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प्राचीन चीनी योद्धा और सैन्य रणनीति के सर्वमान्य सूत्र देने वाले सुन त्सू जिस कालखंड में हुए, चीनी परंपरा के अनुसार उसे वसंत और पतझड़ का काल (रस्र१्रल्लॅ ंल्ल िअ४३४ेल्ल स्री१्रङ्म)ि कहा जाता है। सुन त्सू की उपरोक्त उक्ति दो प्राचीन राष्टÑों के लिए एक ही समय इतनी प्रासंगिक हो जाएगी, किसने सोचा था! भारत के स्वतंत्रता दिवस पर लद्दाख की पेंगोंग झील के किनारे चीनी सैनिकों ने भारतीय क्षेत्र में घुसने की कोशिश की और मुस्तैद भारतीय जवानों द्वारा वापस चीनी इलाकों में ठेल दिए गए। ऐसे में हर जेहन में घुमड़ता एक प्रश्न और ज्यादा तीखा और उत्तेजक हो गया- क्या डोकलाम को लेकर भारत-चीन के बीच युद्ध होगा?
… या फिर दोनों देश बिना युद्ध ही ‘रणनीति के चरम स्वरूप को अभिव्यक्त कर सकेंगे? अंतत: विजेता कौन होगा? निस्संदेह वही जो संयम रखेगा और सधे कदमों से आगे बढ़ेगा। डोकलाम तनातनी पर भारत और चीनी रुख पर नजर रख रहे विशेषज्ञ मान रहे हैं कि भले आहिस्ता से ही, किन्तु भारत इस मामले में वैश्विक मानदंडों के अनुसार बढ़त बनाता दिखता है। संयत कूटनीतिक प्रतिक्रिया देते हुए भारत ने जिस तरह अपनी सीमाओं की चौकसी बढ़ाई है और संवेदनशील बिंदुओं पर ध्यान देते हुए सधे कदमों से अग्रिम मोर्चों को सैन्य मजबूती दी है वह चीन की पेशानी पर बल डालने वाली बात है।
चीनी अधैर्य, निरर्थक आक्रोश के रूप में फूट रहा है। उत्तराखंड के चमोली से जम्मू-कश्मीर के लद्दाख तक चीखते, रटी हुई गालियां बकते और भारतीय सैनिकों द्वारा सख्ती से वापस धकियाए जाते सैनिकों से चीन को क्या हासिल हुआ?
युद्ध होगा या नहीं इस सवाल को हाशिए पर छोड़ते हुए ड्रेगन की इस धमाचौकड़ी ने उसे एक नए परिदृश्य में उलझा दिया है। यह चित्र उस चित्र से एकदम उलट है जिसे चीन ने बड़ी मेहनत से चार माह पहले रचा था। साहूकार चीन ने 14 मई को 29 देशों की उपस्थिति में दुनिया को ‘वन बेल्ट, वन रोड’ का सपना बेचने की कोशिश की थी। क्या डोकलाम ने उस आसमानी उफान का झाग एक झटके में नहीं बैठा दिया? साहूकार का चेहरा सबके सामने है। चीनी खेल बिगड़ता लग रहा है!
ल्ल भूटान भारत के साथ था, है, और चीनी धींगामुश्ती पर उफन
रहा है।
ल्ल नेपाल भीतर ही भीतर बुरी तरह आशंकित है।
ल्ल श्रीलंका हंबनटोटा बंदरगाह को विकसित करने के करार में कैबिनेट से बदलाव कराते हुए चीनी जाल में फंसने से पहले ही सतर्कता की मुद्रा में है।
ल्ल और भारत! भारत तो इस झांसे में कभी था ही नहीं।
‘वन बेल्ट, वन रोड’ और समुद्री रेशम मार्ग दरअसल आधा दर्जन से ज्यादा सड़क और समुद्री गलियारों के एक गुलदस्ते की तरह हैं। ऐसे रास्ते जो विश्व को चीन से जोड़ते हैं और चीन को वैश्विक आपूर्तिकर्ता के रूप में स्थापित करते हैं। यह सपना चीन की शताब्दी भर की परियोजना है। भारतीय सीमाओं पर चीनी सैनिकों के व्यवहार में जो अधीरता और भोंडा गुस्सा छलक रहा है, चीन यदि संज्ञान भी नहीं लेता तो इसका तात्पर्य यह है कि वह स्थानीय चौंकियों पर सैन्य मनोबल को थामने के लिए अपने सैनिकों को भले कुछ छूट देता दिखे, विश्व मंच पर उनकी हरकतों को सही ठहराने में उसे घबराहट हो रही है। जब चीन की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग से पत्रकारों ने लद्दाख प्रकरण पर टिप्पणी मांगी तो वे बगलें झांकने लगीं, उन्होंने कहा कि उन्हें घटना की जानकारी ही नहीं है।
तात्कालिक तौर पर कुछ लोग इसे चीन का दूसरों को धमकाने और अपनी गलतियों पर आंखें मींचे रहने का हेकड़ अंदाज समझ सकते हैं परंतु सचाई यह है कि घड़ा भर चुका है। यह कूटनीति नहीं, कूटनीतिक विफलता है जिसके कारण चीन डोकलाम में पैर फंसाने के बाद असमंजस में है और राजनयिक गलियारों में भारी सुगबुगाहट के बाद भी विश्व फलक पर चीनी राजनयिकों के होंठ सिले हुए हैं।
यह घबराहट होनी भी चाहिए क्योंकि डोकलाम छोटी जगह है और दांव कुछ ज्यादा ही बड़ा है। चीन के न चाहते हुए भी यहां एक ऐसा समीकरण तैयार हो गया है जहां अड़कर ( या फिर लड़कर भी) वह कुछ साबित नहीं कर सकता। चीन के लिए कांटे का सवाल यह है कि क्या वह इस छोटे मोर्चे पर युद्ध छेड़ने के लिए तैयार है जिसके व्यापक रूप लेने की प्रबल संभावना है!
दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी में शी जिनपिंग की राह के रोड़ों को सफलता से हटाते हुए शायद कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ चाइना के एक धड़े कोे यह गुमान हो गया कि विश्व राजनीति भी दलीय राजनीति की धौंसपट्टी की तर्ज पर चल सकती है। वे यह भूल गए कि साम्यवादी तानाशाही जहां ताकतवर बागी आवाजों को दबाने और विरोधियों के टुकड़े करते हुए चलती है, वहीं विश्व व्यवस्था में देशों की ‘प्रभुसत्ता’ और ‘अखंडता’ का सम्मान अपार महत्व रखता है।
चीन ने साम्यवाद की लीक छोड़ी। चीन ने लोकतंत्र की भी बांह खूब मरोड़ी, इस सब में वह अपने ही परंपरागत कथन, उक्तियों को, प्रतीक पुरुषों की राह भूलता चला गया। वह क्न्फ्यूशियस को तो भूला ही था, सुन त्सू की सीख भी बिसरा बैठा। युद्ध लड़े बिना दुश्मन पर काबू पा लेने की बजाय विभिन्न मोर्चों पर दुनिया के अलग-अलग देशों से झगड़ा लेते चीन के लिए निश्चित ही आगे की तरह आसान नहीं है। यदि यह उसकी रणनीति का चरम रूप है तो इस वसंत का पतझड़ तय है।
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