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सीमित संसाधनों को देखते हुए देश में समान जनसंख्या नीति लागू करने की जरूरत। नीतियां राष्ट्रीय हित को केंद्र में रखकर बनाई जाएं। संप्रदाय विशेष को जनसंख्या में अबाध बढ़त जारी रखने देना गलत
अनुपम
आज देश संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। देश के सामने संभावनाएं तो हैं, लेकिन चुनौतियां भी हैं। जनसंख्या वृद्धि दर में तेजी भी इन चुनौतियों में से एक है। चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। 2029 में भारत के सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन जाने की बात कही जा रही थी, परन्तु अब बढ़ती आबादी को देखते हुए माना जा रहा है कि 2022 में ही यह दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। यह चिंताजनक स्थिति है।
बढ़ती जनसंख्या के कारण राष्टÑीय संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा, जिससे एक तरफ स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की समस्याएं उत्पन्न होंगी, दूसरी तरफ आवास, पेयजल और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता के कारण पर्यावरणीय संकट भी उत्पन्न होगा। जनसंख्या का दबाव बढ़ने के कारण सामाजिक समरसता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। सीमित संसाधनों के बीच जनसंख्या वृद्धि से सामाजिक न्याय का सिद्धांत भी प्रभावित होगा, जो अंतत: जातीय हिंसा एवं सामाजिक तनाव के रूप में सामने आएगा। आवश्यकता है कि जनसंख्या नीति पर पुन: विचार किया जाए।
1947 में आजादी के समय देश की जनसंख्या 33 करोड़ थी, जो अब बढ़कर 125 करोड़ से अधिक हो गई है। 1952 में परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू हुआ, परन्तु आपातकाल के समय नसबंदी के कारण समाज में भय का माहौल भी बना। राष्टÑीय जनसंख्या नीति-2000 के तहत जनसंख्या नियंत्रण पर सकारात्मक बल दिया गया, जिसके तहत प्रजनन दर में कमी तो आई, परन्तु अब भी यह दर 2़.3 बनी हुई है। नीति आयोग के अनुसार, भारत की जनसंख्या 1 मार्च, 2011 को 121.07 करोड़ थी, जिसमें 62.़32 करोड़ पुरुष और 58.75 करोड़ महिलाएं थीं। विश्व के कुल 13,579 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में भारत की हिस्सेदारी मात्र 2.4 प्रतिशत है, फिर भी यह विश्व की बड़ी आबादी को आयाम प्रदान करता है। आबादी के इस बोझ में निरंतर वृद्धि होना खतरे की घंटी है।
इन सबके बीच, समान जनसंख्या नीति एवं चीन की तर्ज पर बच्चों की संख्या सरकार द्वारा तय किए जाने की बात जैसे ही की जाती है, वोट बैंक की राजनीति के कारण संपूर्ण समस्या को आर्थिक चश्मे से देखा जाने लगता है। ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि पूरे मामले को राजनीतिक रंग दिए बगैर इसकी गंभीरता को समझा जाए और राष्ट्रीय हितों को केंद्र में रख कर उस पर विचार किया जाए। इसमें दो राय नहीं कि एक संप्रदाय विशेष द्वारा बच्चे पैदा करने के संदर्भ में जब कानून बनाने की बात होती है तो उसे मजहबी मामले में हस्तक्षेप करार दे दिया जाता है। साथ ही, संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 के तहत प्रदत्त पांथिक स्वतंत्रता को आधार बना कर जनसंख्या नीति का विरोध किया जाता है। यहां पर भी कुछ समय ठहर कर सोचने की जरूरत है।
यदि आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो कई आश्चर्यजनक तथ्य उभरकर सामने आते हैं। ‘पियू’ की रिपोर्ट में वैश्विक स्तर पर 2010 से 2030 के बीच मुसलमानों की जनसंख्या के 35 प्रतिशत की दर से बढ़ने की बात कही गई है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि 2010 की तुलना में 2030 तक यूरोप में मुस्लिम जनसंख्या दोगुनी हो जाएगी, जिसके कारण यूरोपीय समाज में संकट उत्पन्न होगा। इसी प्रकार भारत में 1901 से लेकर 2011 तक की जनगणना में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर बहुत ज्यादा रही है। इस वृद्धि के पीछे कारण जनसंख्या वृद्घि को मजहब से जोड़कर देखा जाना तथा प्रजनन दर का अधिक होना है। ‘सच्चर समिति’ ने मुस्लिम जनसंख्या पर अध्ययन का जिम्मा राजमोहन सेठी को सौंपा था। सेठी ने इस विषय पर गहन अध्ययन के बाद माना कि मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है। इसके पीछे बड़ा कारण उन्होंने अशिक्षा एवं गरीबी के साथ मजहबी धारणाओं को भी माना।
ध्यान देने की बात यह भी है कि 1951 में हिंदू आबादी 84 प्रतिशत थी जो 2011 में घटकर 73 प्रतिशत हो गई, जबकि मुस्लिम आबादी 1951 में 9 प्रतिशत थी, जो कि 2011 में बढ़कर 14 प्रतिशत हो गई। यानी हिंदुओं की आबादी में 5 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि मुस्लिमों की आबादी में 5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। इसी प्रकार, हिंदुओं में जनसंख्या वृद्धि दर 16़11 प्रतिशत है, जो औसत जनसंख्या वृद्घि दर 17.72 से कम है। वहीं, मुस्लिम जनसंख्या वृद्घि दर 24.64 प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय औसत की तुलना में 8 प्रतिशत अधिक है। जनगणना के राज्यवार आंकड़े भी काफी चौंकाने वाले हैं। केरल में 1991 में 2011 के बीच हिंदू जनसंख्या 9 प्रतिशत की दर से बढ़ी है, जबकि मुस्लिम जनसंख्या 30 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। केरल में मुसलमानों की आबादी 23.33 से बढ़कर 26.56 प्रतिशत हो गई है, जबकि हिंदुओं की आबादी में कमी आई है। पहले यह 57 प्रतिशत थी, जो घटकर 54 प्रतिशत हो गई है। पूर्वोत्तर भारत में 1991 से 2011 के बीच हिंदुओं की जनसंख्या वृद्घि दर 10.89 प्रतिशत दर्ज की गई, जबकि मुसलमानों की जनसंख्या वृद्घि दर 29.59 है। अरुणाचल प्रदेश में तो स्थिति और ज्यादा विस्फोटक है। अरुणाचल में 1991 से 2011 के दौरान हिंदुओं की जनसंख्या वृद्घि दर 25 प्रतिशत दर्ज की गई, जबकि मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर अप्रत्याशित रूप से 126 प्रतिशत रही। वहीं, मिजोरम में इस दौरान हिंदू आबादी ऋणात्मक स्तर पर (-13 प्रतिशत) पहुंच गई, जबकि इसी समय मुस्लिमों की वृद्घि दर 22 प्रतिशत रही।
यदि देश के सीमांत जिलों को देखें तो आबादी का असंतुलन साफ देखा जा सकता है। असम के धुबरी, बरपेटा, गोलपाडा, हेलाकांडी में आबादी में मुसलमानों की आबादी 60 प्रतिशत से अधिक है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले की कुल आबादी का 66 प्रतिशत मुसलमान हैं, जबकि मालदा में इनकी आबादी 61 प्रतिशत है। इसी तरह, बिहार के किशनगंज में 67 प्रतिशत, कटिहार में 44 और अररिया में मुस्लिम आबादी 44 प्रतिशत है। ये आंकडेÞ उन दावों की पोल खोलते हैं जो राष्टÑीय हित के विरुद्ध समान जनसंख्या नीति के विरोध में किए जाते हैं। बात सिर्फ आंकड़ों की नहीं है, बल्कि इस बात की भी है कि जनसंख्या नीति विकास एवं संसाधन को ध्यान में रखकर बनानी होगी। संविधान यदि पांथिक मामलों में निरपेक्षता की नीति की बात करता है जो राज्य के नीति निर्देशक तत्व इस बात पर बल देते हैं कि देश की नीतियां राष्टÑीय हित में बनेंगी तथा सरकार तार्किक एवं वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देगी। अत: जनसंख्या नियंत्रण के पीछे मजहब को आधार बनाकर चलने के स्थान पर तार्किक एवं वैज्ञानिक चिंतन जो कि संविधान के 51(ए) के तहत मूल कर्तव्य तथा अनुच्छेद 38 एवं 44 के तहत राज्य के नीति निर्देशक तत्व में अन्तनिर्हित है, को अपनाने की जरूरत है। संविधान का अनुच्छेद 38 यह स्पष्ट घोषणा करता है कि राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।
अत: सामाजिक व्यवस्था को धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि लोक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए संविधान के आधार के अनुरूप चलाने एवं नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता है। राज्य द्वारा समान जनसंख्या नीति को लागू किया जाना चाहिए। वोट बैंक एवं छद्म पंथनिरपेक्षता की बजाए दृढ़ इच्छाशक्ति और राजनीतिक कुशलता से राष्टÑहित को केंद्र में रख कर नीति बनाने की आवश्यकता है। साथ ही सरकार का कर्तव्य यह भी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं बुनियादी संरचना पर राजकोषीय व्यय के लिए बजट बढ़ाया जाए ताकि लोगों में जागरूकता फैले, वैज्ञानिक चिंतन में वृद्धि हो। मत विशेष पर नहीं, बल्कि लोकहित आधार पर निर्णय लेने की जरूरत है, क्योंकि इसके कारण मत विशेष का भी भला होगा और राष्टÑ का भी भला होगा। यदि किसी भी तरह के अपराध में समान न्यायिक प्रक्रिया अपनाई जा सकती है तो राष्टÑीय हित को केंद्र में रखकर समान जनसंख्या नीति क्यों नहीं अपनाई जा सकती है? समय आ गया है कि राष्टÑीय संसाधनों और पर्यावरणीय चिंताओं को ध्यान में रखकर समान जनसंख्या नीति लाई जाए, ताकि सभी के लिए सामाजिक न्याय सुलभ हो सके।
(लेखक भारतीय मजदूर संघ के वरिष्ठ क्षेत्रीय संगठन मंत्री हैं)
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