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माधवी (नाम परिवर्तित) पत्रकार हैं। चुस्त, सतर्क और अत्यंत संवेदनशील। उनकी यह संवेदनशीलता ऐसी है कि कई बार रात की नींद, दफ्तर में काम के घंटों और अखबार के पन्नों से भी बाहर छलक पड़ती है। अपने आस-पास, आते-जाते माधवी कई बार कुछ ऐसा देखती हैं जो भले छपे नहीं, किन्तु उन्हें अकुलाहट और चिंता से भर देता है। ऐसे में वे कलम उठाती हैं और हमें लिख भेजती हैं। इस भरोसे के साथ कि कोई तो उनकी चिंताओं को साझा करेगा।
विचारों से भरी, झकझोरती चिट्ठियों की अच्छी-खासी संख्या हो जाने पर हमने काफी सोच-विचार के बाद माधवी की इन पातियों को छापने का निर्णय किया, क्योंकि जगह चाहे अलग हो, लेकिन मुद्दे और चिंताएं तो साझी हैं। आप भी पढि़ए और बताइए, आपको कैसा लगा हमारा यह प्रयास।
कुछ दिन पहले मैं एक चैनल पर समाचार सुन रही थी। एंकर एक ऐसे सैनिक की कहानी बता रहा था, जिसने अपनी वर्दी के लिए 27 साल तक लड़ाई लड़ी। उसने लंबे समय तक असहनीय पीड़ा सही। इसमें सेना से बेइज्जत करके निकालने की प्रक्रिया, जिसे कोर्ट मार्शल कहा जाता है, भी शामिल थी। इसके कारण चार पीढि़यों तक देश की सुरक्षा के लिए बेटों को अर्पित करने वाले परिवार को शर्मिंदगी के साथ जीने को मजबूर होना पड़ा। यह कहानी उत्तर प्रदेश के मैनपुरी के रहने वाले शत्रुघ्न सिंह की थी।
शत्रुघ्न मां भारती की सेवा में मर-मिटने के जज्बे के साथ सेकेंड लेफ्टिनेंट छठी राजपूत बटालियन में भर्ती हुए थे। लेकिन छह माह से कम समय में ही उनका कॅरियर तबाह कर दिया गया। मामला 27 किलो सोने से जुड़ा था, जिसके लिए वरिष्ठ अधिकारियों ने एक सैनिक को कोर्ट मार्शल तक पहुंचा दिया। लेकिन व्यवस्था के आगे हार मानने की बजाय सैनिक ने सम्मान के साथ वर्दी हासिल करने की लड़ाई की ठानी। मुकदमा पहले जिला न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय में चला, फिर सशस्त्र सैन्य अधिकरण में पहुंचा। 27 साल तक सैनिक को केवल तारीख पर तारीख मिलती रही। इस जंग में वह हर दिन टूटता, फिर बिखरते हौसले को समेट कर नई उम्मीद के साथ लड़ाई में जुट जाता। आखिरकार वह दिन भी आया जब सशस्त्र सैन्य अधिकरण ने शत्रुघ्न के पक्ष में फैसला सुनाया। उसने माना कि सेना ने सैनिक के साथ गलत किया और आरोपी अधिकारियों के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी करते हुए उन पर पांच करोड़ रु. का जुर्माना लगाया। इसमें से चार करोड़ रु. पीडि़त सैनिक को देने का आदेश दिया। साथ ही, उन्हें ससम्मान वर्दी लौटाते हुए भारतीय सेना का हिस्सा बनाने का भी फैसला सुनाया।
सशस्त्र सैन्य अधिकरण ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि लचर व्यवस्था और चंद लोभियों के कारण एक नौजवान और वीर सैनिक की जिंदगी के 27 वर्ष सरहद की जगह न्याय के लिए सड़कों पर चप्पल घिसते हुए बीत गए। इस दौरान उसके मान-सम्मान की जो क्षति हुई, उसकी भरपाई चंद रुपये नहीं कर सकते। अलबत्ता यह व्यवस्था इस बहादुर सैनिक की कर्जदार जरूर बन गई है। बहुत देर से ही सही, लेकिन सत्य की विजय हुई।
एक चैनल को दिए साक्षात्कार में शत्रुघ्न ने दिल को छू लेने वाली बात कही। उन्होंने कहा, ''भारतीय सेना में रहते हुए मेरेसाथ अन्याय हुआ, लेकिन मेरे मन में सेना के प्रति जरा भी दुर्भावना नहीं आई। सेना और सैनिकों के लिए मेरे मन में आज भी वही सम्मान है, जो बचपन से था।'' कानूनी लड़ाई के दौरान एक समय ऐसा भी आया, जब वे पूरी तरह से टूट गए थे। उन्हें जिंदगी भर इसका मलाल रहेगा कि न्याय के लिए उन्होंने जीवन के बहुमूल्य 27 वर्ष अदालतों के चक्कर काटने में बर्बाद कर दिए। काश! यह समय देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए बिताते। यह कहते समय बरबस ही उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे।
उन्होंने कहा कि उम्र के इस पड़ाव पर वर्दी वापस मिलने से उन्हें जो खुशी हो रही है, इसके लिए उनके पास शब्द नहीं हैं। वे अपनी बची हुई सेवा के ढाई वर्ष उसी सेना को देना चाहते हैं, एक समय जहां से कोर्ट मार्शल के रूप में उन्हें कभी न भरने वाला जख्म मिला। शत्रुघ्न का कहना था कि उनके साथ जो हुआ, इसमें सेना का कोई दोष नहीं था। दोष तो उन अधिकारियों का था जो शायद देश से पहले अपने स्वार्थ को ऊपर रखते हैं। ऐसे लोग हर जगह हैं, लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं है कि देश के हर नागरिक पर उसका स्वार्थ हावी है।
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