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वीरेन्द्र सिंह परिहार
मात्र आठ वर्ष की आयु में एक बार उमाकांत देर रात तक ईसप की नीति कथाएं पढ़ते रहे और सिर्फ चार घंटे की नींद लेकर प्रात: फिर किताब पढ़ने में तल्लीन हो गए, क्योंकि अगले दिन उनके मामा किताब अपने साथ लेकर जाने वाले थे। उनकी मां भोजन करने के लिए बुलाती रहीं, लेकिन वे माने नहीं। इस पर उनके पिता क्रोधित होकर उन्हें मारने के लिए उठे। इस पर बालक उमाकांत ने कहा कि ‘आप मुझे मार सकते हैं, लेकिन मैं पुस्तक पढ़ना नहीं छोडूंगा और जब तक पुस्तक पूरी नहीं हो जाती है, तब तक अन्न क्या, जल भी ग्रहण नहीं करूंगा।’ मामा के हस्तक्षेप से वे पिटने से बचे और 10 घंटे में पूरी पुस्तक पढ़ ली। जब मां ने पुन: खाने के लिए कहा तो उन्होंने जवाब दिया ‘अभी तो मेरा पेट इतनी सुन्दर पुस्तक पढ़ने के आनन्द से भरा हुआ है, दूसरे मैं नियमानुसार सबके साथ ही भोजन करूंगा।’ जब मामा ने खुश होकर वह पुस्तक उन्हें भेंट करनी चाही तो उन्होंने कहा कि अब नहीं चाहिए, क्योंकि मुझे सभी कहानियां याद हो गई हैं। इसके बाद उनकी परीक्षा ली गई, जिसमें उन्होंने सभी कहानियों को फटाफट सुना दिया। इस तरह से उमाकांत की लगन, निष्ठा, जिज्ञासा और अद्भुत याद्दाश्त का नमूना इतनी छोटी उम्र में ही देखने को मिल गया था।
उमाकांत की राष्ट्रभक्ति को दर्शाने वाली एक घटना उन दिनों की है, जब वे कांरजां कस्बे (जिला अमरावती) में पढ़ते थे। 1915 में एक दिन लोकमान्य तिलक रेलगाड़ी से उस रास्ते से गुजरने वाले थे। स्वराज के उस प्रखर योद्धा से छात्र न मिल सकें, इसलिए मध्यान्तर से ही प्रधानाध्यापक ने स्कूल का फाटक बंद करवा दिया था और विद्यार्थियों में लाई, चना बंटवा दिया, पर आपटे उमाकांत ने उसे छुआ भी नहीं। किन्तु जैसे ही पांच बजे गाड़ी की सीटी सुनाई दी कि वे खड़े हो गए और कहा कि विद्यालय समाप्ति का समय हो गया है, मुझे आवश्यक काम से बाहर जाना है। पूछे जाने पर उन्होंने स्पष्ट रूप से बता भी दिया था कि उन्हें लोकमान्य तिलक के दर्शन करने स्टेशन जाना है। इससे प्रधानाध्यापक ने उनकी पिटाई कर दी और इसी बीच स्टेशन से गाड़ी छूटने की आवाज भी सुनाई दी। प्रधानाध्यापक ने कहा कि अब तुम खुशी से घर जा सकते हो। जवाब में उमाकांत ने कहा, ‘‘मैंने मन ही मन तिलक जी का ध्यान कर लिया, अपनी कल्पना में उनका भाषण भी सुन लिया, उस भाषण से इतना प्रभावित हो गया हूं कि तिलक जी के आदेशानुसार मैंने अपना पूरा जीवन देश कार्य में लगाने का निश्चय कर लिया है।’’ सचमुच बालक उमाकांत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से अपना सारा जीवन राष्ट्र कार्य में अर्पित कर दिया, जो आगे चलकर अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख बने और बाबा साहब आपटे के नाम से विख्यात हुए।
द्वितीय श्रेणी में मैट्रिक परीक्षा पास करने के उपरांत वे धामण गांव में शिक्षक हो गए, किन्तु पढ़ाई के दौरान उनकी राष्ट्रवादी विचारधारा व्यक्त होती रही। उन्होंने तिलक जयंती भी मनाई, फलत: तत्कालीन व्यवस्था के तहत वे देशद्रोही करार दिए गए, इसलिए उन्होंने वहां से त्यागपत्र दे दिया। वे नागपुर उद्यम मुद्रणालय आ गए और वहीं पर डॉ़ हेडगेवार के संपर्क में आकर संघ के स्वयंसेवक बन गए।
स्वातंत्र्य वीर सावरकर की पुस्तक ‘1857 का स्वतंत्रता समर’ पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा रखा था। आपटे जी इस पुस्तक को अपने हाथों से टाईप करके युवकों को बारी-बारी से पढ़ने के लिए वितरित करते रहते थे, ताकि उनमें स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता की चिनगारी धधके। अपने कार्यालयीन काम के बाद जो समय मिलता था, उसमें वे संघ कार्य करते थे। आप्टे जी अपने परिवार के विषय में किसी से कुछ नहीं बताते थे, क्योंकि वे तो घर-परिवार से पूरी तरह मुक्त होकर राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में कूद चुके थे।
संघ का कार्य बढ़ने पर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और संघ कार्य हेतु अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। नागपुर से निकलकर देश के विभिन्न भागों में संघ के प्रचार के लिए जाने वाले पहले जत्थे के पथ-प्रदर्शक बाबा साहब आपटे ही थे। वे स्वयं पंजाब गए, पंजाब में संघ का कार्य इन्हीं के माध्यम से फैला। इस दौरान वे गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहेब गए तो वहां गुरु गोबिंद सिंह जी के नन्हे पुत्रों फतेह सिंह और जोरावर सिंह की बलिदान स्थली को देखकर अत्यंत भाव-विभोर हो गए। उस धरती को प्रणाम कर उन्होंने वहां उपस्थित स्वयंसेवकों से कहा कि ‘‘देखो, उन्होंने क्रूरता का सामना कितनी दृढ़ता से किया। इतनी छोटी उम्र किन्तु इतना बड़ा साहस! एक हम हैं कि छोटी-सी अड़चन आते ही ध्येयच्युत हो जाते हैं।’’
आपटे जी इतने परिश्रमी थे कि उनसे बड़े-बड़े हार जाते थे। 1937 में कानपुर में नई शाखा खोलने पर आपटे जी प्रवास में गए और सुबह छह बजे नहा-धोकर एक स्वयंसेवक को लेकर लोगों से मिलने निकल पड़े और 15-20 लोगों से मिलने में कई मील का चक्कर लगाया। शाम को लौटने पर उनके साथ जाने वाला स्वयंसेवक बीमार पड़ गया। यही स्थिति दूसरे दिन दूसरे स्वयंसेवक की भी हुई, पर वे 15-20 मील चलकर भी लौटकर छात्रावास के छात्रों से मिलकर और संघ-विषयक वार्ता करते। उन्होंने पूरे देश का दौरा हवाई जहाज से लेकर साईकिल तक से किया। भोजन भी कभी ‘‘घी-घना तो कभी मुट्ठी-भर चना, तो कभी वह भी मना’’ लेकिन उन्होंने कभी स्वाभिमान पर आंच नहीं आने दी। वे अपने निर्धारित कार्यक्रमों को बहुत कठोरता से पूरा करते थे। एक बार उन्नाव से कानपुर जाना था, पर बैठकों के चलते 10 बजे रात वाली गाड़ी छूट गई और प्रात: छह बजे उन्हें कानपुर की विद्यार्थी बैठक में पहुंचना था। लोगों ने समझाया कि कोई खास बैठक नहीं है, 10-12 विद्यार्थी ही तो मिलेंगे, पर आपटे जी बोले- ‘‘10-12 विद्यार्थियों का आना क्या कम महत्वपूर्ण है? प्रात: छह बजे मुझे वहां न पाकर उनके मन पर क्या संस्कार पड़ेगा?’’ फलत: वह बारह मील पैदल चलकर निर्धारित समय पर बैठक में उपस्थित हुए। इसी तरह से एक बार बिहार में दरभंगा से आगे प्रवास पर जाना था, लेकिन यातायात ठप था। अतएव झोला लेकर पैदल ही चल पड़े और सतत दस घंटे पैदल चलकर मुजफ्फरपुर पहुंचे और बगैर आराम किए ही कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन किया। प्रात: चार बजे पुन: बारह घंटे पैदल चले और मोतीहारी पहुंचे। वहां से बैठक लेकर चार बजे सुबह पुन: पैदल चलकर दोपहर बारह बजे बेतिया पहुंचे। उन्हें बेतिया से पटना जाना था, किन्तु मार्ग पर सेना का कड़ा पहरा होने से गंडक नदी से नाव द्वारा भयंकर बाढ़ में पटना चल पड़े। सभी आपत्तियोें को पारकर तीसरे दिन वे पटना पहुंच गए।
एक बार महाकौशल का शीर्ष शिविर होशंगाबाद में आयोजित था और होशंगाबाद जाने वाली टेÑन छूट गई। होशंगाबाद वहां से 11 किलोमीटर दूर था। कुछ तांगों की व्यवस्था की गई और यह व्यवस्था दी गई कि वृद्धों और कमजोरों को छोड़कर अन्य लोग पैदल चलें। संघ के कार्यकर्ता चाहते थे कि वरिष्ठ अधिकारी के नाते आपटे जी तांगे में चलें, किन्तु उन्होंने यह कहकर तांगे में जाने से मना कर दिया कि न मैं वृद्ध हंू और न कमजोर। 1947 में लखनऊ में स्वयंसेवकों के कार्यक्रम में अचानक बारिश के साथ ओले पड़ने लगे। स्वयंसेवकों में कुछ हलचल होने पर आपटे जी ने वहीं अपनी पगड़ी उतार दी। स्वयंसेवकों ने देखा कि चिकने सिर पर ओले तड़ातड़ गिर रहे हैं, फिर वह सहज भाषण दे रहे हैं। स्वयंसेवक भी ऐसी स्थिति में उन्हें शांत एवं स्थिर होकर सुनते रहे। वे महाविद्यालयीन विद्यार्थियों से कहा करते थे, ‘‘मात्र पेट-पूजा और परिवार पालन में जीवन की सार्थकता नहीं है, देश की चिंता करो, त्याग और सेवा का मार्ग अपनाओ, चलो घर छोड़ो और दो वर्ष कार्य के लिए दो, अन्य प्रांत में जाकर वहां के नवयुवकों में चैतन्य उत्पन्न करो।’’ उनके विचारों से प्रभावित होकर सैकड़ों युवकों ने अपना जीवन संघ कार्य को अर्पित कर दिया। आज जब रईसी का भोंडा प्रदर्शन देखने को सर्वत्र मिलता है। ऐसे ही एक रईस के यहां नाश्ते में बाबा साहब आपटे को एक दर्जन प्लेटें सजा दी गर्इं, किन्तु बाबा साहब ने मात्र एक प्लेट से खाया। बाद में उन्होंने इस पर आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘देश के कितने ही लोगों को दो समय का भोजन भी प्राप्त नहीं और जो देश के प्रति भक्ति जगाने का व्रत लिए हैं, उन्हें ऐसा नाश्ता!’’ क्या समाजवाद की माला जपने वाले और अय्याशी तथा फिजूलखर्ची का जीवन जीने वाले इससे कुछ नसीहत लेंगे? एक बार बंगाल और तमिलनाडु में कार्यरत दो प्रचारक उनसे मिलने नागपुर आए। आपटे जी ने उनसे पूछा- ‘‘तुमने बंगाली सीखी, क्या तुम तमिल में बात कर सकते हो?’’ दोनों का नकारात्मक उत्तर सुनकर वे बहुत नाराज हुए और बोले कि तुम जैसे लोग ही अंग्रेजी को स्थायी बना रहे हो। उल्लेखनीय है कि आपटे जी मराठी के साथ-साथ हिन्दी, अंग्रेजी और अधिकारपूर्वक संस्कृत भी बोलते थे। उन्होंने संगठन के गुरु भगवाध्वज, संगठन के मंत्र स्वर, प्रार्थना तथा संकल्पाधार प्रतिज्ञा की सरल व सुबोध व्याख्या करके स्वयंसेवकों में वैचारिक स्पष्टता, प्रखरता और दृढ़ता तो उत्पन्न की ही, साथ ही इस भारतभूमि के कोने-कोने के महापुरुषों, नदियों, वनों, पर्वतों आदि के बारे में श्रद्धा उत्पन्न करने की दृष्टि से ‘भारत-भक्ति स्रोत’ के 28-30 श्लोकों को रचा, जिसके कहने मात्र से ही व्यक्ति में राष्ट्रभक्ति के संस्कार उत्पन्न होते हैं। इस तरह आपटे जी ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण भारत माता को समर्पित करते हुए अनगिनत ध्येय शून्य लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा कर उनको जीवन को सार्थक कर दिया। इस कारण हिन्दुत्व की आंच सारे समाज में दिनोंदिन भरती जा रही है और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया तेज हो चली है। त्याग, साधना एवं समर्पण का अन्यत प्रतीक आधुनिक दधीचि 26 जुलाई, 1972 को इस धरती से प्रयाण कर गया। ल्ल
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