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झूठा सेकुलरवाद फर्जी चिंता
पुरस्कार वापसी जमात की तरह कुछ नौकरशाहों ने पत्र लिखकर चिंता जताई है कि देश में असहिष्णुता बढ़ गई है। पर सेवानिवृत्ति के बाद ही उन्हें यह बोध क्यों हुआ? नौकरी में रहते हुए इन्होंने कितनी ईमानदारी से कर्तव्यों का निर्वहन किया? दरअसल, यह छटपटाहट केंद्र सरकार द्वारा नियमानुसार चलने की बाध्यता को लेकर है
प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत
भी हाल देश के लिए कुछ लोग दूसरों से अधिक चिंता करते दिखे। ऐसा होना भी चाहिए। सभी एक-दूसरे से बढ़कर देश के भविष्य की चिंता करेंगे तो इससे देशवासियों का मनोबल बढ़ेगा। कुछ माह पहले देश में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग बहुत तेजी से प्रकट हुआ था, जिसमें सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं से पुरस्कार प्राप्त सर्जक, विचारक और ‘आइकॉन’ शामिल थे।
इन्होंने सबसे पहले यह पहचाना कि ‘देश में असहिष्णुता एकाएक बढ़ गई है’। अत: उसका प्रतिकार करने का एक ही रास्ता है, ‘हम अपने पुरस्कार वापस करने की घोषणा कर दें। बस, देश में भूचाल आ जाएगा, सरकार गिर जाएगी और साठ साल से चला आ रहा अनुभवी शासन पुन: लौट आएगा। ‘जिन संस्थाओं में 6-7 दशकों से हमारा वर्चस्व निर्बाध चल रहा था, वह फिर से स्थापित हो जाएगा।’ अपेक्षित ही था यह सब। असहिष्णुता इन्हें पहली बार दिखाई दी थी। ऐसा क्यों न होता। आखिर बुद्धिमानों ने ही तो कहा है, ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’!
और कुछ इसी तरह की चिंता कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों ने पत्र लिख कर व्यक्त की। वे व्यथित हैं, क्योंकि ‘देश में असहिष्णुता बढ़ रही है!’ कुछ लोगों ने यह याद दिलाने की कोशिश की कि जब कश्मीर घाटी से कश्मीरियों को केवल धर्म के आधार पर हर प्रकार से पीड़ित, प्रताड़ित और अपमानित करके अंतत: निकाल दिया गया था, तब इस वर्ग को कोई व्यथा क्यों नहीं हुई? उनकी पीड़ा को व्यक्त करने वालों को तुरंत नाकारा, बुर्जुआ, रूढ़िवादी, हिन्दुत्ववादी इत्यादि विशेषणों से लगातार लांछित किया जाता रहा। ऐसा करने वाले स्व-घोषित सेकुलर जो ठहरे! हमारे ‘महाविद्वान’ पूर्व प्रधानमंत्री ने बेहिचक घोषणा की थी कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। यदि अल्पसंख्यकों ने बहुसंख्यकों को उनके घरों से निकाल दिया तो इसमें असहिष्णुता कहां से आ गई? यह तो होता ही रहता है। नौकरशाह जब समय के साथ वरिष्ठ हो जाते हैं, तब वे पत्रों या परियोजनाओं का प्रारूप स्वयं नहीं बनाते, केवल ‘अप्रूव’ करते हैं। कहीं ऐसा न लगे कि कुछ भी योगदान नहीं किया है तो विराम, पूर्ण विराम या एक दो शब्दों का परिवर्तन करना काफी होता है। इस पत्र में सबसे पहले यह कहा गया है कि उनमें से कोई किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं है। कितना अच्छा लगता है यह पढ़कर। काश! भारत के नौकरशाह राजनेताओं को प्रसन्न करने के लिए नहीं, बल्कि नियमानुसार कार्य करने के लिए जाने जाते! पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों की सूची में कई ऐसे नाम हैं, जिनकी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से देश बखूबी परिचित है। यह भी ज्ञात है कि सेवानिवृत्ति के पहले एनजीओ बनाना और फिर अपने पूर्व-प्रभाव का उपयोग कर उसे चलाना, सामान्य प्रक्रिया है। मोदी सरकार ने यहां भी नियमानुसार चलने का ‘प्रतिबंध’ लगा दिया है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इतने अनुभवी नौकरशाह यह कहें कि बूचड़खानों को बंद कर मुस्लिम समुदाय के रोटी-रोजी कमाने के हक पर प्रहार किया गया है। आखिर नियमानुसार चलने वाले कसाईखाने तो बंद नहीं किए गए हैं! जो गैर कानूनी ढंग से चल रहे थे, उनकी जिम्मेवारी तो प्रशासनिक अधिकारियों की ही थी! फिर उन्होंने नियमानुसार अपना कर्तव्य निर्वाह क्यों नहीं किया? उनकी ‘ट्रेनिंग’ तो उनके वरिष्ठों के द्वारा ही होती है।
यह सामान्य जानकारी है कि मांस के व्यापार में केवल मुस्लिम समुदाय के लोग ही शामिल नहीं हैं। अन्य समुदाय भी हैं और समस्याएं उनके सामने भी उभरी हैं। उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि बूचड़खानों के लाइसेंस का नवीनीकरण शीघ्रता से किया जाए। ऐसे में अपने पत्र में मुस्लिम समाज की तथाकथित कष्टों को उभारना पिछली सरकारों के उसी प्रयास का हिस्सा बनता दिखता है, जिसमें हर तरफ से मुस्लिम समाज को पीड़ित दिखाकर उसकी सहानुभूति को वोट के रूप में बटोरने का प्रयास लगातार होता रहा था। इस खुले पत्र को लिखने वालों में अधिकांश उस सच से भली-भांति परिचित ही नहीं, उसका महत्वपूर्ण हिस्सा भी रहे हैं। आज मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग उभरा है जो मानता है कि बहुत दिन तक हमें ‘पीड़ित’ का किरदार निभाने को उकसाया गया और हम बहकावे में आते रहे। इसमें बदलाव के लिए समाज के अंदर जो परिवर्तन करने थे, स्वार्थी तत्वों ने वे होने नहीं दिए। शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी ने एक प्रगतिशील निर्णय लिया था, जिसे दबाव डालकर कट्टरवादी तत्वों ने बदलवा दिया और भारत का मुस्लिम वर्ग कई दशक पीछे चला गया। सच्चर समिति या रंगनाथ मिश्र प्रतिवेदन चर्चा के लिए ही उपयोग में आए। मुसलमानों के साथ जब सत्तापक्ष बहकावे और बहलाने के खेल खेलता रहा, तब कितने नौकरशाहों ने चिंता प्रकट की?
काश, ये नौकरशाह देश के सामने एक बार यह तथ्य भी उभारते कि कश्मीरी पंडितों द्वारा शरणार्थियों का जीवन बिताना उन्हें शर्मसार करता है? क्या यह अपेक्षा बेमानी होगी कि वे केंद्र सरकार से अनुरोध करें कि देशद्रोहियों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए जो राष्ट्रघात करने वालों के साथ होना चाहिए? उनके पास समय भी है और पत्र लिखने वाले भी हैं! इस पत्र को पढ़कर स्पष्ट हो जाता है कि यह अपने पुराने पद-प्रभाव का बचा-खुचा उपयोग करने का प्रयास तो है ही, इसमें वह गुप्त मंतव्य भी छिपा है, देश ने पुरस्कार वापसी प्रकरण के समय देखा था। उस समय असहिष्णुता को बिसाहड़ा गांव में एक व्यक्ति की हत्या से जोड़ा गया था। वह एक अपराध था और यदि न्याय में देरी हो रही है तो जिम्मेदार कौन है? क्या नौकरशाही अक्षम है या वह किसी दबाव में है?
इस पत्र में जिस ढंग से कब्रिस्तान तथा श्मशान के बीच खुलेआम भेदभाव करने वाली प्रदेश सरकार के व्यवहार पर चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पूछे गए सवाल को सांप्रदायिक रंग देकर उठाया गया है, वह अपने आप में पत्र लिखने वालों के मन की गांठों और कुंठाओं का ही प्रकटीकरण है। उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकारों ने जब सत्ता को धन उगाही तथा भ्रष्टाचार का ठेका मान लिया था, तब क्या नौकरशाह ईमानदारी से अपना कार्य कर रहे थे? इसमें संदेह नहीं कि यदि देश में नौकरशाही अपना कर्तव्य निष्ठा से निभाएं तो कोई मंत्री या मुख्यमंत्री जनता के धन का अपव्यय करने का साहस नहीं कर सकता। 2जी, कॉमनवेल्थ, कोयला, हथियारों की खरीद, इन सब में नौकरशाही खुद के संलग्न होने की बात से इनकार नहीं कर सकती। आखिर वे भी तो नौकरशाह ही थे, जिन्होंने देश को जोड़ने में सरदार पटेल की जी-जान से मदद की। …और वे भी नौकरशाह ही थे जो पंडित नेहरू को यह नहीं समझा सके कि कश्मीर का मसला विदेश मंत्रालय में नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय में विश्लेषित होना चाहिए।
मुस्लिम संप्रदाय के प्रति भेदभाव का खुला आरोप लगाने वाले इस पर भी विचार करें कि आज भी इस समुदाय के बच्चों के लिए उचित शिक्षा का प्रावधान क्यों नहीं हो पाया है? कितने नौकरशाहों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया है? शिक्षा व्यवस्था पर तो नौकरशाही का वर्चस्व हर तरफ छाया है, फिर आज सरकारी स्कूलों की साख क्यों खत्म हो रही है?
क्या यह चिंता का विषय नहीं है? नकल रोकना किसकी जिम्मदारी है? यदि अल्पसंख्यकों के लिए निर्धारित राशि का दुरुपयोग होता है तो उसके लिए मंत्री को तो जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। आज वह पुरस्कार वापसी ब्रिगेड कहां है? उन्होंने जिस प्रकार घटनाओं का सांप्रदायीकरण करने का प्रयास किया था, यह पत्र उसी को आगे बढ़ाने का एक और प्रयास है। इसके पीछे बहुत कुछ है। एनजीओ पर कसा शिकंजा तो है ही, प्रधानमंत्री का वह वक्तव्य भी है, जिसमें उन्होंने कहा है कि जो नौकरशाह सक्षम नहीं हैं, नई कार्य संस्कृति में खुद को नहीं ढाल सकते हैं, वे स्वयं ही चले जाएं, अन्यथा उन्हें बाहर कर दिया जाएगा।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी यही कहा है। ऐसे में पुराने और परिपक्व नौकरशाहों का नाराज होना और पुराने समय को याद करना, अपेक्षित ही है। देश को, और विशेषकर मुस्लिम समुदाय को अपने इन नए शुभचिंतकों के मंतव्यों को ठीक से समझना होगा, उसके अंदर भी
झांकना होगा।
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