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-अरुण कुमार सिंह (झरिया से लौटकर)-
समय दिन के लगभग 12 बजे का था और तारीख थी 19 अगस्त। करीब 200 मीटर तक जमीन लगभग 15 फुट नीचे धंस गई। इसमें एक महिला की मृत्यु हो गई। कई मकान तो जमीन के अंदर समा गए और 100 से अधिक मकान बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए।
दूसरी घटना है 21 मई की। सुबह के करीब सात बजे मोटर मैकेनिक बबलू खान अपने 10 वर्षीय बेटे रहीम खान के साथ अपनी दुकान के बाहर खड़े थे कि सामने जमीन धंस गई और रहीम उसमें गिर गया। बबलू उसे बचाने के लिए आगे बढ़े तो वे
भी उसमें समा गए। दोनों बाप-बेटे जिंदा दफन हो गए।
दिल दहला देने वाली ये दोनों घटनाएं झारखंड में धनबाद के पास झरिया शहर की हैं। वही झरिया जहां देश का सबसे अच्छा कोयला मिलता है। वही झरिया जिसके गर्भ से निकलने वाले कोयले से देश का एक बड़ा हिस्सा जगमग करता है। वही झरिया जिसके दोहन से धनबाद आबाद हुआ है। स्टील के निर्माण में इस्तेमाल होने वाला कोयला भारत में केवल यहीं मिलता है। इस उच्च गुणवत्ता वाले कोयले को विदेश से मंगाने पर भारत को लगभग चार अरब डॉलर हर वर्ष खर्च करने पड़ते हैं। यानी देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने में झरिया का योगदान बहुत ज्यादा है। इसके बावजूद यहां की खदानों में लगी आग को बुझाने में जल्दबाजी नहीं दिखाई गई। इस कारण अब झरिया का अस्तित्व ही खतरे में है। यहां की धरती के सीने पर अनगिनत दरारें पड़ गई हैं। इन दरारों से कहीं अग्नि देवता दर्शन दे रहे हैं, तो कहीं वर्षों से दमघोंटू गैस निकल रही है। जब वही दरारें चौड़ी और बड़ी हो जाती हैं, तो किसी जीव की बलि ले लेती हैं। भू-धसान की बढ़ती घटनाओं से सरकार परेशान है और झरिया शहर की एक बड़ी आबादी को यह इलाका छोड़ने का फरमान जारी कर चुकी है। उन्हें यहां से लगभग 12 किलोमीटर दूर बेलगढि़या की पुनर्वास कॉलोनी में जाने को कहा गया है, लेकिन बुनियादी सुविधाओं के अभाव में लोग वहां जाना नहीं चाहते। भू-धसान और आग के कारण ही धनबाद-चंद्रपुरा रेल मार्ग पर गाडि़यों के परिचालन को बंद कर दिया गया है। इस मार्ग पर प्रतिवर्ष लगभग सवा करोड़ लोगों का आना-जाना होता था। रेलवे ने अचानक इस मार्ग को बंद कर दिया है। तभी से लोग इस मार्ग को फिर से चालू करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
वस्तुत: यह कोयला नगरी वर्षों से झुलस रही है। कोई इस अवधि को 100 वर्ष बताता है तो कोई 60 साल। जमीन के नीचे कितनी गहराई तक आग है, इसके बारे में अभी तक कोई सटीक जानकारी नहीं मिली है। पर रात में दिखने वालीं आग की लपटें और जमीन के अंदर से निकलने वाली सफेद दमघोंटू गैस यही बताती है कि झरिया नीचे-ऊपर दोनों तरफ से झुलस रहा है। इस आग की तपन जमीन के ऊपर चलते-फिरते भी महसूस होती है। कई जगह तो इतनी तपिश है कि जूते तक गर्म हो जाते हैं। बरसात के दिनों में दरारों से निकलने वाली गैस लोगों की सांस उखाड़ देती है, जबकि बाकी समय इतनी धूल उड़ती है
कि लोग सांस संबंधी बीमारियों से पीडि़त हो रहे हैं।
जानकार मानते हैं कि इस आग से अब तक खरबों रुपए का कोयला राख हो चुका है और धरती खोखली हो चुकी है। इसलिए जगह-जगह जमीन फट रही है और लोग उसमें जिंदा दफन हो जा रहे हैं। आग कैसे लगी, इस बारे में तो अनेक तरह की बातें हैं, पर अब तक आग क्यों नहीं बुझी, इस पर झरिया के सभी लोगों की राय एक जैसी है। भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) में वरिष्ठ प्रबंधक (खान) रहे और ऑल इंडिया माइनिंग पर्सनल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष बी.पी. सिंह कहते हैं, ''सबसे पहले 1965-66 में आग बुझाने की कोशिश हुई थी। अमेरिका, पोलैंड, जर्मनी और इंग्लैंड के विशेषज्ञ आए और उन्होंने आग बुझाने के अनेक सुझाव दिए, लेकिन उन सुझावों पर सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं होने पर आग बढ़ती गई।'' उन्होंने यह भी बताया कि पहले लगभग 40 वर्ग किलोमीटर में आग फैली हुई थी। अब लगभग 17 वर्ग किलोमीटर में है। ऐसा इसलिए हुआ है कि बहुत जगहों पर तो आग बुझाई गई और बाकी जगहों पर आग के कारण कोयला बचा ही नहीं इसलिए वहां आग खुद ही बुझ गई, लेकिन इसने जमीन को खोखला कर दिया। इस कारण कब और कहां जमीन धंस जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। जब आग का दायरा कम होता जा रहा है तब झरिया को उजाड़ने की बात क्यों हो रही है? इस सवाल के साथ हम धनबाद स्थित भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) के दफ्तर पहुंचे। वहां बीसीसीएल की योजना एवं परियोजना के निदेशक (तकनीकी) डी. गंगोपाध्याय से भेंट हुई। उन्होंने कहा कि वे इन सबकी जानकारी देने के लिए अधिकृत नहीं हैं। उन्होंने इस बाबत मुख्य प्रबंध निदेशक गोपाल सिंह से मिलने की बात कही। उनसे फोन से संपर्क किया तो कहा कि कल बात कर लें। पर वह कल इस रिपोर्ट के लिखने तक नहीं आया। कई बार फोन करने और संदेश भेजने के बावजूद उन्होंने बात नहीं की। गोपाल सिंह यानी बीसीसीएल के इस रवैए से मुझे बागडिगी गांव के नयन चक्रवर्ती की बातें याद आ गईं। वे कहते हैं, ''झरिया की इस स्थिति के लिए बीसीसीएल जिम्मेदार है और वह किसी की कुछ सुनता ही नहीं है। स्थानीय लोगों के साथ बीसीसीएल का रवैया किसी तानाशाह की तरह है।''
बागडिगी गांव के चारों ओर कोयला खदान हैं। चक्रवर्ती कहते हैं, ''इन खदानों को बीसीसीएल ने बाहरी निजी कंपनियों को दे रखा है। ये निजी कंपनियां खदान के किसी भी नियम को नहीं मानती। यही नहीं, वे ग्रामीणों की जमीन पर जबरन कब्जा करके कोयला निकालती हैं। जब ग्रामीण विरोध करते हैं, तो कंपनियों के लठैत उनसे मारपीट करते हैं। ग्रामीणों को दबाने के लिए झूठे मुकदमों का सहारा लिया जाता है।'' 52 बीघे में फैले इस गांव की आबादी लगभग 3,000 है। विस्फोट करके खदानें तैयार की जाती हैं। चक्रवर्ती कहते हैं, ''जब विस्फोट किया जाता है तो मकानों में दरारें पड़ जाती हैं। कई मकान तो गिर चुके हैं, लेकिन बीसीसीएल मुआवजा नहीं देती।'' उन्होंने यह भी बताया कि ग्रामीणों की जो जमीन कोयला निकालने के लिए ली जाती थी, उसके लिए 1934 से रॉयल्टी मिलती थी, लेकिन 1954 में उसे बंद कर दिया गया। इसके बाद ग्रामीणों को किसी तरह का मुआवजा तक नहीं दिया जाता। अनेक ग्रामीणों ने यह भी बताया कि बीसीसीएल मुआवजा देने से बचने के लिए गांव वालों को गांव खाली करने के लिए भी नहीं कहता है। स्थिति ऐसी बनाई जा रही है कि लोग खुद ही गांव छोड़कर चले जाएं। पानी की आपूर्ति बंद कर दी गई है। लोग चार किलोमीटर दूर से पीने का पानी ला रहे हैं। गांव के सभी रास्तों को बंद किया जा रहा है। झरिया के आसपास के सभी गांवों का यही हाल है। बीसीसीएल के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि झरिया और उसके आसपास के गांवों की दुर्दशा के लिए बीसीसीएल के भ्रष्ट अधिकारी दोषी हैं। इन अधिकारियों ने कोयला खदानों पर माफिया का कब्जा करवाया और गरीबों के हक को मारा। इन लोगों ने बीसीसीएल को भी जमकर लूटा। आज स्थिति यह है कि बीसीसीएल के पास अपने कामगारों को वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं हैं।
बोकारो इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (बियाडा) के पूर्व अध्यक्ष बिजय कुमार झा कहते हैं, ''झरिया में सबसे पहले 1894 में कोयले का खनन शुरू हुआ। उन दिनों सुरंग बनाकर 1,000 फुट नीचे तक का कोयला निकाल लिया जाता था। इस पद्धति से कोयला निकालने में खतरा कम होता था और प्रदूषण भी नहीं फैलता था। लेकिन 1971 में खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद खुली खदानों से कोयला निकाला जाने लगा। इससे प्रदूषण फैला और आज स्थिति यह है कि धनबाद देश के 30 सबसे प्रदूषित जिलों में से एक है। कोयले के प्रदूषण से झरिया और उसके आसपास न्य् ाू मोकानोयोसिस बीमारी फैल रही है। लोगों का जीवन संकट में है।'' बिजय कहते हैं, ''तर्क दिया जाता है कि खुली खदानों में लागत कम लगती है और उत्पादन भी अधिक होता है। तो क्या वहां के लाखों लोगों के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है कोयला? लोगों के जीवन की कोई कीमत नहीं है?'' वे कहते हैं, ''पूरा कोयला क्षेत्र माफिया के कब्जे में है। माफिया जैसा चाहता है, उसी तरह कोयले का खनन होता है। माफिया की किताब में कायदा-कानून के लिए कोई जगह नहीं होती और वे लोग अपने ढंग से कोयला निकाल रहे हैं। उन पर खान सुरक्षा महानिदेशक (डीजीएमएस) का कोई नियंत्रण नहीं है।'' बिजय यह भी कहते हैं कि कोयला माफिया के सामने कोई भी अधिकारी कुछ बोलने की हिम्मत तक नहीं करता और जब तक यह स्थिति रहेगी, तब तक झरिया जलता रहेगा।
झरिया के वरिष्ठ पत्रकार और कोयला खदानों में हो रही धांधली पर कई दशक तक लिखने वाले बनखंडी मिश्र कहते हैं, ''नियमों की अनदेखी के कारण झरिया में आग लगी है। जिन सुरंगों से कोयला निकाल लिया जाता है उनमें बालू भरना होता है, लेकिन भ्रष्टाचारियों ने बालू के नाम तो सरकार से पैसा ले लिया पर सुरंगों में बालू नहीं भरा। इससे जमीन के अंदर ऑक्सीजन आसानी से जाने लगी और सुरंगों में जो कोयला बचा था, उसमें आग लग गई। अब वही आग रिहाइशी इलाकों तक में फैल रही है।''
झरिया कोल्ड फील्ड बचाओ समिति के अध्यक्ष अशोक अग्रवाल सवाल करते हैं कि जब आग का दायरा सिमट रहा है, तो फिर रेल मार्ग को क्यों बंद किया गया, झरिया के एक बड़े हिस्से को क्यों खाली कराया जा रहा है? इन सवालों के जवाब भी वही देते हैं। कहते हैं, ''खुली खदानों के लिए ज्यादा से ज्यादा जमीन की जरूरत पड़ती है। इसलिए झरिया को उजाड़ा जा रहा है और इसीलिए धनबाद-चंद्रपुरा रेल मार्ग को भी बंद किया गया है।'' अशोक कहते हैं, ''कोल माइनिंग रेगुलेशन 1957 का पैरा 105 (3 से 54) कहता है कि रेलवे लाइन के दोनों ओर 45 मीटर तक कोयले का खनन नहीं हो सकता। यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी डीजीएमएस की है। अब उससे क्यों नहीं पूछा जा रहा है कि उसने रेलवे लाइन के किनारे कोयला निकालने से कंपनियों को क्यों नहीं रोका? अगर डीजीएमएस अपनी जिम्मेदारी निभाता तो रेल मार्ग को बंद करने की नौबत ही नहीं आती।'' इस रेल मार्ग के बंद होने से स्थानीय लोगों में भारी गुस्सा है। लोग धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। इसकी जानकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक भी पहुंचाई गई है, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है। हां, धनबाद मंडल के मंडल रेल महाप्रबंधक मनोज कुमार अखौरी की बातों से लग रहा है कि सरकार कुछ जरूर सोच रही है। वे कहते हैं, ''डीजीएमएस की रपट के आधार पर धनबाद-चंद्रपुरा रेल मार्ग को बंद किया गया है। लोगों की परेशानी लाजिमी है। इसलिए वैकल्पिक मार्ग बनाने की कोशिश की जा रही है।''
एक बार फिर झरिया की ओर चलें। लोगों में उजड़ने के नाम से खौफ है। झरिया चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष अमित कुमार साहू कहते हैं, ''यदि झरिया शहर के नीचे आग है तो उसे बुझाने की कोशिश होनी चाहिए। लाखों लोगों को उजाड़ना किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है।'' झरिया को उजाड़ा जाएगा, यह सुनकर झरिया को बसाने वाला राजपरिवार बहुत दु:खी है। राजपरिवार की बहू माधवी सिंह कहती हैं, ''केवल कोयले के लिए झरिया को उजाड़ने की बात हो रही है। झरिया को बचाने के लिए जो कुछ हो सकता है, किया जाएगा।'' आर.एस.पी. कॉलेज को भी दूसरी जगह ले जाने की बात चल रही है। यह झरिया का एक मात्र सरकारी कॉलेज है, जहां इंटरमीडिएट से लेकर स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई होती है। इस समय इस कॉलेज में 5,500 से अधिक छात्र पढ़ते हैं। इन छात्रों को डर लग रहा है कि कॉलेज दूर चला गया तो भारी दिक्कत होगी। झारखंड विकास छात्र मोर्चा, धनबाद जिले के अध्यक्ष राकेश सिंह कहते हैं, ''पहले तो कॉलेज परिसर में जो आग है उसे बुझाने का प्रयास होना चाहिए। प्रयास के बाद भी आग नहीं बुझती है तो झरिया बाजार के नजदीक ही कॉलेज का नया भवन बनना चाहिए।'' सामाजिक कार्यकर्ता पिनाकी राय कहते हैं,''झरिया ही नहीं, देश के अनेक हिस्सों में केवल ऊर्जा के लिए मानवाधिकार का हनन हो रहा है। मनुष्य को मनुष्य नहीं समझा जा रहा है। देश की ऊर्जा नीति में बदलाव की जरूरत है।'' उन्होंने यह भी कहा कि देश की माटी से प्यार नहीं करने वालों की गलती का परिणाम आम लोगों को भुगतने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
जो आग देश की अमूल्य संपदा को राख में बदल रही है, जिसने करीब 5,50000 लोगों के सिर पर विस्थापन की तलवार लटका रखी है, वह आग बुझेगी या नहीं, यह जानने के लिए इस संवाददाता ने केंद्रीय खनन एवं ईंधन अनुसंधान संस्थान (सिंफर), धनबाद के निदेशक डॉ. प्रदीप कुमार सिंह से बात की। उन्होंने कहा, ''आग बिल्कुल बुझ सकती है, पर इसके लिए कोई समय-सीमा तय नहीं की जा सकती।'' उन्होंने यह भी कहा कि विशेषज्ञों को बाहरी हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए तो आग की एक चिंगारी भी नहीं बचेगी।
निष्कर्ष यही है कि जब जिम्मेदार लोग ईमानदारी से काम नहीं करते हैं तब झरिया जैसी स्थिति बनती है। देश में फिर कहीं कोई इलाका झरिया न बन जाए, सरकार को इसका ध्यान रखना होगा।
''कोयला खदानों के लिए कड़े नियम बनने चाहिए''
धनबाद को देश की कोयलानगरी कहा जाता है। यहीं खान सुरक्षा महानिदेशक यानी डीजीएमएस का मुख्यालय है। डीजीएमएस पर ही देशभर के कोयला खदानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी है। वर्तमान डीजीएमएस पी.के. सरकार से हुई बातचीत के अंश—
नियम है कि कोयला निकालने के लिए जमीन जिस हालत में ली जाती है, बाद में उसी हालत में वापस करनी होती है, लेकिन झरिया में ऐसा नहीं दिखता है।
भारत में अभी ऐसा कोई नियम नहीं है। अब इस प्रकार के कुछ नियम बनाने की पहल हो रही है, लेकिन विदेशों में नियम बहुत ही सख्त हैं। जमीन अधिग्रहण के समय उस पर पेड़ होते हैं तो कोयला निकालने के बाद पेड़ लगाकर जमीन वापस की जाती है। ऐसे नियम भारत में भी बनने चाहिए।
झरिया के लोग कहते हैं कि शहर के नीचे आग नहीं है। इसके बावजूद वहां के लोगों को हटाया जा रहा है। इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे?
झरिया के नीचे आग है या नहीं, यह एक अलग प्रश्न है। लेकिन झरिया की कोयला खदानों में आग है इसमें कोई दो राय नहीं है। और यह आग वर्षों से है। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा है। उसकी देखरेख में ही पुनर्वास और अन्य कार्य हो रहे हैं।
धनबाद-चंद्रपुरा रेलमार्ग को आग के कारण बंद किया गया है। क्या आने वाले समय में फिर से रेल सेवा शुरू होगी?
इस रेलमार्ग के नीचे 14 किलोमीटर में कई जगह आग है। इसको देखते हुए रेल चलाना ठीक नहीं है। लेकिन इसके विकल्प के लिए भी कार्य-योजना बन चुकी है। इसमें कहा गया है कि जहां आग नहीं है वहां से रेल मार्ग बनाकर रेल चलाई जाएगी। यह कार्य-योजना सर्वोच्च न्यायालय को भी दी गई है।
पश्चिम बंगाल में रानीगंज के पास भी दो स्टेशनों के बीच रेल मार्ग के नीचे आग है, लेकिन वहां अभी तक तो मार्ग बंद नहीं किया गया है। फिर इसे क्यों बंद किया गया?
वहां की जानकारी मुझे नहीं है, लेकिन मैं यहां के बारे में बता सकता हूं। खतरा कैसा है, घटना घटने की कितनी आशंका है, इन सबको देखते हुए कोई निर्णय लिया जाता है। चंूकि धनबाद-चंद्रपुरा रेलमार्ग में अनेक स्थानों पर भू-धसान की घटनाएं हो चुकी हैं। इसलिए खान सुरक्षा महानिदेशालय ने इस रेल मार्ग पर रेल चलाना ठीक नहीं माना।
निदेशालय ने रेल मंत्रालय को रिपोर्ट कब दी थी?
हमने रेल मंत्रालय को रिपोर्ट नहीं दी थी। कोयला मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति है। उसी ने फरवरी के आसपास निदेशालय से इस रेल मार्ग के बारे में रिपोर्ट मांगी थी। इसके बाद निदेशालय के नेतृत्व में एक समिति बनी, जिसमें रेलवे, बीसीसीएल, सिंफर, जिला प्रशासन, इंडियन स्कूल ऑफ माइंस जैसे संगठनों के विशेषज्ञ शामिल थे। इस समिति ने जो रिपोर्ट तैयार की उसी को मार्च महीने में निदेशालय ने उच्चस्तरीय समिति को भेजा। इसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी एक रिपोर्ट मांगी थी। इसके बाद निदेशालय ने और थोड़ी गहराई में जाकर एक रिपोर्ट तैयार करके प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी। बाद में एक बैठक हुई। उस बैठक में मैं भी था।
कोयला मंत्रालय की समिति ने किस आधार पर रिपोर्ट तैयार करने को कहा था?
इस वर्ष के जनवरी महीने में रेल मंडल प्रबंधक, स्थानीय प्रशासन, सिंफर आदि संस्थाओं के कुछ विशेषज्ञों ने इस रेल मार्ग का निरीक्षण करके कहा था कि यह खतरनाक है। इसकी चर्चा कोयला मंत्रालय की उच्च समिति में हुई। इसके बाद निदेशालय को रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया था।
यानी आपकी रिपोर्ट के आधार पर ही बिना किसी विकल्प के रेल मार्ग को बंद किया गया?
विकल्प की बात तो पिछले 10 वर्ष से चल रही थी, लेकिन विकल्प क्यों नहीं तैयार हुआ, इस पर मैं कुछ नहीं कह सकता। देखिए, रेल बंद करना निदेशालय के दायरे में नहीं है, यह काम रेल मंत्रालय का है। हां, निदेशालय से जब पूछा गया कि रेल चलाना सुरक्षित है या नहीं तो मैंने रिपोर्ट दे दी। जो हालात हैं उसमें तो निदेशालय यह नहीं कह सकता कि रेल चलाना सुरक्षित है।
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