अध्यात्म और आनंद - जीवन में खुशी की पाठशाला
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अध्यात्म और आनंद – जीवन में खुशी की पाठशाला

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Aug 28, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Aug 2017 13:18:45

प्रेम, ज्ञान, मौन और आनंद अगर खेल-खेल में मिल जाएं तो…और जीने को क्या चाहिए! आखिर अध्यात्म, ध्यान और ज्ञान को इतना जटिल और गूढ़ क्यों बना दिया गया कि लाख दुखों में डूबा आम आदमी भी उनसे दूर ही रहता है? इसी विरोधाभास को साधते हुए आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने लगभग एक लाख लोगों को एक साथ जीवन में उत्साह और प्रसन्नता से रहने के सूत्र दिए। प्राय: लोग समझते हैं कि आधुनिक तकनीक और अध्यात्म का आपस में कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन इनका आपस में संबंध बहुत गहरा है, इसे साबित करते हुए श्रीश्री ने एक प्रयोग किया। हालांकि श्रीश्री स्वयं बेंगलुरु में थे लेकिन तकनीक के माध्यम से उन्होंने तीन दिन तक देशभर में 2,100 स्थानों पर 'खुशी की कार्यशाला' (हैप्पीनेस प्रोग्राम) संचालित की।
जीवन और मुस्कान पर श्रीश्री ने बताया, ''जीवन बहुत कम समय के लिए है। सत्तर, अस्सी, नब्बे… और ज्यादा से ज्यादा सौ साल। तुम्हारे घर के पेड़ उससे ज्यादा समय से हैं। ये पहाड़, पेड़, नदी देखो। इनके सामने हमारा जीवन क्या है। यह केवल कुछ समय के लिए है। और इस कम समय में आधा जीवन तो नींद में चला जाता है। बाकी समय झगड़े-झंझट, वैमनस्य—यह सब झेल-झेलकर चिंता करते रहना! बाप रे, यह कोई जिंदगी है क्या? अरे— मुस्कराओ, थोड़ा ज्यादा मुस्कराओ। एक दिन तो सब यहीं छोड़कर जाना ही है। जब जाना ही है तो मुस्कराते-मुस्कराते जाओ। आए तो रोते-रोते, कम से कम जाते-जाते मुस्कुराते हुए जाएं।''
फिर वे कहते हैं, ''ज्ञान यही है। पोथी पढ़ना ज्ञान नहीं है। ज्ञान है प्रसन्न-चित्त, प्रेमपूर्ण हृदय और कर्मठता। कोई भी काम करें, एकदम लग कर करें।''
कर्मयोगी और अकर्मयोगी
हम किसी भी काम को दो तरह से कर सकते हैं। एक कर्मयोगी की तरह और दूसरा अकर्मयोगी की तरह। कर्मयोगी वह है जो जिम्मेदारी को समझता है। सब चलता है, कहकर जिसने छोड़ दिया, वह अकर्मयोगी है। तुम एक कर्मयोगी पिता हो सकते हो या अकर्मयोगी पिता हो सकते हो। कर्मयोगी पिता वही है जो देखे कि बच्चों की संगत ठीक है क्या, बच्चे की मानसिकता किस ओर चल रही है, उसके स्वभाव में मधुरता, स्वभाव में निष्ठा है क्या? अकर्मयोगी कहेगा कि हमारा काम तो रोटी, कपड़ा और मकान देना है। अच्छे स्कूल में भर्ती कर देना है। वह पढ़ता है या नहीं पढ़ता है इससे हमें क्या। ये अकर्मयोगी पिता हैं। हम जीवन में कई भूमिकाएं निभाते हैं। तुम कर्मयोगी नागरिक बन सकते हो या अकर्मयोगी नागरिक। अकर्मयोगी वह है जो सड़क पर खुले नल से पानी बहता देखकर कहेगा कि यह तो नगरपालिका का काम है, हमारा इससे क्या? हम अपनी राह जाते हैं। कर्मयोगी नागरिक अधिकारियों को फोन करेगा, उसको बंद करेगा, कुछ तो करेगा। फिर ऐसे ही एक कर्मयोगी माता हो सकती है, एक अकर्मयोगी माता हो सकती है। अकर्मयोगी माता माने खाना बनाकर फ्रिज में रख दिया और फिर बच्चों को बोला कि तुम निकालकर खा लेना। यानी जैसा मन आए, करो, मेरा इससे कोई मतलब नहीं। कर्मयोगी माता देखती है कि बच्चों की मनोदशा कैसी है। उसका काम केवल भोजन परोसना ही नहीं हैं। ऐसे ही कर्मयोगी भाई-बहन हो सकते हैं और अकर्मयोगी भाई-बहन हो सकते हैं। कर्मयोगी बहन केवल रक्षाबंधन के ही दिन भाई के घर आकर राखी नहीं बांधती बल्कि बाकी दिन भी भाई को देखती है। हम समाज में जो भी पात्र निभाते हैं, उसे निष्ठा के साथ निभा
सकते हैं।''
दरअसल ज्ञान हम चारों तरफ से अक्सर ही पाते हैं, लेकिन उसे अमल में कैसे लाएं, इसकी चाबी हाथ नहीं लगती। इसलिए तनाव, परेशानी, बीमारी, अवसाद जैसी स्थितियां हमें घेर लेती हैं। श्रीश्री इसी सूत्र को जोड़ते हैं, ''हम जीवन में अपने सभी पात्रों को निष्ठा और आनंद से कब निभा पाएंगे? जब हम अपने में ही इतने उलझे हुए हैं तो निष्ठा वगैरह सब हवा में उड़ जाती है।'' फिर बताते हैं, ''चारों तरफ से हमारी उलझन हमारी अपने मन की बनाई हुई होती है। यदि आपमें आत्मबल आ जाए। आप अपने को अंदर से मजबूत करें, तो आप पाएंगे कि जीवन में सिद्धि आने लगती है। आप चाहते हैं और काम होने लगता है। आप अध्यात्म के पथ पर जब आगे-आगे अभ्यास करने लगेंगे तो एक समय आएगा कि आपके मन में कोई शुभ चाह उठने से पहले ही काम होने लगेगा। और अगर मन में कोई चाह उठती है तो तुरंत होने लगेगा। और अगर एकाध बार ऐसा नहीं होता है तो आगे चलकर आप देखेंगे कि उसमें कुछ भलाई थी इसीलिए नहीं हुआ। तो हमें कर्मयोगी बनना है। जीवन में अधिक मुस्कराएं। मुस्कान मिट गई  है जीवन से, ऐसा लगता है। एक बच्चा चार सौ बार मुस्कराता है। एक युवक सत्रह बार मुस्कराता है। और एक प्रौढ़ मुस्कुराता ही नहीं है। वह तभी मुस्कुराता है जब उसका कोई दुश्मन गिरता है। अपने भीतर की सरलता-सहजता हमने कहीं खो दी है।''
आलोचना भी सुनें
श्रीश्री ने कहा, ''अपनी आलोचना हम सुन ही नहीं सकते। अरे भाई, हिम्मत रखो। अगर कोई आपकी आलोचना करे तो उसे सुनो। और जहां जरूरी है अपनी राय देना वहां दो। और प्रसन्न रहो। यह फॉर्मूला अपनाओ। यही जीवन जीने की कला है। मैं कहता हूं कि यह कोई मुश्किल काम नहीं है। लोग समझते हैं कि यह बहुत मुश्किल है, पर ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप पाएंगे कि इससे जीवन में एक सरसता आने लगती है।…आप ज्ञान के साथ जुड़े रहें। साधना करते रहें। सामूहिक ध्यान करते रहेंगे तो आप खुद पाएंगे कि जीवन में बहुत बड़ी बरकत, शक्ति हमें प्राप्त हो चुकी है। ''
तीन दिन की इस कार्यशाला में श्रीश्री ने जीवन में प्रसन्नता लाने वाले सूत्रों, ध्यान और ज्ञान की केवल व्याख्या ही नहीं की बल्कि खेल-खेल में लोगों को उसका अभ्यास भी कराया जिसके परिणाम चौंकाने वाले थे। उस अनुभव को शब्दों में व्यक्त करना किसी के भी लिए उतना ही असंभव है जितना उस अति स्वादिष्ट रसगुल्ले का स्वाद बताना जो आपने खाया है। उसे पूरा-पूरा बताना संभव ही नहीं। और सुनकर उसका अंदाजा लग भी नहीं सकता, यह दूसरी सच्चाई है। एक अनजान व्यक्ति जिसे हम जानते भी नहीं थे, कुछ ही पल में अपना अभिन्न सखा और देवतातुल्य लगने लगता है। या एक अभ्यास ऐसा भी था जिसमें यह साबित ही हो गया कि अगर आप प्रसन्न रहना चाहते हैं तो कोई भी लाख जतन के बावजूद उसमें विघ्न नहीं डाल सकता।
 ऐसी स्थिति कैसे बनती है? श्रीश्री बताते हैं, ''लोग जिम जाते हैं अपना शरीर मजबूत और सुगठित बनाने के लिए। जो मजबूत हैं वे अपने शरीर को और मजबूत बनाने के लिए जाते हैं। तो आप जो इस तीन दिन जीवन में प्रसन्नता और मुस्कान लाने के कार्यक्रम में आए हैं, यह हमारा आध्यात्मिक जिम है जो आपके इम्यून सिस्टम को वज्र सा शक्तिशाली बनाता है, जीवन में खुशी और उत्साह को बढ़ाता है। यह 'जिम'आपके चित्त को प्रसन्न और सकारात्मक दिशा में रखता और दुख व नकारात्मक प्रभावों से बचाता है।'' वे आगे इसे स्पष्ट करते हैं, ''लाखों कारण हैं अपने उत्साह और आनंद को बनाए रखने के। और जीवन में लाखों घटनाएं और परिस्थितियां ऐसी भी आती हैं कि आप विचलन और अवसाद की दशा में चले जाते हैं। अगर आप ज्ञान और अध्यात्म का सूत्र थामे रखते हैं तो आप कभी भी विपरीत परिस्थितियों के प्रभाव में आकर कमजोर नहीं पड़ सकते, उनमें डूब नहीं सकते। जब चारों तरफ समुद्र जैसा खूब गहरा पानी हो और आप फंस गए हों तो बचने के लिए एक लाइफ जैकेट पर्याप्त है। वह आपको उसमें डूबने नहीं देती। तब इस बात का कोई महत्व नही रह जाता कि समुद्र कितना गहरा और बड़ा है। लाइफ जैकेट आपको बचाती है। इसी तरह अगर आपके पास ज्ञान, ध्यान, मुस्कान की लाइफ जैकेट है तो वह विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी आपके चेहरे की मुस्कान को, मन की प्रसन्नता को गुम नहीं होने देती, बनाए रखती है। परेशानियां, तनाव, हताशा आपको थोड़ा तो प्रभावित करेंगे, लेकिन आनंद नहीं छिनेगा।''
ध्यान मतलब कुछ नहीं करना
ध्यान कराने से पहले श्रीश्री ने बताया कि ''ध्यान को लोगों ने कितना कठिन बना दिया है। मैं कहता हूं इसमें करने जैसा कुछ है ही नहीं। कोई भी प्रयत्न नहीं करना है। मैं जो कहूंगा, कुछ निर्देश दूंगा, उसे आप भोलेपन से सुनें, जैसे कहीं कोई संगीत बज रहा है। कानों को जोर देकर नहीं सुनना है। इसे आप विश्रांतिपूर्ण श्रवण कह सकते हैं। बाकी आप जो अनुभव करेंगे वही सच्चा अनुभव होगा।''
नानक दुखिया सब संसार
आपके दुख और परेशानियां क्या हैं? जीवन में आप क्यों इतने तनाव में हैं, क्यों बीमारियों में फंसे हैं? श्रीश्री कहते हैं कि ज्यादातर लोगों के पास समय की कमी है और काम बहुत है। आज के जीवन में ऐसा ही है। दरअसल हमारे पास ताकत नहीं बची है। इस ताकत को हमें बढ़ाना होगा, क्योंकि हम न तो समय को बढ़ा सकते हैं और न काम या जरूरतों को घटा सकते हैं। लेकिन ऊर्जा बढ़ने से समय भी बढ़ जाता है।
थका हुआ आदमी तनाव से भरा होता है। उत्साह नहीं रहता, कुछ कर नहीं सकता। फिर उन्होंने ऊर्जा बढ़ाने के चार स्रोत बताए- भोजन, नींद, सांस और प्रसन्न या ध्यानस्थ चित्त। श्रीश्री ने स्पष्ट किया-भोजन सुपाच्य और सही मात्रा में हो, नींद छह से आठ घंटे। हम प्राय: अपने फेफड़ों का तीस प्रतिशत तक ही उपयोग कर पाते हैं, जबकि शरीर को नब्बे प्रतिशत बल सांसों के द्वारा ही मिलता है। तो इसके लिए प्राणायाम करिए। और चित्त की प्रसन्नता के लिए ध्यान जरूरी है। सांस ठीक प्रकार से लेना और ध्यान करना-स्वस्थ जीवन की ये दो मुख्य चाबियां हैं।
श्रीश्री ने कहा कि अपेक्षाएं न रखने का एक फायदा यह है कि आपको सबसे ज्यादा आनंद तब मिलता है जब कुछ अचानक से मिल जाए। अपेक्षाएं आनंद को कम करती हैं।     -अजय विद्युत

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