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वे सिर्फ कक्षा में ही नहीं पढ़ाते कुदरत के बीच छात्राओं को कला के विभिन्न पक्ष समझाते हैं। छात्राएं भी जैसे उनकी बेटियां हों। यही वजह है कि उनकी ये ‘बेटियां’ उनकी क्लास की बाट जोहती हैं और फिर ‘राज सर’ रंगों के संसार में खोए अपने चुटीले अंदाज में परिधान सज्जा की बारीकियां ऐसे सिखाते हैं कि लगता ही नहीं, वे कोई विषय पढ़ा रहे हैं
निष्ठा जैन
राजस्थान के टोंक जिले के निवाई कस्बे के पास लड़कियों को हर तरह की आधुनिक शिक्षा देने वाला वनस्थली विद्यापीठ अपनी पंचमुखी शिक्षा के लिए खासा मशहूर है। पंचमुखी के 5 आयाम शिक्षा के साथ ही छात्रा के सर्वांगीण विकास की चिंता करते हैं। यहां का माहौल और परिसर जितना हरा-भरा है, उतना ही यहां पढ़ाने वाले शिक्षक-शिक्षिकाओं का अपनी छात्राओं के साथ घर-परिवार जैसा अपनापन है। यहां की सड़कों, वीथियों और विभागों के नाम भी भारतीय इतिहास और संस्कृति में रचे-पगे हैं—वीरबाला मैदान हो या लक्ष्मीबाई मैदान, जम्मू-कश्मीर मार्ग हो या पूर्वांचल मार्ग; सूर्य मंदिर, वाणी मंदिर या फिर शिल्प मंदिर। यूं तो यहां के ज्यादातर शिक्षक-शिक्षिकाओं में कुछ न कुछ अनूठा है ही, लेकिन वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला को समर्पित विभाग यानी शिल्प मंदिर में किसी छात्रा से पूछें कि संबादित्य सर से मिलना है, कहां मिलेंगे? तो बहुत मुमकिन है वह आपको मीठी मुस्कान के साथ उनके कमरे तक छोड़कर आए। इतने प्यारे हैं उनके संबादित्य सर उनके लिए।
संबादित्य राज। मूलत: शांतिनिकेतन (प. बंगाल) में 1977 में उस परिवार में जन्मे जिसमें उनके दादा और फिर पिताजी शिक्षक ही रहे थे। विश्वभारती विश्वविद्यालय से टेक्सटाइल डिजाइनिंग की पढ़ाई करने के बाद राज सर 2007 से वनस्थली में टेक्सटाइल डिजाइनिंग, फेब्रिक डिजाइनिंग, डार्इंग के जरिए कपड़ों की कताई, रंगाई, बनाई और खादी के नए-नए चलन के कपड़े तैयार करने की कला सिखाते आ रहे हैं। तो? कहने वाले कहेंगे, इसमें इतना खास क्या है, शिक्षक हैं तो अपना विषय पढ़ाएंगे ही! न, खास है कुछ इसमें। खास है कि राज सर सिर्फ क्लास के कमरे में ही नहीं पढ़ाते, बल्कि छात्राओं को प्रकृति की रंग-बिरंगी दुनिया के बीच उनकी सहूलियत के हिसाब से पढ़ाते-समझाते हैं। एक नाता है उनके और उनकी छात्राओं के बीच। मानो, सब जैसे उनकी बेटियां हैं। और यही वजह है कि उनकी ये ‘बेटियां’ उनकी क्लास की बाट जोहती हैं और फिर राज सर रंगों के संसार में खोए अपने चुटीले अंदाज में कला की बारीकियां ऐसे सिखाते हैं कि लगता ही नहीं, वे कोई विषय पढ़ा रहे हैं। यही वजह है कि यहां की छात्राओं को राज सर पर पूरा भरोसा है। कोई दिक्कत हो तो राज सर, कोई चीज समझ न आ रही हो तो राज सर, विद्यापीठ में कहीं किसी काम में अड़चन हो तो सलाह भी राज सर से मांगी जाती है।
शिल्प मंदिर में चपरासी से लेकर डीन तक, सब उनके मुरीद दिखते हैं। शायद इसी वजह से विभाग में दोस्ताना माहौल नजर आता है। लगातार गुलजार रहता है हर गलियारा छात्राओं की चहल-पहल और जीवंतता से। संबादित्य सर के साथी शिक्षक तो उनके फन के मुरीद हैं ही, विद्यापीठ के अन्य शिक्षकों और कर्मचारियों में भी उनके प्रति एक लगाव जैसा है। राज सर सिर्फ अपनी शिक्षण कला के कारण ही नहीं जाने जाते, बल्कि एक ‘वाइल्डलाइफ’ फोटोग्राफर के नाते भी उनकी अलग पहचान है। विद्यापीठ में पक्षियों की शायद ही कोई प्रजाति होगी जिसकी शानदार उड़ान उन्होंने अपने लंबे से लैंस वाले कैमरे में कैद न की हो। भारत का शायद ही कोई पक्षी विहार होगा जहां कई-कई दिन लगाकर उन्होंने नायाब प्रजातियों की सैकड़ों तस्वीरें न उतारी हों, शायद ही कोई अभयारण्य होगा जहां के जानवरों को पास से निहारकर उनके रोजमर्रा जीवन को तस्वीरों की कड़ियों में न पिरोया हो। उनका यह शौक तो ऐसा है कि उन्होंने सोशल साइट पर अपनी फोटोग्राफी और साथी शौकीनों को मिलाकर एक समूह ही बनाया हुआ है। और उनका ये जुनून ही है, जो नीदरलैंड की ‘इंडियाना’ पत्रिका को स्वीकार करना पड़ा और आज उसमें उनकी वाइल्डलाइफ की तस्वीरें छपती हैं। इसके अलावा, वे उत्तराखंड के कितने ही गांवों में जाकर वहां की ग्रामीण महिलाओं को सूत कताई, बुनाई, रंगाई के गुर सिखा चुके हैं। प्राकृतिक रंगों से कपड़े रंगने की उनकी कला को तो खूब सराहना मिली है। विद्यापीठ में तीज-त्योहार पर तो राज सर और उनकी ‘बेटियों’ की बड़ी मांग रहती है, मंडप, मंच सजाने से लेकर उत्सव के आयोजन तक में। लेकिन अपनी पत्नी और 6 साल के मोबाइल, इंटरनेट में माहिर बेटे रुद्रादित्य के साथ रंगों के संसार में खोए रहने वाले राज सर को यकायक गले के कैंसर ने आ घेरा था। गनीमत यह कि बीमारी अभी शुरुआती स्तर पर थी। तो जयपुर से लेकर मुंबई के टाटा अस्पताल तक के न जाने कितने ही चक्कर लगाने पड़े, लेकिन आखिरकार बीमारी को भी हार माननी पड़ी। कितनी ही ‘बेटियों’, साथियों और परिवार के बड़ों की दुआओं के सामने बीमारी की क्या मजाल जो टिकती। दो साल की जद्दोजहद के बाद पूरी तरह ठीक होकर वे फिर से, पहले से ज्यादा ऊर्जा के साथ शिल्प मंदिर में अपनी क्लास से लेकर गलियारों तक में अपनी उसी जीवंत मुस्कुराहटों के साथ लौटे। किशोर कुमार और मन्ना डे के गीतों को अपनी सधी आवाज में गाने वाले राज सर को संगीत का शौक विरासत में मिला और अपने इस हुनर को वे सोशल साइट्स पर साझा भी करते रहते हैं। जिंदगी उनके लिए एक पहेली जैसी है, जिसकी गुत्थियों को वे समझना भी नहीं चाहते, क्योंकि दूसरों के लिए कुछ करने और अपने शौक में खुद को डुबोए रखने के बाद उन्हें इस सब की फुर्सत ही कहां मिलती है। ल्ल
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