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भारतीय सैन्य इतिहास के नायक रहे और पद्म विभूषण से सम्मानित मार्शल आॅफ एयर फोर्स अर्जन सिंह भले ही हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनके बहादुरी के बेमिसाल किस्से हमेशा देश और भारतीय वायु सेना की शान बढ़ाते रहेंगे
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
जीवेम् शरद: शतम् की कामना इस देश में वैदिक काल से की जा रही है। सदियां गुजरने के बाद किसी मानव की दीर्घायु उसके गौरवमय सुकृत्यों के आगे निमिष मात्र लगती है। किसी के जीवन की लंबी लकीर जन्मभूमि की सेवा में अर्पित उसके सुरभित पुष्पों की लकीर के आगे खुद-ब-खुद सिकुड़ कर छोटी लगने लगती है। ऐसा ही था वह महामानव जिसका नाम देने वाले अभिभावकों को शायद दिव्य संकेत मिल गया था कि यश, सम्मान और कीर्ति का अर्जन वह मातृभूमि पर जीवन के विसर्जन तक करता रहेगा। बिना थके, बिना झुके। थकना आता तो 1965 के भारत-पाक युद्ध में वायुसेनाध्यक्ष की अविस्मरणीय भूमिका निभाने के बाद शीर्षस्तरीय राजनयिक और प्रशासकीय किरदारों को अदा करने में क्या वह जुट पाता। झुकना आता तो क्या 98वें वर्ष की आयु में भी वह मेरुदंड को यूं तानकर खड़ा होता कि उसके आगे बड़ी-बड़ी हस्तियां भी बौनी नजर आतीं। लेकिन शायद यहां मैं गलती कर गया। नहीं! सौम्यता, शिष्टता की परम्परा और आचार संहिता की मांग हो तो वह महासेनापति झुकना भी जानता था। तभी तो जीवन के दसवें दशक में शैया पर लेटे उस महासेनापति ने जब देश के प्रधानमंत्री को अपने सामने पाया था तो उठकर उनका अभिवादन करने में कोताही नहीं कर पाया था। ऐसे अद्भुत जीवट के धनी मार्शल अर्जन सिंह नई दिल्ली में 16 सितंबर, 2017 को इस दुनिया को अलविदा करके दूर गगन के पार चले गए।
‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात!’ प्रथम विश्व युद्ध के अंत में 16 अप्रैल, 1919 को जन्मे अर्जन सिंह ने जीवन की पहली चौथाई में ही अपने विमानचालन कौशल और शौर्य का सिक्का जमा लिया। जीवन में सदा पहले स्थान पर रहने का संकेत भी तत्कालीन शाही भारतीय वायु सेना के नंबर एक स्क्वाड्रन में हुई पहली नियुक्ति से ही मिल गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में बर्मा में अराकान अभियान में नम्बर एक स्क्वाड्रन के लड़ाकू जहाजों को उड़ाते हुए जापान के लड़ाकू वैमानिकों को आकाशीय युद्ध में उन्होंने धूल चटाई। शौर्य के साथ विशिष्ट उड़ान के लिए दिया जाने वाला ‘डिस्टिंगविश्ड फ्लाइंग क्रॉस’(डीफसी) अनेकानेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित इस योद्धा के सीने पर लगाया जाने वाला पहला तमगा था। बाद में इस तरह के सम्मानों से अलंकृत होते रहना उनकी आदतों में शुमार हो गया। सूची लम्बी है लेकिन इस फेहरिस्त के शीर्ष पर पद्म-विभूषण के राष्ट्रीय सम्मान का उल्लेख तो करना ही होगा।
वर्णमाला के प्रथम अक्षर अ से जिसका नाम शुरू हो, वायु सेना में जिसकी सर्वप्रथम नियुक्ति एक स्क्वाड्रन में हुई हो, उसने जीवन में प्रथम स्थान का महत्व खूब समझा। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त, 1947 को लाल किले की प्राचीर पर जब पहली बार राष्ट्रीय ध्वज फहराया तो वायु सेना के विमानों में फ्लाईपास्ट करने वाली टुकड़ी का नेतृत्व अर्जन सिंह ने ही किया था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद महत्वपूर्ण वायु सेना स्टेशन अंबाला की कमान संभालने वाले पहले भारतीय वे ही थे। वायु सेना की कमान केवल 45 वर्ष की आयु में संभालने वाले वे पहले वायुसेनाध्यक्ष थे जिन्हें एयर चीफ मार्शल का पद दिया गया। इसके पहले वे वायु सेना की आॅपरेशनल कमान के पहले सेनापति रह चुके थे। 1962 का चीनी आक्रमण। उस दौरान देश के तत्कालीन कर्णधारों ने भारतीय सेनाओं के आत्मसम्मान को गहरी ठेस पहुंचाई। इस ठेस से उबरने का अवसर प्रदान किया था पाकिस्तान ने, 1965 में भारत पर फिर से आक्रमण करने का दुस्साहस करके। पाकिस्तान ने अॉपरेशन ग्रैंड स्लैम का सपना देखते हुए अपने आक्रामक टैंकों का जबरदस्त जमावड़ा करके अखनूर क्षेत्र में सुकेंद्रित हमला किया तो देश के सौभाग्य से भारतीय वायु सेना की कमान इस सपूत के हाथ में थी। तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण की सोच थी कि वायु सेना भी रणक्षेत्र में उतरकर भारतीय थल सेना पर हुए इस सघन आक्रमण की ईंट का जवाब पत्थर से दे। वायु सेनाध्यक्ष ने उत्साह से स्वागत किया। रक्षा मंत्री का अगला सवाल था, ‘‘कितना समय चाहिए भारतीय वायु सेना को इसकी तैयारी के लिए?’’ अर्जन सिंह के जीवन में एक की संख्या के महत्व का असर था या ‘एक ओंकार’ में उनकी गहन आस्था। कारण जो भी रहा हो लेकिन उत्तर था ‘एक घंटा’। फिर वह एक घंटा बीतने नहीं पाया और हमारी वायु सेना के जांबाज दुश्मन के टैंकों पर टूट पड़े। आगे की कहानी इतिहास के परदे पर बहुत बार देखी जा चुकी है।
वायु सेनाध्यक्ष के पद पर एयर चीफ मार्शल के रूप में पहली बार आसीन इस योद्धा को कालांतर में देश ने मार्शल आॅफ द एयर फोर्स (वायु सेना के महासेनापति) पद से सम्मानित किया, जिसे उन्होंने आजीवन सुशोभित किया। लेकिन वायु सेनाध्यक्ष के पद से केवल पचास वर्ष की आयु में पांच वर्ष की अवधि बिता कर सेवानिवृत्त होने के बाद देश को उन्हें योद्धावतार के बाद कूटनीतिज्ञ अवतार में भी देखना शेष था। वे पहले स्विट्जरलैंड और वेटिकन में भारत के राजदूत नियुक्त किए गए। बाद में केन्या में उच्चायुक्त रहे। विदेशों में अपनी सौम्य राजदूत की छवि दिखाने के बाद उन्हें दिल्ली के उपराज्यपाल के रूप में प्रशासनिक योग्यता दिखाने का अवसर मिला। इन सेवाओं से मुक्त होने के बाद भी वे हमेशा सक्रिय रहे। कल्याणकारी योजनाओं के लिए अपना निजी फार्म बेचकर दो करोड़ रुपयों का दान देकर जो कल्याणकारी ट्रस्ट उन्होंने बनाया, उसके संचालन से लेकर हर राष्ट्रीय या सैनिक पर्व में अपनी गौरवमयी उपस्थिति दर्ज कराने में वे कभी चूके नहीं। इस महासेनापति के अधीन वायुसेना में कार्यरत रहते हुए उनके निकटस्थ किसी पद पर कार्य करने वाला मैं बहुत कनिष्ठ अधिकारी था। लेकिन वायु सेना में अक्तूबर, 1965 में स्वयं उनके हाथों से मेरे कंधे पर पायलट अफसर रैंक की सूचक पतली सी फीती लगी और अपनी शाखा में कमीशन पाने वाले साथियों के बीच सर्वप्रथम स्थान पाने के लिए ‘चीफ आॅफ एयर स्टाफ मैडल’ और एयर नेवीगेशन में सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन की ट्रॉफी से सम्मानित किया गया। उन क्षणों में उनका मुस्कराते हुए हाथ मिलाना और बधाई देना मेरे जीवन के सबसे रोमांचक क्षण बने रहेंगे। मेरे गुरु एयरमार्शल सबीखी भी अपने बैच में सर्वप्रथम स्थान पाकर तत्कालीन सेनाध्यक्ष अर्जन सिंह से ही पुरस्कृत हुए थे लेकिन वे मुझसे अधिक भाग्यशाली निकले। उन्हें इस महान सेनाध्यक्ष के नीचे काम करते हुए नजदीक से देखने के अनेक अवसर मिले। उनके हर संस्मरण का एक ही निष्कर्ष है कि वे शीघ्र, स्पष्ट और सुदृढ़ निर्णय लेने वाले एक महान सेनापति ही नहीं बल्कि एक बेहद संवेदनशील, उदार, अत्यंत सौम्य और मितभाषी इनसान भी थे। विंग कमांडर ओंकार सरीन, जो उनकी कल्याणनिधि सम्भालते हैं, ने बताया कि मार्शल ने उनसे अपनी भावनाएं साझा करते हुए कहा था, ‘मैं एक किसान का बेटा हूं। किसान कभी अपनी जमीन नहीं बेचता। और बेचनी पड़ जाए तो उसके दु:ख से उबर नहीं पाता। लेकिन अपनी सारी जमीन बेचकर जो ये दो करोड़ रुपये मुझे मिले हैं, उन्हें सैनिकों की कल्याणकारी योजनाओं में लगाकर मैं इस दु:ख से ऊपर उठ गया हूं।’’ ऐसा ही अनुभव साझा किया मेरे मित्र सेवानिवृत्त एयर कमांडर सविन्दर सोबती ने। 1965 के युद्ध के बाद आभार प्रदर्शन के लिए नांदेड़ के गुरुद्वारे में माथा टेकने के लिए जाते हुए वायु सेनाध्यक्ष अर्जन सिंह जिस विमान को स्वयं उड़ा कर जा रहे थे (उन्हें साठ से भी अधिक किस्म के विमान उड़ाने का अनुभव था) उसके नेवीगेटर रहे सविंदर बताते हैं कि अर्जन सिंह ने जहाज के एयर-सिग्नलर सार्जेंट के हाथ में एक पुस्तक देखी। इसे देख उन्होंने उसे पत्राचार से पढ़ाई कर परीक्षा की तैयारी करने पर शाबाशी दी थी। उन्होंने कहा, ‘अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए कोई भी आयु ज्यादा
नहीं होती।’’ आज हम सब वायुसैनिकों की ही नहीं सारे सैनिकों की, नहीं…नहीं, सारे देश की यही धारणा है कि स्वयं कुछ सीखने से लेकर बहुत कुछ सिखाने के लिए वह सिंह कभी बूढ़ा हुआ ही नहीं। समय ही बताएगा कि एक ओंकार और एक मातृभूमि से समान प्यार करने वाला, हर जगह पहले स्थान पर बना रहने वाला, हर काम दूसरों से पहले कर जाने वाला, यह महासेनापति और महामानव क्या भारतीय सेनाओं की पृष्ठभूमि से आने वाला पहला भारतरत्न भी होगा।
(लेखक सेवानिवृत्त वायुसेनाधिकारी हैं)
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