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विशाल भारत की शिक्षा और काम-काज के ढर्रे में बसा औपनिवेशिक दासता का भाव आज भी पूरी तरह नहीं गया है। यह बेड़ी घिसी जरूर, लेकिन टूटी नहीं। सामाजिक चेतना की नई करवट जब नए समीकरण तैयार कर रही है तब इस बेड़ी का टूटना तय है।
हितेश शंकर
हाथी के बच्चे को पालतू बनाने के लिए उसके पांव में जंजीर का फंदा लगाकर खूंटे से बांधा जाता है। अपनी बेबसी पर झुंझलाता, रोता बच्चा जब छूटने की आस टूटने पर थक-हार बैठ जाता है तो महावत उसे दुलारते-पुचकारते हैं। गुड़-चावल की रोटी और केले अथवा गन्ने की गंडेरियों से ‘दावत’ होती है। निवालों के बीच-बीच में हाथ रोककर सिखाए जाते हैं इशारे। इशारा समझो, आज्ञा मानो और तब दाना-दुनका पाओ।
नन्हा हाथी संकेतों को समझने, उनके अनुसार प्रतिक्रिया देने और बदले में गुड़-चावल का पुरस्कार पाने में ऐसा उलझता है कि यह भूल ही जाता है कि उसकी आंखों में आंसू क्यों थे, जंजीर का दर्द क्या था और आजादी की राह में यह खूंटा कैसा खलनायक की तरह अड़ा था। याद रह जाता है सिर्फ इशारों पर सिर हिलाना।
ऐसा नहीं है कि महावत और हाथी के बीच की यह कहानी केवल इनसान और जानवर तक सीमित है। मनुष्य को मनुष्य न मानने वाली कबीलाई अथवा औपनिवेशिक सोच ने इनसानों के साथ भी यह खेल खूब खेला है।
दास प्रथा को संभ्रांत समाज के सीने पर तमगे की तरह टांकने वालों ने कालांतर में बिना बेड़ियों के गुलाम तैयार करने के लिए खूंखार सोच को और पैना किया और साम्राज्यवादी धौंकनी को जान देते रहे। भारत ‘मानसिक दासता’ का जाल फैलाने वालों के लिए बड़ी आखेट भूमि रहा है।
आजादी से पहले और बाद तक, इतिहास के प्रामाणिक पन्नों को आज तक बच्चों को घोट-घोट कर पढ़ाए जाने वाले सबकों के समानांतर रखें तो सिर्फ तथ्यों से घालमेल की बात सामने नहीं आती। यह भी पता चलता है कि औपनिवेशिक इतिहासकारों और बाहर से आकर एकाएक भारतविद् (इंडोलॉजिस्ट) बन बैठे लोगों का एक सिलसिला है। रिले रेस की तरह.. भ्रामक सिद्धांतों का एक व्याख्याकार जहां थमता है वहां से एक नया व्याख्याकार उस ‘झूठ की पालकी’ के कहार के तौर पर आ जमता है।
क्या इसे केवल संयोग कहा जाएगा कि ब्रिटिश राजशाही से सत्ता के हस्तांतरण के साथ ही समाज में कटुता और दरार पैदा करने वाली भ्रामक व्याख्याओं का जुआ सत्ता-प्रश्रय प्राप्त वामपंथी इतिहासकारों ने खुशी-खुशी उठा लिया?
क्या जाने वाले साम्राज्यवादियों, उनकी जगह आने वाले सत्ताधारियों और इतिहास के व्याख्याकार के तौर पर इतने वर्ष झूठ का ढोल पीटने वाले कथित इतिहासकारों के परस्पर लेन-देन और हितों के संदिग्ध साझापन पर बात नहीं होनी चाहिए?
वामपंथ का पूंजीवाद से यह आलिंगन विश्लेषण योग्य है। इस ठेकेदारी में अटपटे भारत विरोधी तर्कों का पूंजीवादी निवेश है। वामपंथी-समाजवादी बुद्धिजीवी न सिर्फ ठेकेदार हैं बल्कि साम्राज्यवाद को भारत में उसके घातक निवेश पर लाभ की गारंटी देते रहे हैं। वामपंथियों की खुशी दोहरी थी और इसका आजादी से कोई लेना-देना नहीं था। पहली वजह यह कि उन्हें विविध नीतिगत-वैचारिक क्षेत्रों में सत्ता का प्रत्यक्ष-परोक्ष संरक्षण मिला। दूसरी यह कि उन्हें अपने लांछित अतीत पर मिट्टी डालने का मौका मिला।
क्या यह सिर्फ संयोग है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस को गरियाने वाली, उन्हें ‘तोजो का कुत्ता’ कहने वाली विचारधारा आज भारत और लोकतंत्र की अवधारणा पर भाषण देती है!
यह मुखौटा कहां से आया और तथ्य कहां गए?
कुछ चौंकाऊ किन्तु जरूरी सवाल उभरते हैं-
-भारत छोड़ो आंदोलन में वामपंथी अंग्रेजों का साथ दे रहे थे, इतिहास में दर्ज यह बात भारत में क्यों नहीं पढ़ाई जाती?
– डॉ. हेडगेवार ने अंग्रेजों के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा झेला और इसके लिए उन्हें 19 अगस्त, 1921 से 11 जुलाई, 1922 तक कारावास भी हुआ। रिहा होने पर उनके स्वागत-सम्मान में नागपुर में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ जिसमें प्रांतीय नेताओं के अतिरिक्त हकीम अजमल खां, पंडित मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डॉ. अंसारी और विट्ठलभाई पटेल जैसे कांग्रेसी दिग्गज जुटे थे, यह बात इस देश के बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाई जाती?
-आर्य आक्रमण का सिद्धांत एक गढ़ा हुआ सिद्धांत था जो विज्ञान की कसौटी पर दुनिया भर में खारिज हो चुका है। फिर भारत में इसे आज भी पढ़ाए जाने की क्या तुक है?
-जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के सर्वमान्य नेता नहीं थे और पार्टी के भीतर सरदार पटेल का कद और स्वीकार्यता उनसे ज्यादा थी। भारत की स्वतंत्रता और पहले प्रधानमंत्री के चयन के दौरान दर्ज किया गया यह महत्वपूर्ण तथ्य पाठ्यपुस्तकों से क्यों गायब है?
-गुरदासपुर जिला हिन्दू बहुल होने के बाद भी पाकिस्तान को देने की तैयारी थी। ऐसा होता तो शेष भारत को कश्मीर से जोड़ने वाला कोई रास्ता ही न बचता। ऐसे आड़े वक्त में रा. स्व. संघ के स्वयंसेवकों ने जान जोखिम में डालकर जनसंख्या की सही जानकारी जुटाई और सीमा निर्धारण आयोग को निर्णय बदलने के लिए बाध्य किया। यह बात आज कितने लोग जानते हैं?
-विभाजन के वक्त जब कई नेता भविष्य की राजनीतिक पारियों की तैयारियों में डूबे थे, संघ के कार्यकर्ता पंजाब की ही तरह जम्मू-कश्मीर, बंगाल और असम में शिविर लगाकर शरणार्थियों की सहायता कर रहे थे। जम्मू-कश्मीर में पं. प्रेमनाथ डोगरा की अध्यक्षता में सहायता समिति गठित की गई थी और इसके द्वारा 15 मार्च, 1947 से लेकर 10 अक्तूबर, 1947 के बीच कम से कम तीन लाख लोगों को मदद पहुंचाई गई थी। इस तथ्य के लिए पाठ्यपुस्तकों में जगह क्यों नहीं है?
हर इतिहास का एक भूगोल होता है, उसे जांचने-परखने के लिए तर्क और विज्ञान की कसौटियां होती हैं। इतिहास का कोई वाम और दक्षिण नहीं होता। क्या यह बात हैरान नहीं करती कि भारत के इतिहास पर वामपंथी एक अरसे से कुंडली मारे बैठे हैं! वे सिर्फ बैठे नहीं हैं, बल्कि आज भी ज्ञान का हर सूत्र पश्चिम से जोड़ने और भारत को हीन बताती उसी मानसिकता से भरे बैठे हैं, जिसका ठेका कभी साम्राज्यवादियों के पास था।
सवालों की उपरोक्त सूची अंतहीन हो सकती है। यह तय बात है कि समाज और राजनीति की धाराएं तय करने वाले कई ऐसे मुद्दे हैं जिनके साथ ऐतिहासिक धोखाधड़ी हुई है। अब इस गलती को ठीक करने के लिए समाज स्वयं जाग रहा है। विमर्शों में, सोशल मीडिया पर सत्य-संधान का, जिज्ञासु युवाओं का एक अपूर्व उफान दिखता है।
अभी 1 अगस्त को पाञ्चजन्य ने नई दिल्ली में नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी में इस विशेषांक के निमित्त दिनभर की एक संगोष्ठी आयोजित की। विषय था ‘दासता का दांव और निवृत्ति’। संगोष्ठी की औपचारिक आधारभूमि नीरज अत्री और मुनीश्वर सागर द्वारा लिखित ‘बे्रनावाश्ड रिपब्लिक’ पुस्तक रही। दासत्व भाव के अनेक आयामों और समस्या के निदान पर विषय विशेषज्ञों की प्रस्तुतियों और विमर्श का यह आयोजन ऐसा रहा जिसने बहस को तार्किक परिणिति देते हुए कई नए संदर्भ दिए। संगोष्ठी में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विषयों पर जो प्रस्तुतियां दीं, वे आलेख रूप में इस अंंक में समाहित हैं।
उपनिवेशवाद के ‘बौद्धिक प्यादों’ के कारनामों के प्रति आज समाज में एक उफान दिख रहा है। ऐसे में विमर्श को तथ्यपूर्ण सकारात्मक दिशा देना और इतिहास की आड़ में हो रही इस धोखाधड़ी को उजागर करना पाञ्चजन्य अपना कर्तव्य मानता है। सो, इस स्वतंत्रता दिवस का विशेषांक ‘दास मानसिकता’ का जाल फेंकने वालों की मंशा ध्वस्त करने के नाम।
यह जरूरी है, क्योंकि महावत और उनके अंकुश गए, उनके साम्राज्य भी गए किन्तु विश्व जिसे ‘एशियन एलिफेंट’ की उपाधि से अलंकृत करता है, उस विशाल भारत की शिक्षा और काम-काज के ढर्रे में बसा औपनिवेशिक दासता का भाव आज भी पूरी तरह नहीं गया है। यह बेड़ी घिसी जरूर, लेकिन टूटी नहीं। सामाजिक चेतना की नई करवट जब नए समीकरण तैयार कर रही है तब इस बेड़ी का टूटना तय है। राष्टÑीय विचारों के प्रसार के आग्रही लोगों द्वारा दी गई हर आहुति इस वैचारिक दासता की धुंध को नष्ट करने का काम करेगी, यह भी तय है। भारत सोया था। भारत उठ रहा है।
उठो! क्योंकि गलत तथ्यों की गली हुई जंजीर तुम्हें कब तक बांध सकती है! ढह चुके साम्राज्यों का झूठा खूंटा कब तक तुम्हारे कदम रोक सकता है! इसलिए भी उठो, कि तुम आंसू बहाते शावक नहीं, अब विराट, बलशाली गजराज हो!
सारा हिंदुस्तान गुलामी में घिरा हुआ नहीं है। जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा पाई है और जो उसके मोहपाश में बंध गए हैं, वे ही गुलामी में घिरे हुए हैं।
—महात्मा गांधी
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