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श्री धनेश्वर पंडित जैसे शिक्षक विरले ही होते हैं। 37 वर्ष तक उन्होंने न केवल पढ़ाया, बल्कि समाज के सहयोग और बालकों के संकल्प से विद्यालय भवन का निर्माण भी कराया। इन दिनों वे अध्यात्म के जरिए समाज को जगा रहे हैं
अरुण कुमार सिंह
बात 1980 की है। मैं अपने गांव बाबूपुर (जिला-गोड्डा, झारखंड) के प्राथमिक विद्यालय में चौथी कक्षा में पढ़ता था। उन दिनों विद्यालय में श्री धनेश्वर पंडित नाम के एक ही शिक्षक थे और 100 से अधिक छात्र। बड़ा-सा एक कमरा था, उसी में पहली से लेकर पांचवीं कक्षा तक के सभी छात्र बैठते। पंडित जी बारी-बारी से सभी कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाते। पढ़ाने की उनकी अपनी ही शैली थी। वे अपने सामने कभी कोई किताब नहीं रखते थे। बच्चों से किताब खुलवाते और कहते थे कि देखो, उस अध्याय में यह लिखा हुआ है और फिर उसी को सरल भाषा में बताते। उनकी शैली इतनी अच्छी थी कि वे जो एक बार बता देते, वह आसानी से समझ में आ जाती थी। वे हिंदी के पर्यायवाची शब्द दोहे की शैली में रटवाते थे। उन्होंने ‘आग’ के पर्यायवाची शब्दों को इस रूप में गूंथा था- अग्नि, आग, पावक, अनल, ज्वाला। इसी तरह ‘घोड़ा’ के लिए- अश्व, घोटक, हय, तुरंग, बाजी। इन शब्दों का ऐसा सरल क्रम किसी किताब में नहीं मिलेगा। यह शैली उनकी अपनी थी। इसी के कारण उन दिनों मैंने जो शब्द कंठस्थ किए, वे अभी तक याद हैं। इसलिए आज 37 वर्ष बाद भी पंडित जी मेरे मन मंदिर में स्थापित हैं।
धनेश्वर सर जैसा शिक्षक आज तक नहीं मिला। उनकी सिखाई बातें रोजाना काम आती हैं। उन्होंने नहाने, खाने और बड़ों से कैसे
व्यवहार करें के साथ-साथ किताबी शिक्षा भी दी।
— गोपाल, निवासी, बाबूपुर
इस विद्यालय में पंडित जी 1971 में आए थे। उन्होंने नौकरी की शुरुआत इसी विद्यालय से की थी। जब वे आए थे तब विद्यालय गांव के एक निजी मकान में चलता था। वहां कुछ दिन पढ़ाने के बाद उन्होंने ग्रामीणों के सामने एक प्रस्ताव रखा कि क्यों नहीं, विद्यालय का अपना भवन हो। ग्रामीणों को उनका यह प्रस्ताव पसंद आया, लेकिन सबसे बड़ा सवाल था जमीन देगा कौन! उन्होंने इस सवाल के उत्तर में कहा कि प्रयास करने में क्या जाता है। ग्रामीणों ने उन्हें ही प्रयास करने का दायित्व दे दिया। इसके बाद वे जमीन की तलाश में लग गए। कई लोगों से बात की। अंत में एक सज्जन तैयार हो गए। पक्की सड़क के किनारे उनका एक गड्ढानुमा भूखंड था। उन्होंने वही भूखंड विद्यालय को दान दे दिया। भूखंड मिलते ही पंडित जी ने गांव के युवकों को श्रमदान के लिए प्रेरित किया। जब भी युवकों को समय मिलता, वे उस गड्ढे को भरने में लग जाते। देखते ही देखते भवन बनाने लायक जगह तैयार हो गई। पंडित जी के प्रयास से ही एक समाजसेवी ने र्इंटें दीं और ग्रामीणों ने कुछ पैसे की मदद की। इस तरह विद्यालय की दीवार खड़ी हो गई। पक्की छत डालने लायक पैसा जमा नहीं होने पर खपरैल की छत बनाने का निर्णय हुआ। मिट्टी के खपरैल बनवाए गए। उन खपरैलों को पकाने के लिए विद्यालय के छात्रों को अपने-अपने घर से गोयठा (उपले) लाने को कहा गया। इस तरह 1975 में एक कमरे का वह विद्यालय तैयार हो गया। यानी पंडित जी के प्रयास से लगभग चार साल में विद्यालय का अपना भवन हो गया। 1975 में नए भवन में ही पढ़ाई शुरू हो गई। भवन के बाद जो जमीन बची थी, उसमें अभी गड्ढा ही था। उस गड्ढे के कारण स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर झंडा फहराने में दिक्कत आई। उस दिक्कत को भी पंडित जी ने अपनी शैली में ही खत्म किया। विद्यालय के साथ ही एक व्यस्त सड़क है और सड़क पार एक नदी। विद्यालय में तीन बजे तक पठन-पाठन होता और उसके बाद बच्चे चार बजे तक नदी के किनारे खेलते। पंडित जी खुद भी बच्चों के साथ रहते। खेल के समय में वे अपने को भी एक खिलाड़ी ही समझते।
एक दिन उन्होंने निर्णय लिया कि खेलकूद के समय में चौथी और पांचवीं कक्षा के बच्चे कुछ समय के लिए श्रमदान करेंगे। विद्यालय में बैठने के लिए छात्र घर से जूट की बोरी लेकर आते। पंडित जी ने बच्चों के कुछ जोड़े बनाए और उन जोड़ियों को एक-एक बोरी पकड़ाते हुए कहा कि नदी किनारे से बालू लाकर इस गड्ढे में डालो। आज्ञा मिलते ही छात्र बोरी से बालू लाकर गड्ढे में डालने लगे। खासकर सर्दियों के दिनों में यह काम होता था। बच्चों को सड़क पार करने में कोई दिक्कत न हो, इसलिए पंडित जी स्वयं सड़क के किनारे खड़े होकर यातायात को नियंत्रित करते। पंडित जी के इस कार्य को देखने के लिए वहां राहगीरों की भीड़ जमा हो जाती। एक समय तो ऐसा आया कि बच्चों को बालू लाते देखकर गाड़ी वाले खुद ही रुक जाते। यह काम लगभग दो वर्ष तक चला। उन छोटे-छोटे छात्रों ने ही पूरे भूख्ांड को बालू से पाट दिया। यानी विद्यालय का अपना मैदान तैयार हो गया। उसी मैदान में बच्चे आज भी खेलकूद करते हैं और अन्य कार्यक्रम भी होते हैं।
पंडित जी सरकारी शिक्षक थे। वे चाहते तो केवल बच्चों को पढ़ाते और घर चले जाते। इसके लिए उन्हें कोई कुृछ कह भी नहीं सकता था। लेकिन वे कुछ दूजे किस्म के शिक्षक थे। उन्होंने विद्यालय को मंदिर और छात्र-छात्राओं को देवी-देवता माना। एक पुजारी की भांति उन्होंने उन देवताओं की पूजा की। विद्यालय से छुट्टी के बाद वे आसपास के गांवों में जाते और जो बच्चे स्कूल नहीं आते, उनके माता-पिता से मिलते थे। उन्हें पढ़ाई का महत्व बताते और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए कहते। यदि किसी बच्चे के पास पढ़ने की सामग्री नहीं होती या कपड़े नहीं होते तो वे उसके लिए किताब, कॉपी और कपड़े लाते। देते समय उनकी शर्त एक ही होती थी कि नियमित स्कूल आओगे। चॉक, डस्टर तो वे खरीदते ही, साथ में पीने का पानी रखने के लिए घड़े का इंतजाम भी करते।
स्वतंत्रता दिवस के दिन वे बच्चों के साथ प्रभातफेरी लगाते। जिन-जिन गांवों के बच्चे स्कूल में पढ़ते थे उन गांवों में जाते। लौटने के बाद झंडा फहराते और बच्चों को जलेबी बांटते। एक जलेबी पाकर बच्चे इतने खुश होते कि मानो उन्हें परम सुख मिल गया। गणतंत्र दिवस के अवसर पर खेलकूद प्रतियोगिता करवाते और सफल बच्चों को पुरस्कृत भी करते। इन सब पर जो भी खर्च होता उसका वहन स्वयं करते। इन सबके पीछे उनका एक ही उद्देश्य होता था, बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल आएं। समय के वे बड़े पाबंद थे। सुबह ठीक 10 बजे विद्यालय पहुंच जाते। सबसे पहले प्रार्थना होती थी। प्रार्थना के बाद बच्चे अपनी-अपनी जगह बैठ जाते। 10 बजे के बाद आने वाले बच्चे उनकी अनुमति के बिना कमरे में प्रवेश नहीं कर सकते थे। प्रार्थना के बाद हाजिरी होती थी। वे नाम बोलते और बच्चे ‘उपस्थित महाशय’ कह कर बैठ जाते। लेकिन जो बच्चे किसी कारण से पिछले दिन विद्यालय नहीं आते थे, उन्हें बैठने की इजाजत नहीं थी। ‘उपस्थित महाशय’ बोलने के बाद वे खड़े रहते। जब सभी बच्चों की हाजिरी हो जाती तब वे उन बच्चों से विद्यालय नहीं आने का कारण और गृह कार्य हुआ है या नहीं, उसके बारे में भी पूछते। जो बच्चे गृह कार्य करके आते उन्हें तो वे छोड़ देते थे, लेकिन जो गृहकार्य नहीं करके आते, उन्हें दंड देते। दंड था गृहकार्य पूरा किए बिना घर नहीं जाना है। ऐसे बच्चे छुट्टी के बाद स्कूल में ही गृहकार्य पूरा करते और उनके लिए वे खुद देर तक बैठते। जो बच्चे अनुशासन में रहकर पढ़ते, उनके लिए वे पिता के समान और जो उनके अनुशासन को तोड़ता, उसके लिए एक कड़क शिक्षक
हो जाते।
उन्होंने एक कमरे के विद्यालय में लगभग 100 बच्चों को 1983 तक अकेले पढ़ाया। इसके बाद उनका स्थानांतरण दूसरे विद्यालय में हो गया। आज उस विद्यालय का आलीशान दो मंजिला भवन है, पर उस हिसाब से बच्चे नहीं। उनके जैसा कोई शिक्षक भी नहीं। इसलिए आज भी गांव वाले पंडित जी को याद करते हैं। उनके एक शिष्य गोपाल कहते हैं, ‘‘धनेश्वर सर जैसा शिक्षक आज तक नहीं मिला। उनकी सिखाई बातें रोजाना काम आती हैं।’’ 2008 में पंडित जी सेवानिवृत्त हो गए। अब वे श्री महर्षि में ही संत मत, गोड्डा जिले के सचिव हैं। इस मत के भक्त गांव-गांव में हैं। इस मत के कारण बिहार और झारखंड के एक बड़े हिस्से में रहने वाले लोग मांस-मदिरा छोड़ चुके हैं। इसमें पंडित जी जैसे अनेक लोगों का बड़ा योगदान है। ल्ल
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