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आजादी के नायकों के सही मूल्यांकन का सवाल अब मीडिया में भी जगह पाने लगा है। कांग्रेस और कम्युनिस्टों की लिखी आजादी की कहानी को चुनौती मिलने लगी है। भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं सालगिरह के बहाने बरसों पुराने झूठों की पोल खुली। शायद पहली बार तथाकथित मुख्यधारा मीडिया में भी सवाल दिखाई दिया कि क्या देश की आजादी का श्रेय सिर्फ कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार को दिया जाना चाहिए? चैनलों और अखबारों में इस पर बहसें हो रही हैं। यह स्थिति मीडिया के उस तबके के लिए बौखलाने वाली है जिनके लिए गांधी परिवार की सर्वोच्चता को स्थापित करना मानो एकमात्र शर्त रही है।
जी न्यूज ने आजादी का वह सच दिखाया जिसे आम भारतीयों की नजरों से छिपाकर रखा गया। 15 अगस्त, 1947 से पहले देश के कई इलाके आजाद करा लिए गए थे। वह आजादी कांग्रेस की लाई हुई नहीं थी। उसके पीछे उन हजारों-लाखों क्रांतिकारियों का हाथ था जो कांग्रेस से हताश थे। ऐसी कई छिटपुट कहानियां पहली बार मुख्यधारा मीडिया से लेकर सोशल मीडिया की बहसों तक में जगह पा रही हैं। उधर, कांग्रेस प्रायोजित कुछ चैनल इसी बात में उलझे रहे कि संसद में प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में नेहरू का नाम नहीं लिया। उन्हें इस बात की चिंता नहीं कि कांग्रेस पार्टी ने कैसे योजनाबद्ध तरीके से वीर सावरकर जैसे न जाने कितने नायकों के योगदान को संदिग्ध बनाने की कोशिश की।
उधर, युद्ध के उन्माद में मतवाले हो रहे चीन के प्रति वामपंथी मीडिया का प्रेम लगातार खुलकर सामने आ रहा है। इंडियन एक्सप्रेस ने तो सोशल मीडिया पर पोस्ट की अपनी एक रिपोर्ट में यह बता दिया कि भूटान ने मान लिया है कि डोकलाम चीन का हिस्सा है। खबर को विस्तार से पढ़ने पर असलियत सामने आती है। सीमा विवाद में वामपंथी मीडिया शुरू से ही चीन के साथ है। सोशल मीडिया पर यह बात पकड़ी भी जा चुकी है। लोग ऐसे अखबारों, चैनलों और पत्रकारों पर सवाल भी उठा रहे हैं। जरूरी है कि मीडिया के इस चीन-परस्त तबके की सच्चाई ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे।
उधर, उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर आसीन हामिद अंसारी पूरे देश की बजाय एक समुदाय के नेता बनकर विदा हुए। अखबारों और चैनलों ने उनके इस बयान को खूब तूल दी कि देश के मुसलमानों में असुरक्षा है। मीडिया को ऐसे बयानों की जरूरत रहती है ताकि वह इससे पैदा विवाद का फायदा उठाकर दर्शक कमा सके। लेकिन इस कोशिश में उपराष्ट्रपति के तौर पर हामिद अंसारी के योगदान और राज्यसभा में उनकी भूमिका की समीक्षा रह गई। वरना यह तस्वीर साफ हो जाती कि उनकी चिंता मुसलमान नहीं, बल्कि वह पार्टी है जिसके साथ वे जुड़े रहे हैं।
केरल में संघ के स्वयंसेवकों की हत्या के गंभीर सवाल को मीडिया ने फुटबॉल का मैच बना दिया। जिस तरह से गोल गिने जाते हैं, उस तरह से मीडिया दोनों तरफ मारे गए लोगों की संख्या दिखा रहा है। बिना यह सोचे कि वह जो आंकड़े दिखा रहा है, उनका आधार क्या है। माकपा की अंदरूनी राजनीति में मारे गए कार्यकताअरं को भी इस ग्राफ में दिखाकर वह बेहद चालाकी से यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि केरल में चल रही राजनीतिक हिंसा में संघ भी बराबरी का दोषी है। इंडिया टुडे पर राजदीप सरदेसाई के कार्यक्रम में माकपा की तरफ से जारी किया गया अपुष्ट वीडियो जमकर चलाया गया यह दावा करते हुए कि इस वीडियो में संघ हिंसा की वकालत कर रहा है। एनडीटीवी पर तो केरल के मुख्यमंत्री का एक इंटरव्यू प्रसारित किया गया, जिसमें वे एंकर के सवालों पर एक कागज पढ़कर जवाब दे रहे थे। यह इंटरव्यू भी उस दुष्प्रचार का हिस्सा था जो वामपंथी मीडिया लगातार कर रहा है।
खास बात यह कि केरल पर पूरे विमर्श में बड़ी ही चतुराई से इस्लामी कट्टरपंथी हिंसा की बात गायब कर दी जाती है। मीडिया इस बात का जिक्र तक नहीं करना चाहता कि केरल में किस बड़े पैमाने पर इस्लामीकरण हो रहा है। महाराष्ट्र शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में बदलाव को भी कुछ चैनलों और अखबारों ने खूब तूल दिया। चूंकि सरकार भाजपा की है इसलिए मीडिया बिना सोचे-समझे या तथ्य को जाने किसी भी सुधार को भगवाकरण का नाम दे देता है। एनडीटीवी और न्यूज18 चैनलों पर इसी बात को लेकर काफी देर तक मातम हुआ कि कोर्स में बोफर्स घोटाले और आपातकाल में हुई घटनाओं का चैप्टर भी डाला गया है।
खुद को बहुत जागरूक और जिम्मेदार साबित करने वाले समाचार चैनल टीआरपी के लिए इन दिनों चोटीकटवा की तलाश में हैं। लगभग सभी चैनलों पर यह खबर छाई हुई है। अफवाहों की चोटी में बंधा मीडिया इस पागलपन को बढ़ावा देने में जुटा हुआ है, मानो कोई राष्ट्रीय आपदा आ गई हो। हाथरस में एक गरीब भिखारी को भीड़ ने पकड़ कर पुलिस को सौंप दिया, तो आजतक चैनल ने ब्रेकिंग न्यूज चलाई कि चोटी काटने के मामले में पहली गिरफ्तारी। इसी से हम समझ सकते हैं कि मीडिया जैसी जिम्मेदार संस्था आज किस तरह के लोगों के हाथ में है।
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