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लोकतांत्रिक सरकार का हर स्तर पर विरोध करने वाले खुद फासीवादी हैं। देश के लिए असली खतरा वही हैं। वामपंथ की चाशनी में लिपटे जजों की मंशा अगर सही होती तो वे कानून मंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलते। लेख लिखकर अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बात कहते, सीधे मीडिया के सामने क्यों आए?
वामपंथ अपने आम कार्यकर्ता नहीं बना सका, लेकिन उसने विश्वविद्यालय, न्यायपालिका, मीडिया, थिएटर, साहित्य, कला, फिल्म, इतिहास और शिक्षा में कैडर तैयार किया। …और आज परिणाम आपके सामने है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट का गठजोड़ ही यही था कि कांग्रेस देश को लूटेगी और वामपंथी देश को खोखला करेंगे। दीमक की तरह …। ‘लोकतंत्र खतरे में’ कह कर जिस तरह एक लोकतांत्रिक सरकार का वे लोग हर स्तर पर विरोध कर रहे हैं, जो स्वयं फासीवादी हैं, असल में लोकतंत्र और देश के लिए खतरा वही हैं। सत्ता में आने पर अपनी पसंद के लोगों को चुने हुए पदों पर नियुक्त करना पूरी तरह लोकतांत्रिक है, लेकिन याद कीजिये इन लोगों ने किस तरह गजेंद्र चौहान को अध्यक्ष बनाने का विरोध किया था। क्या छात्र फैसला करेंगे कि संस्थान का अध्यक्ष कौन होगा? क्या पूर्ववर्ती सरकारों ने अपनी पसंद के लोगों को नियुक्त नहीं किया था? उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू यादव की सरकारों ने जातिगत आधार पर नियुक्तियां कीं। तब क्या कहीं किसी तरह का विरोध हुआ? याद कीजिये अखलाक का मामला… किस तरह एक मामूली कानून व्यवस्था के मामले को अवार्ड वापसी गैंग ने मुस्लिमों पर अत्याचार बता कर पूरी दुनिया में देश को बदनाम किया और छवि को खराब किया और आज तो सारी हदें पार कर दी गर्इं। क्या जजों को इस तरह मीडिया के सामने आना चाहिए था? क्या यह खतरनाक चलन नहीं है? क्या कल ऐसा नहीं होगा? असल में वामपंथ की चाशनी में लिपटे इन जजों ने आज जो किया, वह लोकतंत्र के लिए असली खतरा है। अगर इन जजों की मंशा सही होती तो ये कानून मंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलते या कोई जज लेख लिख सकता था और अप्रत्यक्ष रूप से बात कह सकता था। लेकिन इस तरह से सीधे मीडिया में आकर लोकतंत्र को सही मायने में कमजोर करने का प्रयास किया गया है। सचिन सिंह गौड़ (फेसबुक वॉल से)
जेएनयू के पढ़े-लिखों का ‘कॉपीराइट’
बहुत दिनों से मन कर रहा था कि जेएनयू पर कुछ लिखूं। हालांकि कुछ ‘नफजलवादियों’ और ‘बंडल आयोग’ के सदस्यों को लगता है कि जेएनयू पर केवल उन्हीं का कॉपीराइट है। लेकिन उनका भ्रम तोड़ना जरूरी है। कुछ ऐसे लोग हैं, जो उसमें पढ़ाई कर लेने से खुद के स्वयंभू विद्वान होने का दावा करते हैं और खुद को विद्वता की अथॉरिटी मानने लगे हैं और बाकी लोगों को मूर्ख समझते हैं। ऐसे लोग कूप मंडूक हैं।
पंत, प्रसाद, निराला, रहीम, कबीर और ऐसे तमाम नाम हैं जिनके पास बड़ी डिग्रियां नहीं हैं। इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्होंने स्कूल-कॉलेज का मुंह तक नहीं देखा, तो क्या वे सब मूर्ख हैं? जैसा कि कुछ कथित बुद्धिजीवी दावा करते हैं, बिल्कुल नहीं। मूर्ख तो ये जिहादी और माओवादी मानसिकता के लोग हैं जो 6-6 साल से डिग्री तक नहीं ले पाए हैं।
सोचिए जरा, ये कैसे छात्र हैं और कैसे इनके प्रोफेसर? सचिन तेंडुलकर और धोनी भी स्कूल ड्रॉपआउट हैं, लेकिन ये सब 40 की उम्र से पहले कीर्तिमान बना कर रिटायर हो चुके हैं। लेकिन जेएनयू के ये मूर्ख छात्र 40 की उम्र में डिग्रियां तक नहीं ले पाए हैं। इसलिए ऐसे बड़बोले लोगों को ऐसी खुशफहमी नहीं पालनी चाहिए कि वे जेएनयू के पढ़े हैं तो पांडित्य की ठेकेदारी उन्हीं के पास है।
मैं यह नहीं कहता कि जेएनयू से अच्छे लोग नहीं निकले हैं, लेकिन जेएनयू से निकले ऐसे जाहिलों की भी कमी नहीं है जो मूर्खतापूर्ण बातें करते हैं। यह आज की कड़वी सच्चाई है कि जेएनयू राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का अड्डा बन गया है और इसलिए उसे लोग ‘जूनियर नक्सली यूनिवर्सिटी’ भी कहने लगे हैं। अब भी जो लोग जातिवाद और दलितों के नाम पर समाज को बांटने पर आमादा हैं, वे पूर्वाग्रह से बाहर निकल कर उनके कल्याण की बात करें, नहीं तो उनकी बिरादरी के लोग ही उन्हें जाति-बदर कर देंगे।
गोविंद चंद्र दास (फेसबुक वॉल से)
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