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आजादी की आवाज

by
Feb 12, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Feb 2018 11:11:19


संस्थागत सामाजिक उपेक्षा और अत्याचार से आहत हैं पख्तून।  खैबर पख्तूनख्वा की भौगोलिक सीमा से निकलकर  चिंगारी का इस्लामाबाद जा पहुंचना पाकिस्तान के लिए एक बड़े खतरे का संकेत

अरविंद शरण

जब जुल्म हद से गुजर जाए तो सब्र के बांध के टूटने के लिए किसी भयानक सैलाब की जरूरत नहीं होती। आतंकवाद की नर्सरी में तबाही की फसल उगाते-उगाते पाकिस्तान खुद बारूद के ढेर पर जा बैठा है, जिसकी चिंगारी हाल ही में इस्लामाबाद में दिखाई दी। हजारों पख्तूनों ने इस्लामाबाद में कई दिनों तक लगातार प्रदर्शन किया और पाकिस्तान से आजादी के नारे लगाए। संस्थागत सामाजिक उपेक्षा व अत्याचार से उठी इस चिंगारी का खैबर पख्तूनख्वा की हदों से निकलकर इस्लामाबाद पहुंचना पाकिस्तान के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि उसने अपने लिए इसी तरह के हालात संघ प्रशासित कबाइली क्षेत्र (फाटा), खैबर पख्तूनख्वा, बलूचिस्तान से गुलाम कश्मीर तक में पैदा कर रखे हैं।
  पख्तूनों के इस शांतिपूर्ण विरोध की वजह थी 13 जनवरी को कराची में एक बेकसूर पख्तून नकीब महसूद की फर्जी मुठभेड़ में हत्या। पुलिस ने उसे लश्कर-ए-झांग्वी और आईएसआईएस से जुड़ा आतंकवादी करार दिया था। वैसे तो पख्तूनों ने इस तरह की फर्जी मुठभेड़ में अपने हजारों लोगों को मारे जाते देखा है, पर नकीब की हत्या ने उन्हें ‘बस और नहीं’ की मन:स्थिति में पहुंचा दिया और उन्होंने स्थानीय स्तर पर विरोध शुरू किया। अंतत: सिंध सरकार ने जांच आयोग बनाया, जिसने पाया कि मुठभेड़ फर्जी थी। इसके बाद लोगों ने 26 जनवरी को वजीरिस्तान से लंबा मार्च निकाला तथा इस्लामाबाद प्रेस क्लब के सामने धरने पर बैठ गए। प्रदर्शनकारियों ने कहा कि पाकिस्तान फाटा समेत सीमाई इलाकों, अफगानिस्तान से पख्तूनों के सफाए व आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी लड़ाई को कमजोर करने की मंशा से आतंकियों को न केवल पाल-पोस रहा है, बल्कि उनका मनमाफिक इस्तेमाल भी कर रहा है। साथ ही, उन्होंने ऐलान किया कि वे पाकिस्तान की ज्यादतियां और बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्हें उम्मीद थी कि मीडिया की चौखट पर अपनी बात कहने से शायद उनकी बात सुन ली जाए। पर मुख्यधारा मीडिया ने इसे पूरी तरह नजरअंदाज किया, जबकि सोशल मीडिया पर लोगों ने इस ‘मीडिया ब्लैक आउट’ पर रोष जताया। नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई के पिता जियाउद्दीन यूसुफ जिया ने ट्वीट कर निराशा जताई कि तीन दशक में पहली बार हजारों पख्तून नकीब को न्याय व इलाके में शांति के लिए इतनी दूर इस्लामाबाद आए और मुख्यधारा मीडिया ने इसे नजरअंदाज किया।
पख्तूनों से भेदभाव की गहरी जड़ें
दरअसल, पाकिस्तान में न केवल मीडिया, बल्कि सरकारी स्तर पर संस्थागत तरीके से पख्तूनों के साथ भेदभाव होता रहा है। इसके लिए दो उदाहरण ही काफी होंगे। पहला, इसी साल 27 जनवरी को पाकिस्तान की सीनेट में सभापति मियां रजा रब्बानी, सत्तापक्ष के नेता राजा जफरुल हक, नेता प्रतिपक्ष ऐतजाज अहसान समेत तमाम सदस्यों ने लाहौर में पख्तून व बलोच छात्रों से भेदभाव का मुद्दा उठाया और कोट लखपत जेल में बंद 180 से अधिक ऐसे छात्रों की रिहाई की मांग की। सदन में बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा और फाटा के सीनेटरों ने इसके लिए सत्ता पर हावी पंजाब लॉबी को जिम्मेदार ठहराया। ऐसे उदाहरण पेश किए गए जब बिना सबूत पख्तून और बलोच छात्रों को आतंकी बताकर जेल में डाल दिया गया। दूसरा उदाहरण स्पष्ट रूप से पंजाब में दिखता है। वहां सरकार की ओर से व्यापारियों आदि को निर्देश हैं कि वे अपने यहां काम करने वाले पख्तूनों की जानकारी स्थानीय पुलिस को दें ताकि सरकार को आतंकियों से निपटने में आसानी हो। कुछ-कुछ इसी तरह का अभियान इस्लामाबाद में भी चलाया जा रहा है। रक्षा विशेषज्ञ सेवानिवृत्त मेजर जनरल योगी बहल कहते हैं, ‘‘पाकिस्तान पख्तूनों को बलि के बकरे के तौर पर इस्तेमाल करता है। एक ओर वह लश्कर, हक्कानी नेटवर्क, अलकायदा व जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों को पालता और इनका मनमाफिक इस्तेमाल करता है, वहीं आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भागीदारी दिखाने के लिए बेकसूर पख्तूनों की हत्या करता है। सोचने की बात है कि आखिर एक भी बड़ा आतंकी पाकिस्तानी कार्रवाई में क्यों नहीं मारा गया? आतंकियों के खिलाफ जितने भी सफल आॅपरेशन हुए, वे अमेरिका ने किए।’’
अविश्वास का इतिहास
पाकिस्तान की सरकार शुरू से ही पख्तूनों को शक की निगाहों से देखती रही है। इसका कारण लोकप्रिय नेता खान अब्दुल गफ्फार खान की विचारधारा थी। सीमांत गांधी जिस इस्लाम की बात करते थे, वह जिन्ना व उनके बाद के हुक्मरानों को समझ में नहीं आया। इसलिए आजाद पाकिस्तान में पख्तूनों को कई बार सत्ता प्रायोजित नरसंहार के दौर से गुजरना पड़ा। पख्तूनों के प्रति अविश्वास का वही भाव आज भी कायम है। हां, इसकी ताजा अभिव्यक्ति आतंकवाद के नाम पर उनके सफाए की रणनीति है। रक्षा विशेषज्ञ सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर आर.पी. सिंह कहते हैं, ‘‘पाकिस्तान ने अफगानिस्तान सीमा से लगते पूरे इलाके को आतंकवाद की प्रयोगशाला बना रखा है। वह फाटा, खैबर पख्तूनख्वा से लेकर बलूचिस्तान तक आतंकियों के सफाए के नाम पर स्थानीय लोगों की हत्या कर रहा है। पाकिस्तान की इन नीतियों के कारण पूरा इलाका विद्रोह पर मजबूर हुआ। यह आग और फैलेगी।’’खैबर पख्तूनख्वा में चुनाव होने हैं और पख्तून आबादी की अपेक्षाओं को पूरा करने के नाम पर सत्ता में आई इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ काफी दबाव महसूस कर रही है। बीते चुनाव में 19.31 प्रतिशत वोट के साथ 124 सीटों वाली असेंबली में 48 सीटें जीतकर गठबंधन सरकार बनाने वाली पार्टी के प्रति लोगों में असंतोष है, क्योंकि वादे पूरे नहीं किए गए। नवाज शरीफ ने हाल ही में चुनावी भाषण में राज्य में गरीबी, बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं के अभाव को मुद्दा बनाया और पख्तून अस्मिता की भी बात की। लेकिन यह ऐसा मुद्दा है जिस पर पाकिस्तान की संघीय सरकारों ने पख्तूनों के साथ धोखा किया है। इस बार भी किसी पार्टी को बहुमत मिलने की संभावना नहीं, क्योंकि पख्तूनों के मन में पाकिस्तानी सत्ता के अत्याचार के प्रति असंतोष पिछले समय में और गहरा हुआ है।
खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान को पाकिस्तान ने जान-बूझकर आतंकवाद की आग में झोंका है, जिसकी तपिश पाकिस्तान की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था महसूस करने लगी है। इसके शांत होने की कोई सूरत इसलिए नहीं दिखती, क्योंकि पाकिस्तान ने इन इलाकों के लोगों के जुड़ाव की नली को सायास काट दिया है। असंतोष की यह आग आने वाले समय में और विकराल रूप धारण करेगी।    ल्ल    

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