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कलम के सिपाही
जाने-माने राष्टÑवादी पत्रकार और लेखक मुजफ्फर हुसैन नहीं रहे। उन्होंने 13 फरवरी को मुंबई के हीरानंदानी अस्पताल में अंतिम सांस ली। तेज बुखार आने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 10-12 दिन तक इलाज चलने के बावजूद वे हमारे बीच नहीं रह पाए।
पाञ्चजन्य में उन्होंने चार दशक से ज्यादा समय तक राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय समस्याओं और इस्लामी जगत के मुद्दों पर बहुत ही बेबाकी से लेख लिखे। वे उन सबकी अच्छी खिंचाई करते थे, जो मजहब के नाम पर लोगों को बरगलाते थे, समाज को बांटने का काम करते थे। उनके लेख पढ़कर अनेक पाठकों को लगता था कि पाञ्चजन्य में कोई छद्म नाम से लिख रहा है। लेकिन जब ऐसे पाठकों को उनके बारे में पता चला तो वे दंग रह गए। दरअसल, हुसैन राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रभावित थे। इसकी झलक उनकी लेखनी में भी मिलती थी।
आपातकाल के पहले की बात है। उन दिनों वे मध्य प्रदेश के नीमच में रहते थे। वहां के एक अखबार में उन्होंने एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था-‘कितने मुस्लिम’। उस लेख को पूर्व सरसंघचालक स्व. कुप्. सी. सुदर्शन, जो उन दिनों मध्य प्रदेश में प्रचारक होते थे, ने पढ़ा। वह लेख उन्हें बेहद पसंद आया और उन्होंने हुसैन के बारे में और जानकारी इकट्ठी की और एक दिन उनसे मिलने पहुंच गए। उन्होंने उस लेख के लिए हुसैन को बधाई दी और दैनिक स्वदेश, पाञ्चजन्य जैसे पत्रों में भी लिखने को कहा। इसके बाद हुसैन इन पत्रों के लिए भी लेख लिखने लगे। यह क्रम दशकों तक चला। सुदर्शन जी के संपर्क में आने के बाद उनकी लेखनी में और धार आई। इसके बाद वे संघ से भी जुड़े। राष्टÑीय मुस्लिम मंच की स्थापना और संवर्धन में उनकी बड़ी भूमिका रही।
उनके लेखों का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग था। विशेषकर पाञ्चजन्य के पाठकों को इस्लामी दुनिया में क्या चल रहा है, खाड़ी के देशों में भारतीयों की क्या स्थिति है, इन सबकी जानकारी उनके लेखों से ही मिलती थी। श्री हुसैन का जन्म 1945 में राजस्थान के बिजोलिया में हुआ था। वहां उनके पिताजी राजवैद्य थे। राजशाही की समाप्ति के बाद उनका परिवार नीमच आ गया। यहीं उन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे एल.एल.बी. की पढ़ाई करने के लिए मुंबई चले गए। इसी दौरान उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ। हिंदी, उर्दू, मराठी और गुजराती भाषा पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी। इन चारों भाषाओं के अखबारों में उनके लेख प्रकाशित होते थे। कई अखबारों में उनके नियमित स्तंभ छपते थे। यहां तक कि दक्षिण के भी अखबारों में उनके लेख प्रकाशित होते थे। बिना लाग-लपेट के वे अपनी बात कहते थे। उनका मानना था कि मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ समरस हो जाना चाहिए। उनमें जो अलगाव की भावना है वह उनकी समस्याओं की मूल वजह है। वे कहते थे, दोनों की उपासना पद्धतियां भले ही अलग हों मगर दोनों के पूर्वज एक ही हैं।
पाञ्चजन्य के पूर्व संपादक तरुण विजय बताते हैं कि मुजफ्फर जी पाञ्चजन्य के उन लेखकों में से रहे, जो लगातार चार दशक तक लिखते रहे। मुस्लिम समस्याओं की ऐसी गहरी समझ रखने वाले पत्रकार कम हैं। फिर उनकी बेबाक लेखनी और सधी हुई सोच पाठकों को उनके नए लेख का इंतजार करने के लिए मजबूर करती थी।
इस्लाम के इबादत के सारे तौर-तरीकों का पालन करने के बावजूद वे जिहादी सोच को अपने लेखों में बेनकाब करते थे। वे मुसलमानों के बोहरा समुदाय से जुड़े हुए थे। मगर वहां भी वे अपनी सुधारवादी सोच के अनुसार सुधार का आंदोलन चलाते रहे। मुजफ्फर हुसैन लेखनी के धनी होने के साथ-साथ ओजस्वी वक्ता भी थे। अक्सर विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में उन्हें भाषण के लिए आमंत्रित किया जाता था। उन्होंने मराठी, हिन्दी और गुजराती में नौ पुस्तकें लिखीं। इनमें से ‘इस्लाम और शाकाहार’,‘अलपसंख्यकवाद के खतरे’, ‘मुस्लिम मानस’ आदि प्रमुख हैं। कुछ समय पहले तक वे राष्टÑीय उर्दू काउंसिल के उपाध्यक्ष भी रहे। इस नाते उन्होंने अनेक सुधारात्मक कार्य भी किए। उन्होंने काउंसिल से नए-नए लेखकों को जोड़ा और उन्हें आगे बढ़ाया। अटल जी की सरकार के समय 2002 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनकी पत्नी नफीसा हुसैन भी सामाजिक कार्यकर्ता के नाते बहुत अधिक सक्रिय रहती हैं। स्व. हुसैन अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं। पाञ्चजन्य परिवार की ओर से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि। ल्ल पाञ्चजन्य ब्यूरो
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