ऐसा ही किया और पूरी जानकारी भगवान बुद्ध को दी। सारिपुत्र के पहले और उनके बाद कभी भी किसी ने हंसी को इतनी गहराई से नहीं समझा।
सारिपुत्र ने हंसी के 6 प्रकार बताए हैं, जिसमें हंसी की महिमा के सभी अच्छे और बुरे रूपों का वर्णन है। पहली तरह की हंसी एक धीमी लगभग न दिखाई देने वाली मुस्कान है, जो कि बहुत छोटे तरीके से भावनाओं को सामने लाती है। ऐसी हंसी को तभी देखा जा सकता है, जब देखने वाला सचेत हो। दूसरी को सारिपुत्र ने कहा ‘हसिता’। वह मुस्कान, वह हंसी, जिसमें होंठों का हिलना शामिल होता है और जो दांतों के किनारे से साफ दिख रही होती है। तीसरे को उन्होंने कहा ‘विहंसिता’ एकदम चौड़ी खुली मुस्कान, जिसके साथ थोड़ी-सी हंसी भी शामिल होती है। चौथे को उन्होंने कहा ‘उपहंसिता।’ जोरदार ठहाके वाली हंसी। इसमें जोर की आवाज होती है और उसके साथ सिर, कंधों और बांहों का हिलना-डुलना भी जुड़ा होता है।
पांचवें को उन्होंने कहा ‘अपहंसिता’। इतने जोर की हंसी कि हंसने के साथ आंसू आ आ जाए। छठवें को उन्होंने कहा ‘अतिहंसिता’। सबसे तेज और शोर भरी हंसी, जिसके साथ पूरे शरीर की गति जुड़ी रहती है। शरीर ठहाकों के साथ दोहरा हुआ जाता है, व्यक्ति हंसी से लोट-पोट हो जाता है। परमात्मा ने मनुष्य को हंसने की शक्ति दी है। इसके पीछे कारण है। चूंकि मनुष्य अपनी विकृतियों के जाल में बुरी तरह फंसा रहने वाला प्राणी है, इसलिए उसे हंसी की जरूरत है। मनुष्य के स्वस्थ होने की पहली पहचान है— हंसी। हंसने वाला व्यक्ति जीवन में स्वस्थ व प्रसन्न रहते हुए अपने जीवन को सुखी बना लेता है।
हंसना मानव जीवन के लिए वरदान है, क्योंकि कोई अन्य जीव हंस नहीं सकता। ओशो कहते हैं, ‘‘हंसी कुछ ऊर्जा तुम्हारे अंतकेंद्र से परिधि पर ले आती है। ऊर्जा हंसने के पीछे छाया की भांति बहने लगती है। तुमने कभी इस पर ध्यान दिया? जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो उन थोड़े से क्षणों के लिए तुम एक गहन ध्यानपूर्ण अवस्था में होते हो।’’
वे कहते हैं, ‘‘हंसने के दौरान विचार प्रक्रिया रुक जाती है। आपको इतना भी पता नहीं रहता कि कहां तुम्हारा शरीर समाप्त होता है और कहां अस्तित्व शुरू होता है। तुम अस्तित्व में पिघल जाते हो और अस्तित्व तुममें पिघल आता है; सीमाएं एक-दूसरे में प्रवाहित हो जाती हैं। हंसने के साथ भी ऐसा ही होता है।’’ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने ‘वनमानुष नहीं हंसता’ लेख में लिखा है, ‘‘मैं व्यंग्य इसलिए लिखता रहा हूं कि हर आदमी हंसता हुआ दिखे। कोई मनहूस, चिंतित या रोनी सूरत का न हो। हंसना बहुत अच्छी बात है। प्राणियों में मनुष्य ही ऐसा है जिसे हंसने की क्षमता प्रकृति ने दी है।’’ सच में आप हंसेंगे तो दुनिया आपके साथ हंसेगी। मगर रोएंगे तो अकेले ही रोना पड़ेगा। तो फिर आप क्यों रो रहे हैं?
हास्य प्रार्थना है: ओशो
ओशो ने कहा है कि हास्य एक प्रार्थना है। लेकिन हम हास्य और उपहास दोनों को एक मान बैठे हैं। जबकि इसमें बहुत बड़ा अंतर है। हम उपहास करते हैं, हास्य नहीं करते। सारी शुद्धता खो गई है। तुम शुद्ध ढंग से, सहज ढंग से, बच्चे जैसे हंस भी नहीं सकते और यदि तुम शुद्ध ढंग से हंस नहीं सकते तो तुम कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण चूक रहे हो। तुम अपना कुंवारापन खो रहे हो, तुम्हारी निश्छलता, तुम्हारा भोलापन। एक छोटे बच्चे को देखो, उसकी हंसी को देखो- कितनी गहरी, केंद्र से आती है। जब बच्चा पैदा होता है तो जो पहला सामाजिक कार्य वह सीखता है- यह कहना उचित नहीं होगा कि ‘सीखता’ है, क्योंकि वह अपने साथ लाता है, वह है- मुस्कराना। पहला सामाजिक कार्य। मुस्कराकर वह समाज का हिस्सा बनता है। यह बहुत प्राकृतिक, स्वाभाविक लगता है। दूसरी चीजें बाद में आती हैं- दुनिया में यह उसकी पहली चिन्गारी है, जब वह मुस्कराता है। जब मां अपने बच्चे को मुस्कराता देखती है, वह खुशी से झूम उठती है, क्योंकि यह मुस्कराहट स्वास्थ्य बताती है। यह मुस्कराहट उसकी प्रतिभा को बताती है। यह मुस्कराहट बताती है कि बच्चा मूर्ख नहीं है, अपाहिज नहीं है। यह मुस्कराहट बताती है कि बच्चा जीने वाला है, प्रेम करने वाला है, प्रसन्न रहने वाला है। मां बस थिरक उठती है।
मुस्कराना पहला सामाजिक कार्य है और यह सामाजिक कार्य का बुनियादी कार्य रहना चाहिए। किसी को अपने जीवनभर हंस जाना चाहिए। यदि तुम हर तरह की स्थिति में हंस सको, तुममें उनका सामना करने की काबिलियत आ जाएगी और यह काबिलियत तुम्हें प्रौढ़ता देगी। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि रोओ मत। सच तो यह है कि यदि तुम हंस नहीं सकते तो तुम रो भी नहीं सकते। ये साथ-साथ आते हैं; ये एक ही घटना के हिस्से हैं : सच्चे और ईमानदार कृत्य के
तुम्हें कछु लाज न आई
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो,
सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन,
घर-घर नाच नचाई।
तबौ नहिं हबस बुझाई॥
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर,
का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो,
ऐसे बनो न कसाई।
तुम्हें कैसर दोहाई॥
कर जोरत हौं बिनती करत हों,
छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर,
भूखन जान गँवाई।
तुम्हें कछु लाज न आई॥
-भारतेंदु हरिश्चंद्र
देख बहारें होली की
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों
खूम शीश-ए-जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों
नाच रंगीली परियों का,
कुछ भीगी तानें होली की,
कुछ तबले खड़कें रंग भरे,
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों,
जब फागुन रंग झमकते हों
मुंह लाल गुलाबी आंखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंगभरी पिचकारी को
अंगिया पर तक के मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की।
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की।
-नजीर अकबराबादी
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