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पहचान : मानवता की सेवा में तत्पर आध्यात्मिक गुरु
संस्थापक : माता अमृतानंदमयी मठ
मुख्यालय : अमृतापुरी, जिला-कोल्लम, केरल
मूलमंत्र : लोगों को प्रेम से गले लगाओ, दुख-दर्द दूर करो
अम्मा नाम से विख्यात माता अमृतानंदमयी का संदेश है—घृणा पर प्रेम द्वारा विजय पानी चाहिए तथा क्रोध को धैर्य द्वारा जीतना चाहिए। उनका मानना है कि दर्शन महत्वपूर्ण है यानी किसी सिद्ध व्यक्ति या मंदिर-देवता के दर्शन मात्र से व्यक्ति के दुख-दर्द कम होने लगते हैं। अम्मा वाकई अम्मा की तरह सबको प्रेम से गले लगाकर अपनी ऊर्जा से लोगों के दुख-संताप हरती रही हैं। कहा जाता है कि अम्मा ने अब तक इस दुनिया के 2.9 करोड़ से भी अधिक लोगों को गले से लगाया है।
प्राचीनकाल में शिष्यगण गुरु के साथ वन में आश्रमों में रहते थे। वहां वे गुरु की देख-रेख में, उनकी प्रेमपूर्वक सेवा करते हुए अध्ययन करते थे। फिर अंतत: परम्परा के अनुसार प्रत्येक शिष्य गुरु को यथाशक्ति दक्षिणा देता था। वह स्कूल फीस नहीं होती थी। उन दिनों गुरु शिष्य से यदि कुछ लेते थे तो वह प्रथम व अंतिम दक्षिणा के रूप में ही होता था। तथापि, महत्व शिष्य द्वारा दिए गए धन अथवा सामग्री का नहीं होता था, अपितु उसके मूल में निहित भाव का होता था। अम्मा कहती हैं कि ऐसा भाव गुरु पूर्णिमा पर गुरु के प्रति जताना चाहिए जिसमें उसके प्रति समर्पण हो, आपका समर्पण ही गुरु की दक्षिणा है, उसे आपसे कुछ द्रव्य-संपदा नहीं लेनी, उसका तो स्वभाव ही आपको सतत देना है।
माता अमृतानंदमयी मठ के उपाध्यक्ष स्वामी अमृतास्वरूपानंद पुरी के अनुसार, ‘‘अम्मा के लिए दूसरों के दु:ख दूर करना उतना ही सहज है जैसे उनका अपनी आंखों के आंसू पोंछना। दूसरों की खुशी में ही अम्मा की खुशी है। दूसरों की सुरक्षा में ही अम्मा अपनी सुरक्षा मानती हैं। दूसरों के विश्राम में ही अम्मा का विश्राम है। यही अम्मा का सपना है। और यही वह सपना है जिसके लिए मां ने अपना जीवन मानवता के जागरण के प्रति समर्पित कर दिया है।’’
माता अमृतानंदमयी देवी का जन्म पर्यकडवु (जो अब अमृतापुरी के नाम से भी जाना जाता है) के छोटे-से गांव अलप्पढ़ पंचायत, जिला कोल्लम, केरल में 1953 में सुधामणि इदमन्नेल के रूप में हुआ था। 9 वर्ष की आयु में उनका विद्यालय जाना बंद हो गया था। वे पूरे समय अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल और घरेलू काम करने लगीं। वे अपने परिवार की गाय-बकरियों के लिए अपने पड़ोसियों का बचा हुआ भोजन एकत्र करती थीं। अम्मा बताती हैं कि उन दिनों वे अत्यधिक निर्धनता और अभाव से गुजर रही थीं।
वे अपने घर से कष्ट में पड़े लोगों के लिए वस्त्र और खाना लाती थीं। उनका परिवार धनवान नहीं था, इसलिए ऐसा करने पर उन्हें डांटता और दण्डित करता था। अम्मा कभी-कभी अचानक ही लोगों को दु:ख से राहत पहुंचाने के लिए उन्हें गले से लगा लेती थीं, जबकि उस समय एक 14 वर्ष की कन्या को किसी को भी स्पर्श करने की आज्ञा नहीं थी, खासतौर पर पुरुषों को स्पर्श करने की। लेकिन अपने माता-पिता से विपरीत प्रतिक्रियाएं मिलने के बावजूद अम्मा ऐसा ही करती रहीं। दूसरों को गले लगाने की बात पर अम्मा ने कहा, ‘‘मैं यह नहीं देखती कि वह एक स्त्री है या पुरुष। मैं किसी को भी स्वयं से भिन्न रूप में नहीं देखती। मुझसे संसार की सभी रचनाओं की ओर एक निरंतर प्रेम धारा बहती है। यह मेरा जन्मजात स्वभाव है। मेरा कर्तव्य उन लोगों को सांत्वना देना है जो कष्ट में हैं।’’
भारत के अलावा अम्मा विश्व के तमाम देशों, जैसे आॅस्ट्रेलिया, आॅस्ट्रिया, ब्राजील, कनाडा, चिली, दुबई, इंग्लैंड, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, आयरलैंड, इटली, जापान, केन्या, कुवैत, मलेशिया, मारिशस, रूस, सिंगापुर, स्पेन, श्रीलंका, स्वीडन, स्विट्जरलैंड और अमेरिका में भी समय-समय पर दर्शन कार्यक्रम करती हैं और वहां लाखों की संख्या में लोगों का प्रेमपूर्ण आलिंगन कर उनके संताप दूर कर आनंद बांटती हैं।
अम्मा अपनी किशोरावस्था से ही इस तरह से दर्शन दे रही हैं। इस सम्बन्ध में अम्मा बताती हैं, ‘‘लोग आकर मुझे अपनी समस्याओं के बारे में बताया करते थे। वे रोते थे और मैं उनके आंसू पोंछा करती थी। जब वे रोते-रोते मेरी गोद में गिर जाया करते थे, तो मैं उन्हें गले से लगा लेती थी। फिर अगला व्यक्ति भी मुझसे ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद रखता था…और इस तरह से यह रिवाज बन गया।’’
अम्मा का यह दर्शन ही उनके जीवन का केंद्र है।
अम्मा का आशीर्वाद पाने के लिए आने वाले लोगों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है, कभी-कभी तो वे लगातार 20 घंटे तक दर्शन
देती हैं। प्रस्तुति : अजय विद्युत
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