|
– पूनम नेगी –
सोलह कलाओं से परिपूर्ण योगेश्वर श्रीकृष्ण का समूचा जीवन धार्मिक, नैतिक, सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन की दृष्टि से एक युगांतरकारी अवतरण माना जाता है। 'यदा-यदा हि धर्मस्य…संभवामि युगे-युगे' का उद्घोष करने वाले युगनायक कृष्ण ने असुरत्व के विनाश और देवत्व के संरक्षण के लिए धरती पर अवतार लेकर समग्र क्रांति का बिगुल बजाया और अपने सम्मोहक व्यक्तित्व व अनूठे न्यायप्रिय आचरण से समाज को सही दिशा दी। उनका गीता ज्ञान सार्वकालिक व सर्वसामयिक है। उनका हर शब्द आज पांच हजार साल बाद भी अक्षरश: चरितार्थ हो रहा है। उनकी शिक्षाएं सिर्फ सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए ही नहीं वरन् पूरी मानव जाति के लिए अनुकरणीय हैं। आजाद भारत में परमाणु ऊर्जा के साधक डा. होमी जहांगीर भाभा और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम श्रीकृष्ण के विचारों से इतने प्रेरित थे कि दोनों कई बार अपने वक्तव्य में गीता से उद्धहरण देते थे। एक परमाणु ऊर्जा सम्मेलन, जिसमें 77 देशों के वैज्ञानिक उपस्थित थे, को सम्बोधित करते हुए डा. भाभा ने कहा था, ''मुझे श्रीकृष्ण का चरित्र व उनका जीवन दर्शन अत्यन्त प्रेरणा देता है। वे अनुपम राष्ट्रपुरुष हैं और उनकी शिक्षाएं चिर प्रासंगिक हैं।''
भाद्रपद माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की अर्धरात्रि को विशिष्ट ग्रहीय दशाओं में कारागार में जन्मे इस महामानव का समूचा जीवन अपूर्व तेजस्विता का पर्याय है। श्रीकृष्ण आध्यात्मिकता के शिखर कहे जाते हैं। वे कर्मयोगी भी थे और कर्म से निवृत्त प्रखर संन्यासी भी। जीवन के विभिन्न आयामों को एक साथ अधिकारपूर्वक जीना सिर्फ उनके ही बूते की बात थी। युगनायक श्रीकृष्ण अपने समय के सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक थे, तो प्रजा-वत्सल राजा तथा सुयोग्य प्रशासक भी। सार रूप में कहें तो कृष्ण का विराट व्यक्तित्व अनेक क्षेत्रों में विस्तारित था।
श्रीकृष्ण का आसुरी शक्तियों के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष उनके जन्म के साथ ही प्रारंभ हो गया था। कारागृह में जन्म, यमुनापार कर गोकुल में नंद यशोदा के पुत्र रूप में पालन-पोषण, बालपन में पूतना, बक, अघ जैसे असुरों और कालिय नाग का दमन; किशोरवय में राधा व गोपियों से हंसी-ठिठोली तथा कंस वध कर माता-पिता को कारागार से मुक्ति। आसुरी शक्तियों का नाश कर उन्होंने यह संदेश दिया कि हर बुराई की अंत अवश्यम्भावी है। इसी तरह बालकृष्ण की माखन चोरी, गो चराने वन में जाने व गोपियों के साथ सखाभाव की लीलाओं के पीछे भी शिक्षाप्रद दर्शन निहित है। श्रीकृष्ण के युग में गोपियां दूध, दही, मक्खन बेचने मथुरा जाती थीं। जो ग्वाल-बाल सारे दिन गायों तो चराएं उन्हें ही दूध-मक्खन न मिले और दुष्ट कंस व उसके संगी-साथी उनका सेवन करें, यह कान्हा को असहनीय था। इसी की प्रतिक्रिया थी गोपियों के मक्खन की चोरी।
भगवान श्रीकृष्ण को 'गोपाल' सम्बोधन अत्यन्त प्रिय था। श्रीकृष्ण जहां स्वयं गो चराने वन में जाते हैं वहीं उनके बड़े भाई बलराम हलधर कहलाना पसंद करते हैं। एक भाई हल संभाले अर्थात कृषि कार्य करे और दूसरा भाई गोपालन, यह भगवान श्रीकृष्ण का भारतीय समाज की भौतिक उन्नति का मूलमंत्र है जो आज भी उतना ही सार्थक व प्रासंगिक है जितना द्वापर युग में था। भारतीय दर्शन में गोवंश को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना गया है। गाय, दूध व छाछ के रूप में हमें अपना अमृत प्रदान करती है। अन्यथा यदि वह दूध न भी दे तो भी उसकी उपयोगिता कम नहीं होती। अब तो वैज्ञानिक प्रयोगों से भी साबित हो चुका है कि गोमूत्र, गोमय व पंचगव्य से अनेकानेक उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कर बेरोजगारी की समस्या भी काफी हद तक दूर की जा सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार यदि गाय के दूध से बने घी से यज्ञ की आहुतियां दी जाएं तो वे हजार गुना सूक्ष्म होकर पर्यावरण के बहुत बड़े भाग की शुद्धि करती हैं। इसके द्वारा वायु में निरन्तर मिल रही विषाक्त गैसों को हानिरहित बनाने और आणविक विकिरण के घातक प्रभावों से रक्षा करने का बड़ा प्रयोजन पूरा होता है।
श्रीकृष्ण के युग में वर्षा ऋतु में प्रतिवर्ष यमुना की बाढ़ भारी तबाही मचाती थी। बाढ़ से रक्षा हेतु बृजवासी इन्द्र की पूजा किया करते थे। श्रीकृष्ण को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने इस आपदा से निपटने के लिए सामूहिक पुरुषार्थ की महत्ता को समझाने हेतु बृजवासियों से कहा कि बाढ़ से रक्षा पूजा-पाठ जैसे कर्मकांडों से नहीं वरन् सामूहिक प्रयास से ही हो सकती है। उन्होंने बृजभूमि की रक्षा हेतु बृजवासियों को एकत्र कर गिरिराज धारण किया और इंद्र को अतिवृष्टि से रोका। श्रीकृष्ण ने ग्वाल-बालों को अपना सखा बनाकर समाजिक समरसता का पाठ पढ़ाया। उन दिनों की यमुना में महिलाएं निर्वस्त्र स्नान किया करती थीं, इस अवांछनीय परम्परा के निराकरण हेतु उन्होंने 'चीरहरण' का प्रसंग रचा। स्नान के बाद जब गोपियों को पता चला तो वे कृष्ण से मिन्नतें करने लगीं। कृष्ण ने आगाह करते हुए कहा कि नग्न स्नान से मर्यादा भंग होती है और जल के देवता वरुण का अपमान होता है। यह शिक्षण देकर उन्होंने वस्त्र लौटा दिए। इस कृत्य में उनका कुरीति उन्मूलन का दृष्टिकोण स्पष्ट झलकता है।
इसी तरह उन्होंने मित्रधर्म का आदर्श रूप समाज को बताया। स्वयं राजा होते हुए भी निर्धन मित्र सुदामा को अपने सिंहासन पर बिठा कर उसके पैर धोए, बिना बताए उसकी मदद की ताकि उसके स्वाभिमान को चोट न पहुंचे। उन्होंने महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चरण धोने व जूठी पत्तलें उठाने का काम करके श्रम व सेवा की महत्ता का प्रतिपादन किया। आज हम पर्यावरण प्रदूषण, ऊर्जा संकट व बेरोजगारी जैसी समस्याओं से परेशान हैं। इनका समाधान गो-पालन के माध्यम से सहज हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण के भाव को अगर हम ठीक प्रकार समझें तो कृषि की कई समस्याओं से आसानी से निपटा जा सकता है। श्रीकृष्ण चाहते थे कि गाएं अधिकाधिक हों, गो-पालन को आंदोलन का रूप दिया जाए, जिसके यहां जितनी अधिक गायें हों, उसे समाज का उतना ही अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति समझा जाए। यदि व्यापक जनांदोलन चलाकर देशी गाय के लाभों से जन सामान्य को अवगत कराया जा सके तो गाय तो बचेगी ही; गोहत्या बन्द करने का आन्दोलन भी सफल हो सकेगा।
श्रीकृष्ण ने जीवन में प्रेम के आयाम को नवीन विस्तार और व्यापकता प्रदान की। उन्हें प्रेमावतार यूं ही नहीं कहा जाता। उनका 'महारास' अध्यात्म की उच्चतम अवस्था का प्रतीक है। भारतीय दर्शन कहता है कि प्रेम कभी भी शरीर की अवधारणा में सिमट नहीं सकता। प्रेम हर बंधन से परे एक अलौकिक आत्मशक्ति है। राधा वस्तुत: श्रीकृष्ण के जीवन का वह उच्चतम आध्यात्मिक पृष्ठ है, जहां द्वैत व अद्वैत का दिव्य मिलन होता है। 'रास' का अर्थ भी गूढ़ व व्यापक है। यूं आम अर्थ में समझें तो जहां रस मिले, मन व आत्मा आनन्दित हो, वह रास है। मगर गूढ़ अर्थ में रासलीला यानी आत्मा और परमात्मा का मिलन। परमात्मा ही रस है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल में ही गोपियों को ब्रह्म ज्ञान प्रदान किया था। रसाधार श्रीकृष्ण का राधा व गोपियों के साथ नृत्य ही परोक्ष रूप से जीव के ब्रह्म से मिलन का महापर्व यानी महारास है। हर गोपी को पूर्ण कृष्ण के साथ नृत्य का अनुभव कराना असामान्य घटना थी। यह घटना 'शतपथ ब्राह्मण' में वर्णित इन्द्र की सहस्र अप्सराओं के साथ नृत्य करने जैसी है। कृष्ण की इस महाचेतना को श्री अरविन्द 'ओवर माइंड' कहते हैं। उनकी दृष्टि में कृष्ण का महारास ईश्वरीय प्रयोजन, निशा व्यामोह, स्वार्थ व संकीर्णता की परिधि के साहसपूर्ण उल्लंघन का प्रतीक है।
सामान्य अर्थ में कृष्ण शब्द का अर्थ होता है काला या अंधेरा। वस्तुत: उनका वास्तविक नाम था कृष्ण चंद्र जिसका अर्थ होता है अंधेरे का चांद। यानी ऐसा दिव्य मानव जो अंधेरे में रोशनी फैला दे। महाभारत में स्थान-स्थान पर आता है-'यतो धर्म: ततो कृष्ण:, यतो: कृष्ण: ततो जय:' यानी जहां धर्म है वहां कृष्ण हंै और जहां कृष्ण हंै वहीं विजय है। सीमित दृष्टिकोण के कतिपय विचारकों को द्रोण, कर्ण व दुर्योधन वध के प्रसंगों में कृष्ण की सलाह संभवत: अन्यायपूर्ण लग सकती है, परन्तु उनके इस कृत्य के पीछे राष्ट्ररक्षा का मूल भाव ही निहित था। उन्होंने आजीवन धर्माचरण किया था। वे पूर्ण सत्यवादी और निष्कलंक थे, इसकी पुष्टि युद्धोपरांत अभिमन्यु व उत्तरा के पुत्र को जीवित करने के लिए श्रीकृष्ण की उस उक्ति से होती है जब वे पूरे विश्वास के साथ कहते हैं, 'यदि मैंने सदैव सत्य और धर्म का ही अवलंबन लिया हो तो यह मृत बालक जीवित हो जाए', और बालक सचमुच जीवित हो जाता है। श्रीकृष्ण में संपत्ति, युद्ध या राज्यविस्तार की रंचमात्र भी लिप्सा नहीं थी।
उन्होंने समाज में न्याय व शांति की स्थापना के लिए कंस, शिशुपाल, जरासंध व नरकासुर जैसे स्वार्थी-अत्याचारी राजाओं का वध किया था, पर उनके राज्यों पर कभी अपना हक नहीं जताया। वे राज्य उन्हीं के योग्य उत्तराधिकारियों को सौंप, उदाहरण के लिए, मथुरा में उग्रसेन, मगध में जरासंध के पुत्र सहदेव को और नरकासुर के राज्य की बागडोर उसके पुत्र भगदत्त को सौंप दी। उनकी नीति थी कि जनकल्याण के लिए दुष्टों और आततायियों को मारना पाप नहीं वरन् राष्ट्रधर्म होता है। उन्होंने आजीवन इसी धर्मनीति का अनुसरण किया। पांडव-कौरवों का युद्ध रोकने के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयत्न किये, स्वयं शांतिदूत बने और संधि प्रस्ताव रखा, किन्तु जब दुष्ट, उन्मादी, अहंकारी दुर्योधन की राज्यलिप्सा के चलते युद्ध अवश्यम्भावी हो गया तो उन्होंने गीता का ज्ञानामृत देकर अर्जुन को युद्ध की अनिवार्यता समझायी। श्रीकृष्ण ने कौरवों के अन्याय का विरोध कर पाण्डवों के न्यायपूर्ण पक्ष का साथ दिया और युद्धभूमि में मोहग्रस्त अर्जुन को गीता ज्ञान के माध्यम से 'निष्काम कर्म' व 'जीवन की निरन्तरता' का उपदेश देकर उसके ज्ञान चक्षु खोले। श्रीकृष्ण की यह नीति वर्तमान परिस्थितियों में भी पूर्ण
प्रासंगिक है।
श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ थे, फिर भी उन्होंने अनेक मौकों पर लोकहित के लिए अपमान व आक्षेप सहे, लेकिन कर्तव्यपरायणता से जरा भी विमुख न हुए। स्यमंतक मणि की चोरी कृष्ण ने की होगी, ऐसी शंका उनके अग्रज बलराम को भी हुई थी। उन्होंने अपने फुफेरे भाई शिशुपाल की सौ गलियां सुनीं। बिना किसी दोष के गांधारी का श्राप सहा। अपने गुरु का ऋण उतारने के लिए यम के पाश से अपने गुरु भाई तक को छुड़ा लाये, ऐसा साहस सिर्फ उन जैसा अप्रतिम साहसी ही कर सकता था।
मथुरा को कंस के अत्याचार से मुक्त करने के बावजूद जब उनके स्वजनों ने कृष्ण और बलराम को मथुरा छोड़कर चले जाने को कहा, तब उन्होंने उनकी आज्ञा मान कर सैकड़ों कोस दूर सौराष्ट्र (गुजरात) में समुद्र के मध्य एक अनूठी द्वारिका नगरी बसायी। पुरातात्विक शोधों में मिले द्वारिका के अवशेष श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता को साबित करते हैं। श्रीकृष्ण के जीवन में ज्ञान और कर्म, श्रेय और प्रेय, प्रवृत्ति और निवृत्ति, क्षात्रबल और ब्रह्मबल, प्रेम और त्याग का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। कृष्ण के जीवन में वैदिक धर्म और भारतीय संस्कृति का सार निहित है। उन्होंने अपने ज्ञान का उपयोग लोगों को धर्म का सरल और सुगम रूप सिखाने में किया। वे योगीराज थे पर उन्होंने अपने योगबल और सिद्धि की सार्थकता लोगमंगल के कार्यों में झलकाई। अर्जुन को गीता का उपदेश देकर वे न सिर्फ कर्मण्येवाधिकारस्ते की व्याख्या करते हैं वरन् अपना विराट रूप दिखाकर उनका मोहभंग भी करते हैं। महाभारत युद्ध में पांडवों की जीत का श्रेय श्रीकृष्ण की कूटनीति को ही जाता है। कर्म की निरंतरता उनको अवतारी सिद्ध करती है। कर्मयोगी श्रीकृष्ण के विचारों पर केवल हिन्दू ही नहीं वरन समूचे विश्व के लोग विश्वास रखते हैं और दुनिया के कोने-कोने से बड़ी तादाद में लोग ब्रज में श्रीकृष्ण की नगरी और उनके लीलास्थलों को देखने आते हैं।
हम प्रतिवर्ष भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाते हैं। इस अवसर पर उनके दर्शन हेतु भारी संख्या में भक्त तो उमड़ते हैं, मथुरा, गोकुल, ब्रज व गोवर्धन की परिक्रमाएं तो करते हैं, लेकिन उनके सिद्धांतों व आदर्शों को अपने अंतस में नहीं उतारते। गाय को टीका लगाकर उसके पैर तो छू लेते हैं, लेकिन उसका दूध निकालकर उसे पॉलीथीन व कचरा खाने के लिए छोड़ देते हैं। यह कैसा अध्यात्म, कैसा धर्म? आज यदि प्रत्येक कृष्णभक्त श्रीकृष्ण के क्रांतिकारी स्वरूप को समग्र रूप में आत्मसात कर उनके सिद्धांतों पर अमल करे तो वर्तमान युग की अनेक ज्वलंत समस्याओं का समाधान काफी हद तक सहज ही हो सकता है। जन्माष्टमी के इस पावन पर्व को उत्साहपूर्वक मनाकर भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाओं को जीवन में उतारें, तभी इस पर्व की सार्थकता है। ल्ल
टिप्पणियाँ