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संयुक्त अरब अमीरात के तेल कुओं में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी प्राप्त करके भारत ने तेल कूटनीति में बड़ी सफलता हासिल की है। इस छोटे से देश के पास वह ताकत है जो बदलते भू-रणनीतिक परिदृश्य में भारत की महत्वाकांक्षाओं के लिए टिकाऊ आर्थिक बुनियाद तैयार कर सकती है
अरविंद शरण
भारत ने हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के एक तेल क्षेत्र में दस प्रतिशत की हिस्सेदारी खरीदी है। यह एक बड़ी उपलब्धि है। यह समझौता शीर्ष स्तर की उस इच्छाशक्ति का प्रतीक है जो फौरी राहत की जगह स्थायी उपचार की रणनीति को बेहतर मानती है। यह सही है कि हमारी ऊर्जा जरूरतें काफी अधिक हैं तथा इसमें अभी और इजाफा होगा, लेकिन अगर इसके एक भाग की भी स्थायी और निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित हो गई तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता।
भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल की यात्रा के दौरान यूएई के निचले जकूम तेल क्षेत्र में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी के लिए समझौता किया गया है। 60 करोड़ डॉलर में 40 साल के लिए हुआ यह करार इसी साल 9 मार्च से अमल में आ जाएगा। अभी इस तेल क्षेत्र से हर दिन चार लाख बैरल तेल निकाला जा रहा है, जिसे 2025 तक बढ़ाकर 4.5 लाख बैरल करने की योजना है। इसमें से 10 प्रतिशत पर भारत का हक होगा। यानी अभी जितना तेल उत्पादन हो रहा है उसमें से 40,000 बैरल रोजाना हमारा होगा। ओएनजीसी के पूर्व अध्यक्ष आर.एस. शर्मा इसे बहुत बड़ी सफलता के तौर पर देखते हैं। वे कहते हैं, ‘‘यह कितनी बड़ी उपलब्धि है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संयुक्त अरब अमीरात ने पहली बार अपने तेल क्षेत्र में किसी देश को हिस्सा दिया है। वहां जो तेल निकलेगा, उसके दस प्रतिशत के मालिक हम होंगे। भौगोलिक दृष्टि से यूएई से भारत की दूरी भी अपेक्षाकृत काफी कम है, इसलिए वहां से तेल लाने में भी कोई दिक्कत नहीं होगी।’’
आसमान छूने की क्षमता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा ने भारत-यूएई के बीच तेल क्षेत्र में के्रता-विक्रेता के रिश्तों को बदलकर एक निवेशक-साझीदार की शक्ल तो दी ही है। इसके अलावा, दोनों देशों के संबंधों के कई और आयाम भी हैं। यूएई के पास दुनिया में तेल का 7वां और प्राकृतिक गैस का 17वां सबसे बड़ा भंडार है और दोनों देशों के बीच 2015-16 का परस्पर व्यापार लगभग 60 अरब डॉलर रहा। दोनों देशों की योजना अगले पांच वर्षों में इसे 60 प्रतिशत तक बढ़ाने की है। यानी, सालाना व्यापार को 100 अरब डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य है। इसके अलावा, यूएई में रह रहे लगभग 26 लाख भारतीय भी विदेशी मुद्रा के बड़े साधन हैं। पिछले साल वहां रहने वाले भारतीयों ने 25 अरब डॉलर की राशि भारत में भेजी। साथ ही, संयुक्त अरब अमीरात भारतीय वस्तुओं का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश भी है।
चीन और अमेरिका के बाद हमारे इस सबसे बड़े व्यापारिक साझीदार के साथ आर्थिक रिश्तों की यह पृष्ठभूमि भारत के लिए और भी मजबूत भविष्य की आस जगाती है। दरअसल, भूगोल के हिसाब से इस छोटे से देश के पास वह ताकत है जो बदलते भू-रणनीतिक परिदृश्य में भारत की महत्वाकांक्षाओं के लिए टिकाऊ आर्थिक बुनियाद तैयार कर सकती है। इसका कारण है कि संयुक्त अरब अमीरात के पास स्वायत्त धन निधि (सोवरेन वेल्थ फंड) का अकूत भंडार। यह वह राशि होती है जो किसी देश के पास सभी मदों में पैसे डाल देने के बाद बच जाती है और इसे वह निश्चिंत होकर कहीं और निवेश कर सकता है। संयुक्त अरब अमीरात के पास स्वायत्त धन निधि 828 अरब डॉलर की है। उससे अधिक निधि केवल नॉर्वे (998.9 अरब डॉलर) और चीन (900 अरब डॉलर) के पास है। नॉर्वे में यह पैसा पेंशन फंड से आया है और इसके निवेश की प्रक्रिया थोड़ी अलग है। वैसे, भारत नॉर्वे के इस कोष से भी निवेश लाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात के मामले में यह फैसला विशुद्ध रूप से वहां की सरकार पर निर्भर करता है। अगर इस कोष का 10 प्रतिशत निवेश भी भारत में हुआ तो कहानी एकदम अलग हो जाएगी। देबाशीष नंदी कहते हैं, ‘‘इसके लिए जरूरी यह है कि हम अपने यहां अर्थव्यवस्था को निवेश के हिसाब से और आकर्षक बनाएं। अगर यूएई इस फंड से हमारे यहां निवेश करता है तो यह दुनिया के अन्य निवेशकों को भी भारत आने के लिए प्रेरित करेगा।’’
बढ़ती मांग की चुनौती
फिलहाल भारत में तेल की मांग रोजाना करीब 40 लाख बैरल है। जिस रफ्तार से देश में विकास हो रहा है, उसे देखते हुए 2040 तक इस आंकड़े बढ़कर 101 लाख बैरल के स्तर पर पहुंचने का अनुमान है। अगर मौजूदा तेल भंडारों की बात करें तो यह दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को तकरीबन 50-52 साल तक पूरा कर सकेंगे। यानी, अगर तेल के और भंडार नहीं मिले तो भी दुनिया की कूटनीति कम से कम आधी सदी तक तेल-आधारित हितों के इर्द-गिर्द ही घूमने वाली है।
बदलते वैश्विक समीकरणों के बीच भारत के लिए जरूरी था कि वह सुनिश्चित करे कि उसका तेल आयात वैश्विक उठापटक के झटके झेलने की क्षमता रखता हो और कीमत भी वाजिब हो। इस लिहाज से यूएई के तेल क्षेत्र में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी खरीदना एक ऐतिहासिक कदम है। भारत की वर्तमान और भावी ऊर्जा जरूरतों के दृष्टिगत यह आंकड़ा कम लग सकता है, पर यह समझना होगा कि हम अपनी सारी जरूरतें एक जगह से पूरी नहीं कर सकते। तेल कूटनीति में हम अपने विकल्पों को जितना ज्यादा विविध और व्यापक बनाएंगे, उतने ही निश्चिंत हो सकते हैं। भारत की रणनीति उन देशों तक दायरा बढ़ाने की रही है, जिनसे वह तेल खरीदता है। इस लिहाज से भी यह समझौता महत्वपूर्ण है। ऊर्जा क्षेत्र के विशेषज्ञ देबाशीष नंदी कहते हैं, ‘‘भारत खाड़ी देशों से लेकर अफ्रीकी और अमेरिकी देशों से भी तेल खरीद रहा है। हमारे लिए यही विविधता अंतरराष्ट्रीय उतार-चढ़ाव से बचने की गारंटी है। यूएई के तेल क्षेत्र में हिस्सेदारी खरीदने का एक अंतर्निहित लाभ यह भी होगा कि इससे हमारी तेल कूटनीति को नया आयाम मिलेगा और इसका असर कई दूसरे क्षेत्रों पर भी पड़ेगा।’’
तेल आयात की विविधता
भारत की तेल जरूरतों का लगभग चौथाई हिस्सा सऊदी अरब से पूरा होता है। दोनों देशों के बीच व्यापार संबंध काफी मजबूत रहे हैं और सऊदी अरब में भारत पांचवां सबसे बड़ा निवेशक है। अभी सऊदी अरब को हमारा निर्यात लगभग 2.6 अरब डॉलर का है, जबकि वहां से आयात लगभग 13.5 अरब डॉलर का है। इसमें लगभग 12.2 अरब डॉलर की हिस्सदारी सऊदी अरब से होने वाले तेल के आयात की है।
इसके अतिरिक्त भारत के लिए इराक, ईरान, कुवैत, कतर, ओमान, वेनेजुएला आदि देश भी महत्वपूर्ण हैं, जहां से तेल आयात होता है। सऊदी के बाद भारत सबसे ज्यादा तेल इराक से आयात करता था। हालांकि इराक युद्ध के समय इसमें खासी गिरावट आई, लेकिन अब फिर इसमें वृद्धि हो रही है। फिर आता है ईरान का स्थान। इस देश पर अमेरिकी प्रतिबंधों का असर हमारे आयात पर भी पड़ा और आने वाले समय में भी यह चुनौती बनी रहेगी। कुवैत हमारे लिए चौथा बड़ा तेल निर्यातक है और वह हमारी ऊर्जा जरूरतों का लगभग दस प्रतिशत हिस्सा पूरा करता है। देबाशीष नंदी कहते हैं, ‘‘आने वाले समय में अगर हम चाबहार बंदरगाह के जरिये मध्य एशिया के देशों तक अपनी पहुंच बेहतर कर पाए तो यह हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण होगा और इस क्षेत्र की कूटनीति में भी हमारे प्रभाव को बढ़ाएगा।’’
पश्चिम एशिया और अफ्रीका का महत्व
तेल आयात के मामले में पश्चिम एशियाई देशों के साथ भारत का संबंध पुराना है। लेकिन अरब क्रांति के दौर को झेल चुके इस क्षेत्र में अब भी परिवर्तन की चिनगारी मौजूद है। लिहाजा, भारत तेल आयात के लिए अफ्रीका के देशों को भी प्राथमिकता दे रहा है। देबाशीष नंदी कहते हैं, ‘‘यह सही है कि कुछ अरब देशों में आज भी अस्थिरता के कारक बने हुए हैं और भारत के लिए विकल्प की ओर देखना स्वाभाविक भी है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमारी तेल कूटनीति में यह क्षेत्र हाशिए पर जा सकता है। भारत इस क्षेत्र को चीनी कूटनीति का खुला मैदान नहीं बनने दे सकता।’’ जाहिर है, परस्पर ठोस व्यापारिक रिश्तों की पहचान रहे ये अरब देश हमारे लिए अन्य कारणों से भी अहम हैं। अगर रणनीतिक तौर पर देखें तो अफ्रीका का पूर्वी तट हिंद महासागर क्षेत्र में आता है और इसमें दक्षिण अफ्रीका से लेकर सोमालिया तक आते हैं। इस पूरे इलाके में आतंकवादी, ड्रग माफिया और समुद्री लुटेरों का आतंक है। इसके अलावा, यहां बढ़ते चीनी प्रभाव को संतुलित करना भी एक बड़ा लक्ष्य है। हाल के वर्षों के दौरान अफ्रीका के कई देशों में चीन ने अपनी उपस्थिति बढ़ाई है। उसकी नजर इन इलाकों के तेल और गैस के भंडार पर है। इसलिए, भारत के लिए इन देशों के साथ तेल आधारित रिश्ते बेहतर करने के अपने कूटनीतिक कारण भी हैं। लिहाजा, अरब और अफ्रीका के देश भू-रणनीतिक दृष्टि से भी अहम हैं। इसलिए अपनी तेल कूटनीति को हमें उस नजरिये से भी देखना चाहिए।
बढ़ती कीमतें और हमारी रणनीति
अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत में हाल के वर्षों में आई जबरदस्त कमी की मुख्य वजह अमेरिका और ‘ओपेक’ देशों के बीच तेल बाजार पर वर्चस्व के लिए गलाकाट स्पर्धा थी। अमेरिका ने 2009 से पत्थरों के बीच फंसे तेल (शेल आॅयल) का उत्खनन बड़े पैमाने पर शुरू किया। इसी दौरान कनाडा ने भी शेल आॅयल का उत्खनन बढ़ा दिया। अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार पर वर्चस्व रखने वाले ओपेक देशों के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी और उन्होंने तेल उत्पादन बढ़ाकर अमेरिका का मुकाबला करने की रणनीति अपनाई।
शेल आॅयल के उत्खनन की तकनीक जटिल होने के कारण इसकी लागत अधिक होती है। ओपेक देशों का आकलन था कि तेल उत्पादन बढ़ा देने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में अमेरिका प्रतिस्पर्धा में उनके सामने टिक नहीं पाएगा और अपने आप इस कारोबार से बाहर हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका और अमेरिका यह सब झेल गया। हालांकि इस प्रतिस्पर्धा का परिणाम यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत 25 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गई और भारत सहित पूरी दुनिया को इसका फायदा मिला। दोबारा से कीमत के बढ़ने की वजह यह है कि अमेरिका से तेल के खेल में मात खा चुके ओपेक देशों ने अपनी रणनीति बदल दी। ओपेक देशों ने रूस के साथ समझौता किया, जिसमें तेल का उत्पादन घटाकर बाजार में कीमत-संतुलन बनाने पर सहमति बनी। हाल ही में भारत ने अमेरिका से 16 करोड़ बैरल कच्चा तेल खरीदा है। इससे भारत के तेल आयात बाजार में जहां विविधता आई, वहीं अमेरिका का भारत के साथ व्यापार घाटा भी करीब 2 अरब डॉलर से कम हुआ। भविष्य की तेल जरूरतों को देखते हुए भारतीय कंपनियों ने अमेरिका के शेल आॅयल क्षेत्र में 5 अरब डॉलर का निवेश कर रखा है। ओपेक देशों के मुकाबले अमेरिका से आयात किया जाने वाला तेल सस्ता भी पड़ रहा है।
भारत को अमेरिका से मिल रहे तेल की कीमत ओपेक देशों के मुकाबले प्रति बैरल लगभग दो डॉलर कम है। बहरहाल, जहां तक अमेरिका से तेल आयात की बात है, तो भारत के लिए इस पर निर्भरता भी एक सीमा तक ही हो सकती है। कारण, शेल आॅयल निकालने की तकनीक ऐसी है कि इससे पर्यावरण को अपेक्षाकृत अधिक नुकसान होता है और फिलहाल अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन को पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को लेकर उतनी चिंता नहीं है। लेकिन इन संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमेरिकी प्रशासन इस पर कोई खास कर लगा दे या फिर उत्पादन की मंजूरी प्रक्रिया को ही कठिन बना दे। इस लिहाज से अमेरिका से हो रहे तेल आयात को लेकर सावधानी तो जरूरी है।
अगर मौजूदा समीकरण अनुकूल और आश्वस्त करने वाला लगता हो तो भी जरूरी है कि हम अपने तेल आयात बाजार की विविधता को जितना संभव हो, और मजबूत बनाएं। भारत ने अमेरिका से तेल खरीदने का फैसला आयात में विविधता लाने के उद्देश्य के तहत किया है। वैसे भी, ओपेक देश भारत और चीन को ‘एशिया सरचार्ज’ लगाकर तेल बेचते हैं। भारत इसके खिलाफ रहा है और विभिन्न मौकों पर कहा भी कि उसे तेल की आपूर्ति प्रतिस्पर्धात्मक कीमत पर हो। ओपेक देशों से तेल खरीदना भारत की मजबूरी है, पर साथ ही वह दबाव भी बनाना चाहता है, जिससे उचित कीमत पर तेल मिल सके।
विपक्ष को जवाब
पिछले कई सालों के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बड़ी तेजी से गिरीं और वहीं पड़ी रहीं, लेकिन घरेलू बाजार में कीमतें उस अनुपात में नीचे नहीं आईं। इससे काफी हाय-तौबा मची। विपक्ष ने भी जमकर इसे मुद्दा बनाया। कहा गया कि सरकार अपना खजाना भर रही है। लेकिन सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। यह समझना जरूरी है कि जब पैसा कहीं बचेगा, तभी कहीं और खर्च होगा। दीर्घकालिक फायदे की बात हो तो कुछ समय की तकलीफ सहने में किसी को क्यों परेशानी होगी? तेल की कीमतों में कमी अस्थायी अंतरराष्ट्रीय कारणों से थी और इसे समय के साथ वापस बढ़ना ही था। वैसा ही हुआ भी।
सरकार के लिए अच्छी बात यह रही कि उसके पास सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों में निवेश के लिए पैसे अपने आप आ गए। नंदी कहते हैं, ‘‘तेल की कीमतों का फिर से बढ़ना तो तय था। अमेरिकी नीतियों और अन्य कारकों के कारण यह थोड़े समय के लिए आई चांदनी थी। इस पैसे का दो तरह से इस्तेमाल हो सकता था। एक, तेल की कीमत घटाकर इसका सीधा लाभ जनता को देकर उसकी दिक्कतों को थोड़ा कम कर देते। दूसरा, जो सरकार ने किया। यह कहना तो मुश्किल है कि किस पैसे से कौन-सा काम हुआ। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार की आय इसी तरह होती है और अगर लोगों के पैसे का इस्तेमाल संयुक्त अरब अमीरात में हिस्सेदारी खरीदने जैसे दीर्घकालिक फायदे के लिए हो, तो मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई हानि है। फौरी राहत की जगह स्थायी उपचार हो तो
क्या बुराई?’’
यह बात स्पष्ट है कि दुनिया को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर निर्भरता बढ़ानी होगी, क्योंकि आज के अनुमान के मुताबिक तेल का साथ हमेशा के लिए नहीं है। हमें भी उसी योजना के मुताबिक धीरे-धीरे तेल-आधारित व्यवस्था पर निर्भरता घटानी होगी। भारत परमाणु और गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर इसी मद्देनजर जोर दे रहा है। इस बदलाव के लिए हमारे पास लगभग पचास साल हैं। लेकिन तब तक तो तेल-कूटनीति की धार को देखकर ही
चलना पड़ेगा।
बड़ा मंदिर, बड़ा संदेश
अबू धाबी में अक्षरधाम की तर्ज पर विशाल मंदिर बनाने का फैसला भी लिया गया। दुनियाभर में 1100 मंदिर बना चुकी स्वामिनारायण संस्था इसका निर्माण कराएगी। इसके लिए यूएई की सरकार ने 55 हजार वर्ग मीटर जमीन दी है। अबू धाबी का यह पहला बड़ा मंदिर होगा। यह कितना बड़ा कदम है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक वहां केवल दो छोटे मंदिर और एक गुरुद्वारा थे। सबसे पहले 1958 में दुबई में एक मकान की पहली मंजिल पर मंदिर बनाने की अनुमित दी गई थी। यह पहला मौका होगा जब वहां इतना विशाल मंदिर बनेगा। यह भारत और यूएई के मजबूत होते रिश्तों की एक और बानगी है। यह नहीं भूलना चाहिए कि मजबूत सांस्कृतिक रिश्ते समग्रता में बड़े फलक पर सकारात्मक भूमिका
निभाते हैं।
40 करोड़ डॉलर में यूएई के साथ 40 साल के लिए तेल समझौता, इसी साल 9 मार्च से लागू
40 हजार बैरल रोजाना तेल मिलेगा भारत को। रोजाना उत्पादन 4 लाख बैरल होता है अभी
4.5 लाख बैरल प्रतिदिन के स्तर तक ले जाने की योजना है 2025 तक
60 अरब डॉलर का व्यापार हुआ दोनों देशों के बीच 2015-16 में
100 अरब डॉलर तक पहुंचेगा द्विपक्षीय व्यापार अगले
5 साल में
वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में बढ़ते कदम
देश का भविष्य विकास की गति और ऊर्जा सुरक्षा के बीच परस्पर कदमताल पर निर्भर करता है। इसे देखते हुए केंद्र सरकार ने वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को प्राथमिकता सूची में ऊपर रखा है। भारत की योजना स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों और परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देकर अपनी जरूरतों की पूर्ति के अन्य तरीकों पर निर्भरता बढ़ाने की है। इसी रणनीति के तहत देश में पवन और सौर ऊर्जा पर जोर दिया जा रहा है। ऐसा पहली बार हुआ है कि 2016-17 के दौरान परंपरागत ऊर्जा के मुकाबले इन दो क्षेत्रों की क्षमता वृद्धि अधिक रही। पवन और सौर ऊर्जा में 11 गीगावाट, जबकि परंपरागत ऊर्जा के क्षेत्र में यह आंकड़ा 10.3 गीगावाट रहा। ध्यान देने की बात यह है कि महज एक साल पहले तक दोनों की क्षमता वृद्धि में अच्छा-खासा अंतर था। इससे साफ है कि भारत वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को कितनी गंभीरता से ले रहा है। अभी भारत दुनिया का सबसे बड़ा और महत्वाकांक्षी नवीकरण ऊर्जा कार्यक्रम चला रहा है। 2022 तक इस क्षेत्र का उत्पादन 175 गीगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य है। हालांकि, संबद्ध मंत्री इस बात को लेकर काफी आश्वस्त हैं कि भारत न केवल इस लक्ष्य को हासिल कर लेगा, बल्कि वैकल्पिक ऊर्जा क्षमता को 200 गीगावाट तक पहुंचाने में कामयाब भी होगा। साथ ही, भारत परमाणु ऊर्जा को भी काफी महत्व दे रहा है। अभी भारत में पांच परमाणु संयंत्रों में बिजली का उत्पादन हो रहा है। देश के कुल ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की भागीदारी करीब 4.2 प्रतिशत है। 2025 तक 18 और परमाणु संयंत्र लगाकर यह भागीदारी 9 प्रतिशत तक बढ़ाने की तैयारी है। देश में पानी से बिजली बनाने की क्षमता तकरीबन 1.45 लाख मेगावाट है और फिलहाल हम इसके चौथाई स्तर का ही दोहन कर पा रहे हैं। इस दिशा में काफी काम किया जाना है और ऐसी तमाम परियोजनाएं हैं जिन पर काम चल रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इनकी राह के रोड़े दूर होंगे और इनका योगदान ऊर्जा जरूरतों के संदर्भ में बढ़ सकेगा।
कूटनीतिक साझेदारी
प्रधानमंत्री की हाल की यात्रा के दौरान यूएई और भारत के बीच साझे नौसैनिक अभ्यास पर भी सहमति बनी है। यह अपने आप में बड़ी बात है और दोनों देशों के रिश्तों को एक नया आयाम देती है। जाहिर है, दोनों देश वैश्विक कूटनीतिक पटल पर भी कदमताल करने की ठोस दिशा में बढ़ गए हैं। इसके अलावा, आतंकवाद को लेकर भी दोनों देशों की सोच में काफी समानता है। प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान दोनों देशों ने स्पष्ट किया कि आतंकवाद के मामले में किसी भी सूरत में दोहरा मापदंड नहीं अपनाया जाना चाहिए। यह विश्व शांति के लिए भी जरूरी है।
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