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ताज उतार कर भी कोई सरताज बना रह सकता है, इस अनोखी बात को नीतीश कुमार ने साबित कर दिया। बिहार के मुख्यमंत्री के पद से त्यागपत्र देने के बाद उनके हाथ न तो एक पल के लिए विकल्पों से रीते थे, न चेहरा तनावपूर्ण। कहना होगा कि यह घटनाक्रम जन-आकांक्षाओं की जीत का दूसरा पड़ाव है। बिहार में राजनीति का ऐसा पड़ाव जो अवसरवादिता के आरोपों और असहज करने वाले दबावों से बीस माह के फासले पर पड़ा है। जनता को यह भरोसा देना कि गलत नहीं होने दूंगा!… यही तो सुशासन बाबू की पूंजी थी। महागठबंधन की महा-उथल-पुथल के बीच भी उन्होंने न सिर्फ यह पूंजी बचाए रखी बल्कि नए सहयोगी के साथ जुड़ते हुए नवीन आशाओं का निवेश कराने में भी वे सफल रहे।
राजनीति के कुनबा-कालीन पर चलने के अभ्यस्त लालू यादव इस राजनैतिक भूचाल में औंधे जा पड़े हैं। उनके पांवों के तले से अकस्मात कोई कालीन खींच सकता है, इसकी कल्पना तक उन्हें नहीं थी। उनके गर्जन-तर्जन को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
दरअसल पिछले बीस माह से नीतीश एक असहज समीकरण में फंसे थे। मुख्यमंत्री होने पर भी लगातार दबाव में रहते हुए और अनवरत भ्रष्टाचार में लिप्त कुनबे को ढोते हुए सफर जारी रख वे जल्दी ही हांफ जाएंगे, इसकी आशंका राजनीतिक विशेषज्ञों ने बिहार में राजद से जदयू के गठबंधन और मंत्रिमंडल के गठन के समय, बार-बार व्यक्त की थी। अच्छी बात यह रही कि ‘बोझ’ को उतारने के साथ ही वे राजनीतिक शुचिता की ज्यादा आग्रही राह पकड़ने के लिए बढ़ चुके हैं। बहरहाल, इस घटनाक्रम के तीन महत्वपूर्ण फलित हैं:
1) नीतीश का नव उदय : इस एक पग ने नीतीश कुमार को गैर-भाजपा दलों के नेताओं में एक महत्वपूर्ण स्थान दिला दिया है। इसे इस तरह देखें। अनंत कलुष कथाओं में लिपटे लालू भविष्य की चर्चाओं के केंद्र तो छोड़िए, परिधि से भी बाहर दिखते हैं। नोटबंदी पर हल्ला मचाते हुए निहायत अकेली और सारदा चिटफंड की आंच झेलती तन्हा ममता अब उनके सामने कहीं नहीं हैं। शपथग्रहण के वक्त लालू से गलबहियों पर किरकिरी कराने वाले अरविंद केजरीवाल, अपने ही बर्खास्त मंत्री कपिल शर्मा के ‘सर जी’ और उनकी सरकार की कलई खोल देने के बाद पिछले ढाई माह से सदमे में हैं। दागी अध्यादेश की बांहें चढ़ाते हुए चिंदी-चिंदी उड़ाने वाले राहुल गांधी तेजस्वी के कथित भ्रष्टाचार पर मौन बरतते हुए आप ही बौने (जिसमें वे सिद्धहस्त हैं) बन गए। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की सरकार भी पंचायत चुनाव में पार्टी को लगी पटखनी के बाद से ही पीआर (स्र४ु’्रू १ी’ं३्रङ्मल्ल) के फाहे रख रही है।
2) नई राह पर राजनीति : नीतीश का इस्तीफा और बिहार में नई सरकार के गठन का घटनाक्रम तात्कालिक होकर भी राजनीति पर स्थायी प्रभाव छोड़ने वाला मोड़ है। ऐसा मोड़ जिसके आगे चलकर राजनीतिक शुचिता के महापथ में बदलने की आशा की जानी चाहिए। गौर करने वाली बात यह है कि नीतीश को बढ़त दिलाने और उनके प्रतिस्पर्धियों की राजनैतिक आभा छीन लेने वाला भ्रष्टाचार अब ऐसा मुद्दा है जिसकी उपेक्षा अब कोई राजनैतिक दल नहीं कर सकता। नीतीश ने उसी बिंदु को अधोरेखित करने का काम किया है जिस पर केंद्र सरकार बार-बार जोर दे रही थी और जो इच्छा हाल-फिलहाल के हर जनादेश के केंद्र में रही है।
3) 2019 की मुनादी : देश के राजनैतिक क्षितिज पर 2019 के संकेत उभरने शुरू हो गए हैं। बिहार में नई सरकार का गठन अथवा नए राष्टÑपति का पहला संबोधन, इस बात की मुनादी हैं कि राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तन का अगला दौर प्रारंभ हो चुका है। लोकसभा चुनाव की घोषणा जब होगी, तब होगी किन्तु बाबासाहेब ने जिसका सपना देखा, लोहिया जिसके लिए आजीवन लड़ते रहे, पं. दीनदयाल उपाध्याय ने जिसका खाका विश्व के सामने रखा, उस प्रकार की राजनीतिक परिकल्पना अब ठोस आकार ले रही है। कुनबापरस्ती और कालिख से, जातिवाद के जहर से और छद्म लोहियावाद से, इन सब से भारतीय राजनीति मुक्त होने के संकेत दे रही है, जिसका स्वागत होना चाहिए। नीतीश के कदम का स्वागत तो जिन्हें करना है, वे कर ही रहे हैं।
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