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भारत-भूटान सीमा पर तनातनी के बीच प्रश्न सिर्फ चीनी भंगिमा का नहीं है। चीन ने भारत के साथ व्याापार में भी असंतुलन पैदा किया
डॉ़ अश्विनी महाजन
जब हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पंचशील को लेकर आत्ममुग्धता के शिकार हो रहे थे तब चीन भारत पर आक्रमण कर उसकी भूमि हथियाने की योजना बना चुका था। भारत के पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज ने तब देश को चेतावनी दी थी कि चीन भारत का नंबर एक दुश्मन है। उस समय के राजनीतिक नेतृत्व ने उनकी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया था। लेकिन चीन की हाल की कार्रवाइयों से जॉर्ज की वह चेतावनी बरबस याद आ जाती है। हम जानते हैं कि चीन और भारत आज दुनिया की उभरती हुई दो प्रमुख ताकतें हैं।
दुनिया के सबसे तेज गति से आगे बढ़ने वाले देश ही नहीं बल्कि दोनों में प्रौद्योगिकी, उद्योग और ढांचागत क्षेत्र सहित अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में तेजी से विकास हो रहा है। पिछली लगभग तीन शताब्दियों से अमेरिका और यूरोप के देशों के आर्थिक महाशक्तियों के रूप में उभरने के बाद भारत और चीन ने पहली बार अपने बलबूते पर विकास की ओर कदम बढ़ाया है। अमेरिका और यूरोप में इस विकास के कारण एक खलबली मची है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपने विकास पथ को और मजबूत बनाने के बजाए चीन बिना कारण भारत की शक्ति को ही ललकारने लग गया है। ऐसे में भारत के पास सीमित ही सही, परन्तु विकल्प हैं।
बढ़ता रहा चीनी आयात-बढ़ता रहा घाटा
गौरतलब है कि 1996-97 में चीन से आयात मात्र 0़ 756 अरब डॉलर का ही था, जो 2015-16 में बढ़कर 61़ 7 अरब डॉलर तक पहुंच गया। वहीं इस दौरान निर्यात 0़ 615 अरब डॉलर से बढ़कर 9 अरब डॉलर तक ही पहुंच पाया। प्रारंभ में आयात-निर्यात लगभग संतुलन में था, लेकिन बढ़ते आयात और उस अनुपात में निर्यात में विशेष वृद्धि नहीं होने के कारण चीन से व्यापार घाटा 2015-16 के पहले 11 महीनों में बढ़कर 52़ 7 अरब डॉलर तक पहुंच गया। 2016-17 में हालांकि चीन से होने वाला आयात 1़ 5 अरब डॉलर तक घट गया और व्यापार घाटा दो अरब डॉलर तक कम हो गया। लेकिन देखा जाए तो अभी भी यह व्यापार घाटा अत्यधिक है, जिसके कारण देश पर विदेशी मुद्रा अदायगी का बोझ तो बढ़ा ही, खिलौनों, बिजली उपकरणों, मोबाइल, कम्प्यूटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक्स साजो-सामान, प्रोजेक्ट सामान और पावर प्लांट के भारी आयात के कारण हमारे उद्योग-धंधे नष्ट हुए, रोजगार का भी भारी ह्रास हुआ।
2015-16 में चीन से हमारा आयात, जो 61़ 7 अरब डॉलर यानी 4,15,000 करोड़ रुपए था, जो हमारे कुल निर्माण उत्पादन के 24 प्रतिशत के बराबर था। इसका मतलब यह है कि चीन से आयात के चलते हमारे निर्माण क्षेत्र को 4़15 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ और उसी अनुपात में यदि देखा जाए तो हमारे 24 प्रतिशत रोजगार नष्ट हो गये। यदि चीन से आयात आधा भी रह जाये तो हमारा उत्पादन 12 प्रतिशत बढ़ सकता है और उसी अनुपात में रोजगार भी।
व्यापार और शत्रुता नहीं चलते साथ
इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई देश लगातार हमारे साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहा हो और हम उस देश से 4,20,00 करोड़ रुपए का माल ही आयात न करते रहें, बल्कि उस देश की ढांचागत क्षेत्र की कंपनियों को अपने यहां रेल, सड़क, टेलीकॉम समेत तमाम प्रकार के ढांचागत निर्माण के ठेके दे रहे हों। नीति निर्माता जाने-अनजाने चीन का दौरा करते हुए, उनके निवेश के लिए पलक-पावंडे बिछाए बैठे हैं। संवेदनशील और सामरिक महत्व के ठिकानों पर चीन की सरकारी कंपनियां काबिज हैं। कई राज्यों के मुख्यमंत्री तो यह भी कहते पाए गए कि चीन से आयात तो नहीं, लेकिन निवेश का स्वागत है।
मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने और भारत की न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में सदस्यता के संबंध में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अड़ंगा लगाने, भारत के खिलाफ पाकिस्तान को सैन्य मदद देने, पाकिस्तान समेत कई देशों में सैन्य अड्डे बनाने समेत चीन की कई ऐसी कार्रवाइयां हैं, जो भारत के खिलाफ उसकी शत्रुतापूर्ण सोच का सबूत पेश करती हैं।
हाल ही में चीन के भूटान एवं सिक्किम में भी सीमा विवाद खड़ा करने और भारत को युद्ध की धमकी देने के बाद देश की जनता में चीन को लेकर एक बार फिर भारी आक्रोश व्याप्त है। इसके चलते जनता द्वारा चीनी माल के बहिष्कार का दौर एक बार फिर से जोर पकड़ने लगा है। गौरतलब है कि पिछले साल दीपावली के आसपास चीनी माल के बहिष्कार के चलते भारतीय बाजारों में चीनी सामान की मांग 30 से 50 प्रतिशत कम हो गई थी। पिछले साल ‘व्हाट्सएप’, ‘फेसबुक’, ‘ट्विटर’ आदि सोशल मीडिया पर इस बहिष्कार ने बहुत तेजी से जोर पकड़ा था। उसी तर्ज पर चीन के प्रति आक्रोश के चलते फिर से बहिष्कार की आवाजें तेज हो गई हैं।
चीन पर क्या होगा प्रभाव?
चीनी माल का बहिष्कार हो, यह बहुत से लोगों की चाह है। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि हमें उपभोक्ता के हितों का भी ध्यान रखना होगा, जो चीन से सस्ते आयात से लाभान्वित हो रहे हैं। कुछ लोग यह तो मानते हैं कि चीन से आयात का बहिष्कार करने से हम अपना आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन इससे चीन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि भारत का चीन के कुल निर्यात (1,845 अरब डॉलर) में हिस्सा मात्र 3़ 4 प्रतिशत ही है। ऐसे में अन्य देशों को निर्यात बढ़ाकर वह उसकी भरपाई आसानी से कर सकता है। हो सकता है, भारत को इसका नुकसान अल्पकाल में सहना पड़े, जैसे कलपुर्जों की कमी, साजो-सामान की कम उपलब्धता, कीमतों में वृद्धि इत्यादि। लेकिन दीर्घकाल में चीन को ही नुकसान होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत से तल्ख रिश्तों से चीन से होने वाले आयात पर सरकार का रुख भी सख्त हो सकता है। अन्य देश भी भारत की देखादेखी चीन के प्रति अपना रुख सख्त कर सकते हैं। अभी तक एक तानाशाह देश के रूप में पहचाना जाने वाला चीन स्वयं को एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के रूप में पेश करना चाहता है। भारत के साथ चीन के तल्ख रिश्तों का पश्चिमी देशों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। ऐसे में चीन पर जो अपनी मुद्रा ‘यूआन’ को वैश्विक मुद्रा के रूप में स्थापित करने और ‘वन बैल्ट वन रोड’ परियोजना के माध्यम से दुनिया भर में अपने आर्थिक और व्यापारिक रिश्तों को आगे बढ़ाने की कोशिश में है, भारत से तल्ख रिश्तों के मद्देनजर उस खासा बुरा प्रभाव पड़ सकता है। उसका भारत से सीमा पर युद्ध हो या व्यापार युद्ध, दोनों से उसकी छवि पर खासा असर पड़ने वाला है। हालांकि जो लोग यह मानते हैं कि चीनी माल का बहिष्कार भारत को अल्पकालिक नुकसान पहुंचा सकता है, वे यह भी कहते हैं कि दीर्घकाल में इससे चीन को ही नुकसान होगा।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन अभी तक विदेशी व्यापार से भारी मुनाफा प्राप्त कर रहा था, पर पर पिछले कुछ समय से वह घटता जा रहा है। एक समय चीन का व्यापार अधिशेष 627़5 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। लेकिन वैश्विक मंदी के चलते 2015-16 तक आते-आते उसका व्यापार अधिशेष 419़ 7 अरब डॉलर तक गिर चुका है। ऐसे में भारत से उसका व्यापार अधिशेष 52़ 7 अरब डॉलर तक पहुंचने से अब वह चीनी व्यापार अधिशेष के 12 प्रतिशत तक पहुंच गया है। ऐसे में यदि भारत चीनी माल का बहिष्कार करता है तो चीनी अर्थव्यवस्था को एक बड़ा झटका लग सकता है।
भारतीय उपभोक्ताओं का शोषण संभव
यह सोचना सही नहीं है कि चीन के आयात को रोकने से उपभोक्ताओं का अहित होगा। भारतीय उद्योगों के बंद होने से, चीन अपने सामान की कीमतें बढ़ाकर उपभोक्ताओं का शोषण भी कर सकता है। उदाहरण के लिए, पिछले काफी समय से दवा उद्योग में चीन से आने पर वाले सस्ते कच्चे माल (एक्टिव फार्मास्युटिकल इन्ग्रेडिऐंट्स यानी एपीआई) के चलते भारत का एपीआई उद्योग काफी हद तक नष्ट हो गया। अब भारतीय दवा उद्योग की अपने पर निर्भरता का लाभ उठाते हुए चीन ने फॉलिक एसिड (विटामिन बी कांम्प्लेक्स के लिए रसायन) की कीमत 10 गुना बढ़ा दी है। इसके साथ एंटीबायोटिक दवाइयों में एमोक्सी साइक्लिन रसायन की कीमत दोगुनी गुणा कर दी गई है। यानी चीन अब हमारे दवा उद्योग का शोषण करने लगा है।
संकट में है चीनी अर्थव्यवस्था
चीनी अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से आगे बढ़ रही थी और कई साल तो उसकी जीडीपी की विकास दर 15 प्रतिशत से भी ज्यादा आगे बढ़ गई। लेकिन शायद उसकी यही तेजी उसके संकट का भी कारण बन गई। आज चीनी अर्थव्यवस्था से ज्यादा भारतीय अर्थव्यवस्था ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रही है। भारत की जीडीपी 2016-17 में 7़ 2 प्रतिशत की दर से बढ़ी। पूर्व में चीनी अर्थव्यवस्था केन्द्रीय योजना के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के द्वारा संचालित होती थी। पिछले लगभग तीन दशक से यह तेजी से बाजार के रास्ते पर चलने लगी। हालांकि अभी भी चीनी सरकार का अर्थव्यस्था पर प्रभावी नियंत्रण बना हुआ है, इसके बावजूद बाजार भी चीनी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग बन चुका है। बाजार आधारित पूंजीवादी अर्थव्यस्था की यह विशेषता होती हैै कि ऐसी अर्थव्यस्था में चाहे घरेलू मांग हो अथवा विदेशी मांग, कॉम्प्लेक्स उसकी पूर्ति करते हुए अतिरिक्त क्षमता और नये प्रकार के उत्पादों का निर्माण बाजार पर पकड़ बनाये रखने के लिए जरूरी हो जाता है।
लेकिन यदि मांग में व्यवधान आता है तो उस कारण से इस सृजित क्षमता का भरपूर उपयोग नहीं हो पाता। वैश्विक मंदी के चलते चीन भी आज विदेशों से आने वाली मांग की कमी से जूझ रहा है और इस मांग की क्षतिपूर्ति घरेलू मांग से पूरी करने की कोशिश हो रही है।
हम जानते हैं कि विदेशी मांग के साथ-साथ घरेलू मांग ने भी चीन की अर्थव्यस्था को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन यह सब सरकारी बैंकों द्वारा अंधाधुंध साख निर्माण और सरकार द्वारा भारी सहायता देने के कारण हुआ। इसके बावजूद उत्पादन मांग से कहीं ज्यादा था। उत्पादन के आधिक्य के चलते चीन के पास अपने माल को दूसरे देशों में ‘डंप’ करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा। सरकारी सहायता और येन केन प्रकारेण अपना माल बेचने की मजबूरी के कारण चीन ने दुनिया के बाजारों में लागत से भी कम कीमत पर अपना माल ‘डंप’ करना शुरू किया। भारत ही नहीं अमेरिका, यूरोप और अधिकांश देशों में चीनी माल की ‘डंपिंग’ के कारण वहां के उद्योग-धंधे नष्ट होने लगे, और पिछले कुछ साल में अमरीका और यूरोप के देशों ने अपनी प्रतिक्रिया शुरू कर दी। हाल ही में अमेरिकी राष्टÑपति डोनल्ड ट्रंप के चीनी आयात के खिलाफ मोर्चा खोलने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि चीन द्वारा अमेरिकी में आसानी से सामान नहीं बेचा जा सकेगा। उधर यूरोपीय देशों में भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया दिखाई दे रही है। भारत में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं, लेकिन परोक्ष रूप से ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के द्वारा आयात पर, विशेष रूप से चीन से आयात पर रोक लगाने की बात की गई है। ऐसे में चीनी अर्थव्यवस्था की समस्याएं और ज्यादा बढ़ने वाली हैं।
आज चीनी अर्थव्यवस्था भारी संकटों से जूझ रही है। पिछले कुछ साल में अपना निर्यात बढ़ाने की कवायद में चीन की सरकार ने अपने उद्योगों को भारी सहायता दी, जिसके कारण उनका बजट घाटा अत्यधिक बढ़ गया। इस बजट घाटे की भरपाई ज्यादा मुद्रा छाप कर की गई, जिसका असर कीमतों पर पड़ने लगा। पिछले कई साल से चीन में कीमतों में भारी वृद्धि हो रही है। हालांकि चीनी सरकार झूठे आंकड़े प्रकाशित करती है (और दुनिया में उनके आंकड़ों पर कोई विश्वास नहीं करता), लेकिन पिछले कुछ साल में उसकी बढ़ती मजदूरी दर ने उसकी सारी पोल खोल दी है। चीन में मजदूरी दर पिछले कुछ साल में 850 युआन से बढ़कर 1600 युआन से ज्यादा पहुंच चुकी है। वहां बढ़ती मजदूरी दर ने चीनी उद्योगों की प्रतिस्पर्द्धात्मक शक्ति को काफी क्षीण कर दिया है। दुनिया भर में मंदी के कारण घटते आयात ने उसका संकट और बढ़ा दिया है। चीन में निर्माण क्षेत्र का विकास अब लगभग थम गया है और उसकी फैक्टरियां बंदी के कगार पर हैं। दुनिया भर से चीनी माल के आयात के विरोध में सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों ने चीन की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं।
भारत में रुक सकता है चीनी आयात
आमतौर पर चीनी सामान के बहिष्कार का समर्थन नहीं कर रहे लोगों का यह तर्क रहता है कि चूंकि हम डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत व्यापार समझौतों से बंधे हुए हैं, इसलिए हम चीनी माल पर ‘टैरिफ’ या ‘गैर टैरिफ’ बाधाएं लगाकर उसे रोक नहीं सकते। हालांकि यह सही है कि सामान्य परिस्थितियों में कोई सरकार विदेशों से होने वाले आयात पर अनावश्यक ‘टैरिफ’ लगाकर या अन्य प्रकार के प्रतिबंध लगाकर उन्हें रोक नहीं सकती। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी संप्रभु सरकार विदेशी माल को सरकारी खरीद से बाहर कर सकती है। ‘बाय अमेरिकन एक्ट 1933’ के अनुसार अमेरिकी सरकार अपनी खरीद में सिर्फ अमेरिकी सामान खरीदने का अधिकार रखती है। इसी तर्ज पर हाल ही में भारत सरकार ने नियमों में बदलाव कर आम वित्तीय नियमों की उपधारा 153 के अनुसार यह निर्देशित किया है कि सरकारी खरीद में देश में बना हुआ सामान ही खरीदा जाए। इसके अंतर्गत 50 लाख रुपए तक की सरकारी खरीद में सिर्फ देश में बना हुआ सामान ही खरीदा जाएगा और 50 लाख रु. से अधिक की खरीद में 20 प्रतिशत मुनाफे के साथ भारतीय सामान खरीदा जा सकेगा, यानी भारतीय सामान को 20 प्रतिशत महंगा होने पर भी खरीदा जा सकेगा।
इसके अलावा यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत हमें हर सामान को खरीदना अनिवार्य है, क्योंकि हम जानते हैं कि चीनी सामान सस्ता ही नहीं बल्कि घटिया किस्म का होता है। इसलिए उसे रोकने के लिए हमें मात्र मानक तय करने हैं। यदि वह सामान हमारे मानकों पर खरा नहीं उतरता, हम उसे तुरंत रोक सकते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि भारत सरकार चीन से आने वाले सामान के मानक तय कर उन्हें घोषित करे। भारत सरकार ने अभी तक प्लास्टिक के सामान, पावर प्लांट इत्यादि पर मानक लगाकर चीनी आयात को आने से रोका भी है। सरकार के सभी विभागों को निर्देशित किया जा रहा है कि वे अपने अंतर्गत आने वाले विषयों से संबद्ध उत्पादों के लिए मानक तय करें ताकि उन मानकों पर सही न उतरने वाले उत्पादों को आसानी से प्रतिबंधित किया जा सके।
इसके अलावा हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि चीन भारत के बाजारों पर कब्जा करने की दरकार से लागत मूल्य से भी कम पर अपना सामान ‘डंप’ कर देता है। इस संबंध में डब्ल्यूटीओ नियमों में यह प्रावधान है कि ऐसा सामान जो लागत से कम मूल्य पर ‘डंप’ किया जा रहा है, उसे प्रभावित पक्षों की शिकायत पर ‘एंटी डंपिंग’ ड्यूटी लगाकर रोका जा सकता है। ऐसी ‘एंटी डंपिंग ड्यूटी’ कई बार लगाई भी जा चुकी है और कई अन्य मुल्क इन प्रावधानों का उपयोग भी कर रहे हैं।
मंगोलिया, द. कोरिया और नार्वे ‘दंडित’
आश्चर्य का विषय है कि हमारे विशेषज्ञ चीनी माल पर प्रतिबंध लगाने के संदर्भ में डब्ल्यूटीओ के नियमों का हवाला देते हैं, वहीं दूसरी ओर चीन ने डब्ल्यूटीओ नियमों को धता बताते हुए कई देशों के माल को अपने यहां आने से रोक दिया है। चीन की इस प्रकार की कार्रवाई को खुलासा करते हुए रक्षा विषेषज्ञ ब्रह्म चेलानी का कहना है कि जब मंगोलिया ने दिसंबर 2016 में चीन की धमकी के बावजूद तिब्बती नेता दलाई लामा का अपने देश में स्वागत किया तो चीन ने सैकड़ों की संख्या में मंगोलिया से आने वाले कोयले के ट्रकों को अपनी सीमा में घुसने नहीं दिया था। अल-जजीरा की रपट में लिखा गया- ‘‘मंगोलिया को पांथिक स्वतंत्रता को अपनी आर्थिक आवश्यकता से वरीयता देने की भारी कीमत चुकानी पड़ी।’’ उधर दक्षिणी कोरिया के अमेरिकी मिसाइल प्रणाली ‘टर्मिनल हाई ऐल्टिट्यूड एरिया डिफेंस’ को अपने यहां स्थापित करने पर चीन ने कोरिया से आने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों पर तो रोक लगा ही दी, साथ-ही दक्षिण कोरिया के साथ पर्यटन को भी रोक दिया। उसके नार्वे से आने वाली सॉलमन मछली पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि नोबेल पुरस्कार समिति ने चीन के विद्रोही नेता लियु ज्यिोवो को नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया था। अंत में जब नार्वे ने एक चीन नीति को मानने की घोषणा की तब जाकर उस प्रतिबंध को हटाया गया।
(लेखक पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
अतीत के झरोखे से
1988 में भारत की ओर से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का चीन दौरा। 1962 की जंग के बाद रिश्तों को सामान्य करने की शुरुआत। चीन के प्रमुख नेता तंंग श्याओ फंग ने सीमा विवाद पर मतभेदों को अलग रखकर आगे बढ़ने की बात की।
1993 में चीन-भारत ने ह्यवास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति कायम रखने के लिए यथास्थिति बनाए रखने और सीमा पर विवाद को ह्यशांतिपूर्णह्ण और दोस्ताना बातचीत से सुलझाने पर जोर दिया। 1962 की जंग के बाद यह पहला सीमा समझौता था।
1996 में भरोसा बहाली को लेकर चीन-भारत के मध्य पहला समझौता हुआ, जिसमें वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैन्य तैनाती में कटौती, सीमा पर सैन्य अभ्यास पर अंकुश और दोनों देशों के मध्य कुछ नियमों को लेकर सहमति
2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का चीन दौरा। दोनों पक्ष सीमा विवाद को तीन चरणों में स्थायी समाधान की बातचीत के लिए विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करने पर सहमत
2005 में चीन ने अपने नक्शे में सिक्किम को भारत का हिस्सा माना। पश्चिम, मध्य और पूर्वी क्षेत्र में ह्यसार्थक और परस्पर स्वीकार्यह्ण बातों और समस्याओं के समाधान पर जोर।
2013 में अक्साईचिन के पास देपसांग में टकराव। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गश्त के नियम दोनों ओर से कड़े किए गए। अक्तूबर 2013 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का चीन दौरा।
2014 में शी जिनपिंग भारत दौरे पर। इस दौरान लद्दाख में दो सप्ताह तक टकराव रहा। चीन ने सीमा आचरण संहिता की मांग की।
लेन- देन
भारत-चीन का दोतरफा व्यापार 70 अरब डॉलर से ज्यादा का आंका जाता है।
अवैध कब्जा और दावा
पश्चिम में चीन का अक्साईचिन के 38,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा है और पूरब में उसका दावा अधिकांश अरुणाचल प्रदेश पर है जो करीब 90,000 वर्ग किलोमीटर है।
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