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सामयिक मुद्दों पर मीडिया के रुख और रुखाई की परतें ख्ांगालता यह स्तंभ समर्पित है विश्व के पहले पत्रकार कहे जाने वाले देवर्षि नारद के नाम। मीडिया में वरिष्ठ पदों पर बैठे, भीतर तक की खबर रखने वाले पत्रकार इस स्तंभ के लिए अज्ञात रहकर योगदान करते हैं और इसके बदले उन्हें किसी प्रकार का भुगतान नहीं किया जाता।
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चैनलों ने सांसद हेमामालिनी से पूछे गए सवाल और उनके जवाब में घालमेल कर उसे ‘विवादित’ बता दिया
शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई और उनके जैसे पत्रकारों की एक जानी-पहचानी टोली पिछले कुछ समय से जात-पात की जो आग सुलगाने में जुटी थी, वह आखिरकार भड़क उठी। यह आग इसलिए है ताकि कांग्रेस उस पर अपनी राजनीति की रोटियां सेंक सके। पिछले स्तंभ में हमने बताया था कि मीडिया का यह वर्ग सरकार से लेकर अदालत तक के फैसलों को जातीय रंग देने में जुटा है। तभी यह शक पैदा होने लगा था कि हिंदू एकता को तोड़ने के लिए जातिवाद का जहर घोलने का षड्यंत्र चल रहा है। कांग्रेस को सत्ता दिलाने के लिए यह तबका नक्सलियों, अलगाववादियों, जिहादियों और मिशनरियों के साथ तालमेल बिठाकर चल रहा है। यही कारण है कि पुणे में हुई अप्रिय घटनाओं को कई अखबारों और चैनलों ने ‘हिंदू-दलित दंगों’ का नाम दिया। दरअसल यह कांग्रेस-परस्त तबका तीन तलाक पर कानून बनाए जाने से अंदर ही अंदर भड़का हुआ है। तीन तलाक पर एनडीटीवी और इंडिया टुडे जैसे चैनलों की बहसों पर गौर करें तो बात समझ में आ जाती है। खुद को सबसे प्रगतिशील बताने वाला एनडीटीवी तो इस मामले में खुलकर कठमुल्लों के साथ है। उसने मुस्लिम महिलाओं की पूरी टीम लगा दी जो यह बता रही थी कि कानून में सजा देना गलत होगा। एनडीटीवी ही नहीं, लगभग हर चैनल ने कट्टरपंथी मुसलमानों को खुलकर जहर उगलने का मौका दिया। तथाकथित प्रगतिशील मीडिया जानते-बूझते सच को नकार कर झूठ परोसने को अपना कर्तव्य मानता है।
मुंबई में कमला मिल परिसर में आग की घटना पर मीडिया की प्रतिक्रिया बेहद विचित्र थी। दुर्घटना में मारी गई एक लड़की के वीडियो को जिस तरह से चैनलों ने बार-बार दिखाया वह बेहद असंवेदनशील था। पीड़ित परिवारों की निजता को लेकर खुद टीवी चैनलों के कुछ दिशानिर्देश हैं, लेकिन वे कभी उनका पालन नहीं करते। हर दुर्घटना के बाद चैनलों को तलाश रहती है एक ऐसे नेता की जिसके बयान को वे ‘विवादित’ बताकर हंगामा मचा सकें। सांसद हेमामालिनी से एएनआई के संवाददाता ने मुंबई हादसे पर प्रतिक्रिया पूछी तो उन्होंने कहा, ‘‘सरकारी एजेंसियां अक्सर अग्निसुरक्षा जैसे मामलों में ढिलाई बरतती हैं। ऐसी ही लापरवाहियों के कारण दुखद हादसे होते हैं।’’ अगला सवाल था- मुंबई में पिछले दिनों में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं उन पर आप क्या कहेंगी? तो इस पर हेमामालिनी का जवाब था- ‘‘मुंबई की आबादी बहुत बढ़ गई है, नागरिक सुविधाओं पर बहुत बोझ है, इसलिए मुंबई ही नहीं, बल्कि हर शहर की आबादी वहां के बुनियादी ढांचे की क्षमता के हिसाब से नियंत्रित की जानी चाहिए।’’ चैनलों ने पहले सवाल और दूसरे जवाब को आपस में जोड़कर हेमामालिनी के बयान को ‘विवादित’ करार दिया। मतलब यह कि पत्रकार जो सुनना चाहे अगर नेता वह न बोले तो उसके बयान को फौरन ‘विवादित’ बता दिया जाएगा। दर्शकों के साथ यह मीडिया की ठगी है।
हिमाचल प्रदेश में राहुल गांधी के कार्यक्रम के दौरान कांग्रेस पार्टी की महिला विधायक ने ड्यूटी कर रही एक महिला कॉन्स्टेबल को थप्पड़ जड़ दिया। ज्यादातर चैनलों और अखबारों ने इस खबर को थोड़ा-बहुत दिखाकर कर्तव्य पूरा कर लिया। हिंदी चैनलों ने तो इसे लगभग पूरी तरह दबा ही दिया, जिन्होंने दिखाया भी तो यह नहीं बताया कि वह विधायक किस दल की है। कहीं किसी ने इस घटना को कांग्रेस की संस्कृति और कुर्सी के नशे से नहीं जोड़ा। इंडिया टुडे चैनल पर संवाददाता यह समझाने में लगा था कि वास्तव में इस घटना से राहुल गांधी को बहुत ठेस पहुंची है। सोचिए, अगर ऐसी ही हरकत किसी दूसरी पार्टी के विधायक ने की होती तो क्या तब भी मीडिया इतनी नरमी दिखाता।
उधर, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने राज्यसभा के सपने देख रहे कई पत्रकारों को ठेंगा दिखा दिया। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि केजरीवाल ने राज्यसभा के नाम पर कई बड़े पत्रकारों और संपादकों का भरपूर शोषण किया। उनसे अपना स्तुतिगान करवाया और अब काम निकलने के बाद लात मार दी। लेकिन केजरीवाल सरकार के विज्ञापनों का लालच अब भी उन्हें ‘बंधुआ’ बनाए हुए है। इस जाने-पहचाने खेल को समझना जरूरी है ताकि मीडिया के हाथों खुद को ठगे जाने से बचाया जा सके।
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