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9 जुलाई, 2017
आवरण कथा ‘ब्रह्म हैं गुरु’ से स्पष्ट होता है कि भारत में गुरु-शिष्य परंपरा का एक अलग स्थान है। भारत ही ऐसी धरती है जहां गुरु को भगवान से भी ऊंचा दर्जा दिया गया है। सत्य यही है कि गुरु के सान्निध्य में आने के बाद व्यक्ति को अच्छे और खराब का भान होता है। अब न तो ऐसे गुरु रहे और न ही शिष्य। ऐसे में भारत की विशिष्ट परंपरा को फिर से जीवित करने का समय है।
—राधाकृष्णन भार्गव, मालवीय नगर(नई दिल्ली)
हमारे देश में बहुत से ऐसे गुरु हुए हैं जिन्होंने अपने प्राणों का बलिदान देकर देश-धर्म की रक्षा करने वाले शिष्य तैयार किए। लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने इन सभी गुरुओं के नाम, काम आदि को दबा दिया, जिसके चलते वर्तमान पीढ़ी बहुत सी महान विभूतियों के बारे में नहीं जानती। आज ऐसे गुरुओं के बारे में युवा पीढ़ी को बताने की जरूरत है।
—सोमदत्त खन्ना, सरवाल (जम्मू-कश्मीर)
अब क्यों हैं चुप?
‘ममता चलीं अंग्रेजों की चाल (9 जुलाई, 2017)’ रपट प. बंगाल में ममता सरकार के दमन से पर्दा हटाती है। असहिष्णुता का राग अलाप कर देश के माहौल को खराब करने वाले तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवियों को प.बंगाल में हिन्दुओं पर हो रहे जुल्म दिखाई नहीं देते, क्यों?
—मनोहर मंजुल, प.निमाड़(म.प्र.)
जब से केन्द्र में मोदी सरकार बनी है तब से ममता बनर्जी परेशान हैं। वे निरर्थक बयानबाजी करके मीडिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। जबकि उनके अपने राज्य की हालत ठीक नहीं है एक तरफ गोरखालैंड समस्या चरम पर है। वहीं दूसरी तरफ राज्य में बढ़ते मजहबी उन्माद पर उनका कोई अंकुश नहीं रह गया है। इसके चलते राज्य के हिन्दुओं में असंतोष व्याप्त है। लेकिन ममता को इससे कोई मतलब ही नहीं। उन्हें मतलब है तो सिर्फ मुस्लिमों से।
—हरीशचन्द्र धानुक, लखनऊ(उ.प्र.)
पश्चिम बंगाल में मजहबी उन्मादियों से हिन्दू परेशान हैं। यह अकेले बंगाल की स्थिति नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, कश्मीर एवं अन्य कई राज्य इनके आतंक से परेशान हैं। इस्लाम के नाम पर आतंकवाद को बढ़ाने की कोशिश में लगे मजहबी कट्टरवादियों का हिन्दू समाज को अब खुलकर विरोध करना चाहिए।
— वी.एस.शांताबाई, बेंगलुरू(कर्नाटक)
इतनी शेखी ठीक नहीं
रपट ‘ओबोर नहीं, ओसोर चाहिए (9 जुलाई,2017)’ चीन की पोल खोलती है। लेकिन वह आएदिन भारत को घुड़की देने से बाज नहीं आ रहा। उसकी कथित जन मुक्ति सेना (पीएलए) के 90-साल के जश्न पर राष्टÑपति शी जिनपिंग ने जम कर शेखी बघारी। उनके अनुसार चीनी फौज अपराजेय है। जबकि पिछले 50 वर्ष का इतिहास तो कुछ और ही बताता है। 1969 में उसूरी नदी पर रूसी सैनिकों के एक दस्ते को चीनियों ने घात लगाकर मार डाला था। अपने लगभग 80 जवानों की शहादत का बदला लेने के लिए रूस ने तब चीन के 800 फौजी मार गिराए थे। पीएलए मोर्चे से गीदड़ों जैसी भागती नजर आई थी। इसके 2 वर्ष पूर्व 1967 में बिल्कुल ऐसी ही घटना में चीनी फौज को सिक्किम के नाथुला व चोला में भारतीय सेना ने शिकस्त दी थी। पर पांच दशक में चीनियों को सबसे अपमानजनक पराजय नन्हे से वियतनाम द्वारा 1979 में मिली जब ड्रैगन की 2 लाख की फौज उस पर चढ़ आई थी। अमेरिका का दंभ चूर-चूर करने वाले वियतनाम ने चीन को उसी की भाषा में जवाब देते हुए उसके 63,000 सैनिक यमलोक भेज दिए, जबकि उसे स्वयं 26,000 जवान ही गवाने पड़े। इसी पीएलए ने 1987 में अरुणाचल का सामुद्रोंग चू (जिला तवांग) क्षेत्र शीतकाल में चुपचाप हथिया लिया था (वैसे ही जैसे 1999 में पाक ने कारगिल में किया)। भारत को पता चलने के बाद तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल के. सुंदरजी ने बड़ी संख्या में टी-72 टैंक तथा सेना वहां भेजी। चीन की घुड़कियों को नजरअंदाज करते हुए भारत ने दृढ़ता का परिचय दिया। अंतत: बिना प्रत्यक्ष युद्ध लड़े चीन को वहां से हटना पड़ा। पिछले 50 वर्ष में चीनी फौज को मिलने वाली सफलताओं में दक्षिण चीन सागर के मात्र दो छोटे द्वीपों -मिस्चिफ रीफ और पारासेल-पर किया अवैध कब्जा ही है। इसलिए, शी जिनपिंग बेवजह शेखी दिखा रहे हैं।
—अजय मित्तल, मेल से
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