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जेएनयू में वामपंथी संगठन इस बार छात्रसंघ चुनाव जीतने में भले सफल रहे पर उन्हें दोहरी चुनौती मिल रही है। एक ओर अभाविप अपनी पकड़ मजबूत बना रही है, वहीं चर्च मिशनरियों से जुड़े संगठन भी उनके वोटबैंक में सेंध लगा रहे हैं। इसलिए अभाविप के डर से वामपंथी संगठनों ने मिलकर चुनाव लड़ा था
अंबा शंकर वाजपेयी
जेएनयू के इतिहास में इस साल पहली बार छात्रसंघ चुनाव राष्ट्रवाद बनाम वामपंथ के आधार पर लड़ा गया। खास बात यह रही कि वामपंथी संगठन आईसा, एसएफआई और डीएसएफ मिलकर ‘यूनाइटेड लेफ्ट’ के बैनर तले चुनाव में उतरे। वैसे तो एसएफआई और एआईएसएफ शुरू से ही गठबंधन कर चुनाव लड़ते रहे हैं। एक दौर था जब यही संगठन कहते थे कि ‘आईसा’ की ओर से चुनाव में जो भी खड़ा हो जाए, वही जीतेगा। लेकिन अब ऐसा क्या हो गया जिसने वामपंथी संगठनों को एक छतरी के नीचे आने के लिए मजबूर कर दिया? इसे जानने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा।
‘दिवि’ में एनएसयूआई की ओछी राजनीति
दिल्ली विश्वविद्यालय में इस बार हुए छात्रसंघ चुनाव के नतीजों में ‘डर्टी पॉलिटिक्स’ उजागर हुई है। एनएसयूआई ने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पदों पर जीत हासिल की, जबकि अभाविप को सचिव व संयुक्त सचिव का पद मिला। दरअसल, एनएसयूआई ने अध्यक्ष पद के लिए एक छद्म उम्मीदवार राजा चौधरी का नामाकंन कराया और परदे के पीछे से उसके लिए प्रचार तक किया। वहीं, अभाविप की ओर से इस पद के लिए रजत चौधरी उम्मीदवार थे। नाम में काफी हद तक समानता होने के कारण वोट डालते समय विद्यार्थी भ्रमित हो गए। इससे छद्म उम्मीदवार को 3,000 से अधिक वोट मिले, जिसका सीधा नुकसान अभाविप उम्मीदवार को हुआ। दूसरा कारण एनएसयूआई के उम्मीदवार रॉकी तुशीद का पहले नामांकन रद्द होना और फिर उसे न्यायालय से चुनाव लड़ने की छूट मिलना भी रहा। पूरे मामले के मीडिया में छाए रहने के कारण भी उसे फायदा मिला। तीसरी वजह यह रही कि चुनाव में अधिकतर प्रथम वर्ष के विद्यार्थी ही वोट डालते हैं। उन्हें कॉलेज के 6 या 8 और विवि. के 4 वोट यानी कुल 12 वोट डालने होते हैं। उसे नाम, बैलेट नंबर आदि याद रखना होता है, जिससे वह ज्यादा भ्रमित होता है। जेएनयू में एनएसयूआई को तो नोटा से भी कम वोट मिले हैं।
2014 में देश की राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव आया। केंद्र में भाजपा की सरकार बनी और इसका असर जेएनयू जैसे संस्थान पर भी पड़ा। अभाविप की ताकत में जबरदस्त वृद्धि हुई, जिसने वामपंथी संगठनों की चूलें हिला दीं। खासकर आईसा और एसएफआई जो अब तक अलग-अलग चुनाव लड़ते थे, 2016 के चुनाव में एक साथ अभाविप के विरुद्ध उतरे। लेकिन इस साल आईसा, एसएफआई और एसएफआई से अलग होकर बना गुट डीएसएफ भी गठबंधन में शामिल हो गया। इसके बावजूद अभाविप उनके वोटबैंक में सेंध लगाने में सफल रही। यह बदलाव देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत है। वामपंथी गतिविधियों का केंद्र रहे जेएनयू को अब उनके हाथ से निकलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। रा.स्व.संघ की छात्र इकाई अभाविप न केवल वामपंथियों की नर्सरी में विचारधारा की फसल उगा रही है, बल्कि अपना आधार भी मजबूत कर रही है। जेएनयू में करीब 8,000 विद्यार्थी पंजीकृत हैं, जिनमें से 4,620 ने इस चुनाव में वोट दिए। अध्यक्ष पद की अभाविप उम्मीदवार निधि त्रिपाठी को 1,042 वोट मिले, जबकि वाम गठबंधन की उम्मीदवार गीता कुमारी को 1,506 वोट मिले।
अभाविप ने जेएनयू में 1996 में अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। इसी साल देश की राजनीति में भी बड़ा बदलाव आया और क्षेत्रीय दलों के समर्थन से केंद्र में भाजपा की सरकार बनी। इसी साल डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन नामक छात्र संगठन ने कश्मीर के अलगाववादी नेता यासीन मलिक को ‘आजाद कश्मीर’ पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जिसे एआईएसएफ व एसएफआई ने खुला समर्थन दिया था, पर अभाविप ने इसका जोरदार विरोध किया। इसके बाद से ही अभाविप वैचारिक पकड़ मजबूृत करती गई तथा उसे छात्रों का भी समर्थन मिलने लगा। पहली बार 1997 में अभाविप ने अध्यक्ष पद को छोड़कर उपाध्यक्ष, सचिव व संयुक्त सचिव पदों पर शानदार जीत दर्ज की। गोविंद चंद्र मिश्र उपाध्यक्ष, रश्मीदास सचिव और जतिन मोहंती संयुक्त सचिव चुने गए, जबकि पुष्कर मिश्र मात्र 4 वोटों से अध्यक्ष पद की जंग हार गए थे। 1999 में फिर अभाविप ने जीत दर्ज की। इस बीच, वामपंथी विचारधारा में एक और धुर वामपंथी संगठन आईसा जेएनयू में पैर पसारने लगा, जो कि सीपीआई (एमएल) की छात्र इकाई है। इसके आने से वामपंथी संगठनों के बीच वैचारिक वर्चस्व की लड़ाई शुरू हुई। अभाविप ने ‘विवेकानंद विचार मंच’ से वैचारिक शुरुआत की। यह मंच वैचारिक गतिविधियों का केंद्र तो बना ही, जेएनयू में संघ की शाखाएं भी लगने लगीं, जिनमें छात्रों के साथ बड़ी संख्या में विवि. कर्मचारी भी जाने लगे। कांग्रेस शुरू से ही विचारधारा के मामले में दिवालिया रही। इसकी भरपाई वामपंथी संगठनों ने की, क्योंकि दोनों में कथित समझौता था कि कांग्रेस केन्द्र में सत्ता में रहेगी तथा शैक्षणिक संस्थानों व सांस्कृतिक संस्थानों में वामपंथी।
तीन सीटों पर अभाविप की जीत के बावजूद वामपंथी संगठनों एवं प्राध्यापकों ने इसे अछूत घोषित कर रखा था। 1997 से वामपंथियों की शक्ति लगातार घट रही है। 2008 में लिंगदोह समिति के कारण जेएनयू में चुनाव नहीं हुए। कुछ संशोधन के बाद 2012 से चुनाव शुरू हुए तो प्रचारित किया गया कि आईसा की ओर से कोई भी खड़ा हो, जीत उसी की होगी। लेकिन ऐसा नहीं है।
जेएनयू में वोट प्रतिशत की स्थिति काफी बदल चुकी है। 2012 से 2015 तक अभाविप के वोट प्रतिशत में अभूतपूर्व इजाफा हुआ। 2016 में अभाविप के सौरभ शर्मा ने संयुक्त सचिव के रूप में शानदार जीत दर्ज की। अभाविप को रोकने के लिए वामपंथी संगठन एकजुट हो जाते हैं, क्योंकि उसके जीतने पर इनकी दुकानें बंद हो जाएंगी। इसीलिए एसएफआई व आईसा को एक साथ आना पड़ा। वाम संगठनों को आभास हो गया था कि एकजुट नहीं हुए तो उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
1965 का ताशकंद समझौता और खासकर 1971 के पाकिस्तान युद्ध के बाद तत्कालीन सोवियत संघ का भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों पर तेजी से असर बढ़ा। राजनीतिक दल, नौकरशाही, संसद, विवि. व पत्र-पत्रिकाएं तक अछूते नहीं रहे। शंकर शरण लिखते हैं, ‘‘1966-77 व 1980-84 तक इंदिरा गांधी के शासनकाल में वामपंथियों ने न केवल राजनीतिक, बल्कि शैक्षिक संस्थाओं, सरकारी व अर्द्ध सरकारी समितियों, संसद की अंदरूनी समितियों, मीडिया के बड़े हिस्से तथा अहम अकादमिक पत्रिकाओं पर भी प्रभुत्व जमाने के लिए अभियान चलाया। जिनके अपने आदमी, शोध संस्थान व अनुदान एजेंसियां थीं, उन्होंने बुद्धिजीवियों व नौकरशाहों को अपनी ओर करने के लिए दबाव डाला।’’
1966 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो एक पुराने मार्क्सवादी पी.एन. हक्सर उनके प्रमुख सचिव थे। उन्होंने एक अयोग्य व्यक्ति की नियुक्ति पर रोमेश थापर द्वारा एतराज जताने पर हंसी में कहा था, ‘मूर्ख और मार्क्सवादी’ होना किसी को राजदूत बनाने के लिए अच्छी योग्यता है।
इस प्रकार जेएनयू सहित अन्य शीर्ष संस्थानों, अकादमिक पदों पर योग्यता को दरकिनार कर चार दशकों से भी अधिक समय तक मार्क्सवादियों को नियुक्त किया जाता रहा। जेएनयू की स्थापना हुई तो इसमें वामपंथी विचारधारा के लोगों को ही रखा गया और यह वामपंथ का केंद्र बन गया। चूंकि जेएनयू जैसे संस्थान में सोवियत संघ का प्रत्यक्ष दखल था, इसलिए पाठ्यक्रम भी सोवियत मॉडल के आधार पर ही तैयार किया गया। सीपीआई, सीपीआई (एमएल) व सीपीआई (एम) जैसे राजनीतिक दलों के छात्र संगठनों ने जेएनयू में एकछत्र साम्राज्य कायम किया। सीपीआई की छात्र इकाई एआईएसएफ, सीपीआई (एम) के छात्र संगठन एसएफआई एवं अन्य ने भी अपना स्थान बना लिया। उन्हें प्राध्यापकों का भी सहयोग मिला। इनके गठजोड़ ने जेएनयू में दूसरी विचारधारा वाले संगठन को पनपने का कोई मौका ही नहीं दिया। किसी ने प्रयास भी किया तो कम ग्रेड देकर उसका अकादमिक करियर बर्बाद कर दिया गया।
जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. गोविंद चंद्र मिश्र कहते हैं, ‘‘इनके गठजोड़ का खौफ इतना था कि ‘भारत माता’ का नारा लगाना भी अपराध था। कोई ऐसा करता था तो वामपंथी संगठनों के साथ प्राध्यापक भी उसे हेय दृष्टि से देखते थे। 1983 में अभाविप ने जब जेएनयू में काम शुरू किया तो शुरुआती कई वर्षों तक कार्यकर्ता संगठन की गतिविधियों का पोस्टर छिप-छिप कर लगाते थे।’’
जेएनयू में वामपंथ का जहाज डूबने के कगार पर है। उन्हें दोहरी चुनौती मिल रही है। एक ओर चर्च मिशनरियों से जुड़े संगठनों ने उनके वोट बैंक में सेंध लगाई है, जबकि दूसरी ओर अभाविप ने। हालांकि उनका वैचारिक आधार खत्म हो चुका है लेकिन चूंकि वामपंथी प्राध्यापक ही उनकी रीढ़ हैं, इसलिए ये संगठन अब तक टिके हुए हैं। देखना है कि इनकी रीढ़ कब चरमराएगी।
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