क्रांति-गाथा-39 - एक शहीद की अंतिम घडि़यां
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क्रांति-गाथा-39 – एक शहीद की अंतिम घडि़यां

by
Jul 31, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 31 Jul 2017 15:31:23

चार बजे के कुछ पूर्व हम लोगों ने निश्चय किया कि मणीन्द्र को बर्फ मिलाकर जरा दूध दिया जाए, किन्तु मणीन्द्र ने यशपाल से कहा, आई डोण्ड फील लाइक टेकिंग… (मैं कुछ नहीं लेना चाहता)। हम लोग पिलाने के लिए तर्क-वितर्क कर रहे हैं, इतने में टन-टन करके चार बजे देखते-देखते दवा आ गई। मैंने अपने हाथ से उसे दवा पिलाई, किन्तु मणीन्द्र ने कहा-जल्दी करो, जल्दी।
विषैली दवाएं ही दी जा रही थीं
उसे निगलने में कष्ट हो रहा था, सांस का कष्ट फिर उठा। सम्भवत: इस बार का आक्रमण उसे सहन नहीं हुआ। उसको कई दिन से केवल विषैली दवाएं ही दी जा रही थी। उसकी हालत ही इतनी खराब थी।
क्रांति की वह चिन्गारी मिट रही थी
मैं बराबर उसे पकड़े रहा। ठीक सवा चार बजे के समय वे मेरे सीने पर लुढ़क गए। मैंने उनके शिथिल मस्तक को अपनी गोद में रख लिया। मैं 'मणीन्द्र' कहकर बड़ी जोर से चिल्लाया। किन्तु, कुछ भी उत्तर नहीं मिला। श्री यशपाल उस समय डॉक्टर को बुलाने गए, किन्तु डॉक्टर उस समय सो रहे थे। उनके लिए तो ऐसी घटना नित्य की बात थी। वे क्या जानते थे कि भारतवर्ष की एक उदीयमान विभूति लुप्त हुई जा रही है। क्रांति की एक चिन्गारी मिट रही है।
अंत में जब डॉक्टर आए तो मणीन्द्र के हाथ पैर छटपटा रहे थे और कभी-कभी उसके मुख से एक अस्पष्ट और रुंधी हुई कराह निकल रही थी। डॉक्टर ने फौरन पेट्रूटोन का इन्जेक्शन दिया, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। दूसरे ही क्षण डॉक्टर ने स्टेथस्कोप लगाकर कहा, ''सब समाप्त हो गया। कुछ भी नहीं है।''
मणीन्द्र, मेरा मित्र-मेरा साथी….
इस प्रकार मेरे मित्र, साथी, छात्र तथा कुछ अंशों में पथ-प्रदर्शक का अंत हो गया। मैं मूढ़तावश आशा कर रहा था कि शायद कोई भूल हुई होगी। इसलिए मैं एक बार डॉक्टर से तथा एक बार श्री यशपाल से पूछता था,
…''क्यों, क्या कोई भी आशा नहीं है?''
डॉक्टर ने मेरे चेहरे की ओर ध्यान से देखकर कहा.. 'नहीं।'
यह 'नहीं' बड़ा मर्मभेदी था। मैं उस समय यह समझ नहीं पाया कि मुझे आश्चर्य अधिक हुआ या दु:ख!!!
उन्होंने कहा- 'हां।'
इस 'हां' के कहते ही मैंने यंत्रचालित की भांति मणीन्द्र का चरण स्पर्श कर लिया। हतबुद्धि होने पर भी मैं अपने देश के एक शहीद के प्रति कर्तव्य नहीं भूला।
मेरा वर्णन यहीं समाप्त हो जाना चाहिए था, किन्तु इस संबंध में दो-एक बातें लिखनी हैं, जिसके बिना वर्णन अपूर्ण रह जाएगा। आधा धंटे के अंदर मेजर भंडारी आए। मैंने उनसे मृत्यु-संवाद तार द्वार काशी तथा इलाहाबाद भेजने के लिए कहा तो उन्होंने बहाना बनाकर उसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद हम लोगों को अपने बैरक में जाने का आदेश दिया गया, हम चले गए।
उफ! शहीद की वह लाश!
मणीन्द्र के प्राणहीन देह को संभवत: भंगियों द्वारा उठवा कर अस्पताल के मुर्दाघर में पहुंचा दिया गया। रात के समय मुर्दाघर में मनुष्य तो क्या, एक दीपक तक नहीं रहता। बाहर से एक बड़ा भारी जंगी ताला लगा दिया जाता है। यहीं से दूसरे दिन मणीन्द्र की मां आदि ने उसकी लाश का उद्धार किया।
दूसरे दिन सबेरे रमेशचन्द्र ने अपना अंतिम सम्मान प्रगट करने की अनुमति मांगी, किन्तु वह अस्वीकार कर दी गई। प्रभास बाबू ने जिस प्रकार मणीन्द्र की दाह-क्रिया आदी की, उससे मैं समझता हूं, शहीद की मर्यादा किसी हद तक रक्षित नहीं हुई। उन्होंने न तो फर्रुखाबाद शहर में किसी को खबर दी न कुछ और ही किया। लाश को वार्डरों और जेल के क्लर्कों की सहायता से ले जाकर गंगा किनारे दाह किया। इसमें प्रभास बाबू का भी दोष नहीं है, क्योंकि जेल के अधिकारियों ने यह पट्टी पढ़ा दी थी कि यदि इस प्रकार दाह न करेंगे तो लाश दी ही न जाएगी। मुझे भली-भांति पता है कि इसमें स्थानीय अधिकारी वर्ग का दोष है। सरकार ने इस संबंध में कोई आदेश नहीं दिया था। मणीन्द्र एकदम 'अनसंग एंड अनवेप्ट गए।' (किसी ने उन पर आंसू नहीं बहाए, शोक के गीत नहीं गाए) यह उचित था कि उनका सार्वजनिक रूप से दाह-संस्कार होता।
मामूली कैदियों ने भी बड़ा शोक मनाया। वे मणीन्द्र को 'सुदामा' कहा करते थे। रमेश ने उसका नाम 'युद्धिष्ठिर' रखा था। रणधीर सिंह तो उसकी मृत्यु से बहुत ही टूट गया। उसने दूसरे दिन मुझे चोरी से लिखा है, ''मुझे मालूम हो रहा है, मानों मेरे हृदय की गति रुद्ध हो जाएगी।''
मणीन्द्र ने गत 6 वर्षों से एक बात सीखी थी और वह थी- हृदय से फतेहगढ़ को घृणा की दृष्टि से देखना। फतेहगढ़ से बचने के लिए उसने मुझे भी छोड़ जाना चाहा था। दु:ख है कि उसके शरीर का सत्कार यहीं फतेहगढ़ में किया गया। किन्तु इस संबंध में भी उसने अदृष्ट को अंगूठा दिखाकर फतेहगढ़ का त्याग किया। उसकी भस्म गंगा द्वारा परिचालित होकर काशी जाएगी। उसके प्रिय घर काशी में जब उसकी भस्म ने जाकर पांडे घाट के पाषाण-हृदय को स्पर्श किया होगा, तब उससे कितना विपुल हाहाकार निकला होगा। पांडे घाट का पाषाण-हृदय इस स्पर्श के आवेग से चूर्ण-विचूर्ण हो गया होगा। मां री! मां री!! मां री!!! (यह ब्योरा बांग्ला में 7 दिन के अन्दर लिपिबद्ध किया गया था। यह हमारे क्रांतिकारी इतिहास का एक अत्यंत कष्टकर अध्याय है। पर कष्ट सबसे बड़ा है कि शहीद जिस स्वराज के लिए मरा, वह आया नहीं। अभी युद्ध बाकी है।)  

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