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महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, पूर्व संपादक पाञ्चजन्य
पाञ्चजन्य देश का अकेला ऐसा साप्ताहिक है, जो समय-समय पर देश-दुनिया सहित अपने पाठकों को उन घटनाओं, मुद्दों के बारे में सच बताता है, जिनकी तस्वीर जानबूझकर धुंधली रखी जाती है। अपनी यात्रा के शुरुआती दिनों से आज तक पाञ्चजन्य का वही तेवर और स्वर गूंज रहा है
पाञ्चजन्य के आरंभिक वर्षों के दौरान मेरा जुड़ना हुआ। पहले मासिक पत्रिका राष्टÑधर्म निकाली गई, फिर साप्ताहिक पाञ्चजन्य जिसके संपादक श्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। गांधी जी की हत्या के बाद रा.स्व.संघ पर प्रतिबंध लगने के कारण मैं भी जेल में रहा। बाद में दैनिक स्वदेश शुरू हुआ। यह दैनिक बहुत सफल रहा, परंतु आर्थिक कठिनाइयों के कारण दो-ढाई साल के बाद यह बंद हो गया।
नानाजी देशमुख तथा पं. दीनदयाल उपाध्याय के साथ हम लोग लखनऊ सदर स्थित अटल रोड पर एक बड़ी सी कोठी में रहते थे। इस कोठी के बड़े से केंद्रीय हॉल में दफ्तर था। बिल्कुल पिछले हिस्से में दो छोटी कोठरियां थीं, जिसमें से एक में अटल जी और कलिंद शास्त्री तथा दूसरे में मैं और गिरीश चन्द्र मिश्र जमीन पर दरी बिछाकर सोते थे। बार्इं तरफ उतनी ही छोटी कोठरी में नानाजी, संस्थान के प्रबंधक अपेक्षाकृत अधिक साफ-सफाई से रहते थे। दीनदयाल जी का आना-जाना लगा रहता था। रामलाल पाचक सभी के लिए खाना बनाता था। बगल की मुख्य सड़क पर काफी लंबी बैरकनुमा जगह में प्रेस था, जिसके कोने वाले छोटे-से कमरे में हम पत्रकार बैठा करते थे। टेलीप्रिंटर यहीं लगा था, जो शाम होने के बाद धड़ाधड़ खबरें देना शुरू कर देता था और हम आपस में खबरें बांट लेते थे। फिर खबरों का चुनाव करते, उनका संपादन और अनुवाद करते और पेज बनाने में जुट जाते थे। यह क्रम देर रात तक चलता था। सुबह पांच बजे शहर का स्थानीय संस्करण हमारे पास पहुंच जाया करता था। सबेरे आठ बजे के लगभग अटलजी के साथ मैं जमीन पर उकड़ू बैठकर दूसरे अखबारों से तुलना करता कि हम उनसे पीछे तो नहीं हैं, कुछ खास रह तो नहीं गया है, इत्यादि। चूंकि अटल जी बहुत अच्छे वक्ता थे, इसलिए उन्हें जनसंघ के जगह-जगह होने वाले आयोजनों में वक्तव्य देने के लिए भेजा जाता था। इस कारण से वे ज्यादातर बाहर ही रहते थे। बाद के वर्षों में रा.स्व.संघ के सरकार्यवाह श्री एकनाथ रानडे ने मुझे दिल्ली बुला लिया। इसके बाद मुझे एक कार्यक्रम के आयोजन के लिए बंबई भेजा गया।
पाञ्चजन्य में स्टाफ पर्याप्त था। दैनिक आज बनारस से खास तौर से श्री कलिंद शास्त्री को लाया गया था, जो समाचार संपादक थे। कार्यालय में रात को सबसे देर तक मैं ही रुकता था, क्योंकि काम के सिलसिले में देर रात तक रुकना मुझे अच्छा लगता था और इसी कारण अपनी कोठरी में सबसे देर से पहुंचता था। इस अवधि में ज्ञानेन्द्र सक्सेना पाञ्चजन्य के संपादक रहे, जिन्हें एक कमरा मिला हुआ था। वे उसी कमरे में रहते और सोते थे और कार्य भी करते थे। बाद के वर्षों में मुझे संपादक बनाया गया। इस दौरान मैंने बड़े-बड़े लेखकों से संपर्क किया और उनसे पाञ्चजन्य के लिए लिखवाया भी। इसके अलावा, मैंने कुछ विशिष्ट सामग्री जुटाई और उनका अनुवाद भी किया। मैंने पाञ्चजन्य के कुछ विशेषांक भी निकाले। ये विशिष्ट अंक थे- राजनीति अंक, अर्थ अंक और समाज अंक, जिन्हें काफी सराहा गया। इन अंकों को समालोचना के लिए दक्षिण भारत में भी भेजा। याद आता है, स्वदेश मित्र मेें इनके विषय में कुछ प्रकाशित भी हुआ था। हिंदी की बड़ी माने जाने वाली पत्रिकाओं में भी इन अंकों की प्रशंसा की गई। यहां मैं उल्लेख करना चाहूंगा कि हिंदी में अर्थशास्त्र पुस्तकों के लेखक श्री भगवान दास केला ने अर्थ अंक की प्रशंसा की थी और वे मुझसे मिलने लखनऊ भी आए थे। मेरे और भी कुछ साहित्यिक संबंध बने।
आज पाञ्चजन्य देश का अकेला साप्ताहिक है, जो देश ही नहीं, दुनिया के लिए बहुत कुछ कर सकता है। पाञ्चजन्य अर्थात ऋषिकेशी जो श्रीकृष्ण का शंख है। श्रीकृष्ण-आंगिरस के शिष्य थे, जिन्होंने आत्मा की अमरता के विचार को जन्म दिया। उन्होंने मथुरा से सुदूर द्वारका तक कार्य किया और महाभारत में पांच पांडवों को सौ कौरवों के विरुद्ध विजय दिलाई। आज भी वही समय चल रहा है। परिवर्तन भी हो रहा है, जो लगता है, स्थायी सिद्ध होगा।
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