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तरुण विजय
नेहरू हिन्दी-चीनी भाई-भाई कहते रहे और चीन साम्राज्यवादी नीति पर बढ़ता रहाजनस्मृति बहुत क्षीण होती है। जो कांग्रेसी आज कह रहे हैं कि देश उनकी वजह से आजाद हुआ, उन्हें बताना चाहिए कि उनकी वजह से देश बंटा। आजाद हुआ तो सुभाष बोस और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के कारण जो कभी कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहे। 15 अगस्त, 1947 को खंडित एवं निर्दोष भारतीयों के रक्त से स्नात भारत अभी संभला भी न था कि सितंबर में पाकिस्तान ने हमला किया और फिर चीन ने अक्साईचिन हड़प लिया। नेहरू के कारण भारत ने 1.25 लाख वर्ग किमी. भूमि पाकिस्तान और चीन के हाथों जाने दी। मुझे आश्चर्य होता है कि 70 वर्ष बीत गए लेकिन कभी नेहरूवंशीय कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर यह सवाल नहीं पूछा गया कि स्वतंत्र भारत की सवा लाख वर्ग किमी. जमीन जो चीन और पाकिस्तान के हाथों गंवा दी गई, उसके बारे में कांग्रेस पार्टी ने कितने प्रस्ताव पारित किए, कितने चुनाव घोषणापत्रों में उस भूमि को वापस लेने का संकल्प व्यक्त किया। यह तो केवल अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में सीमा विवाद को चर्चा के माध्यम से हल करने के लिए आयोग बनाया गया। वरना कांग्रेस तो इसे ‘भूला हुआ विषय’ मान बैठी थी।
नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में भारतीय जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का श्रीनगर में रहस्यमय परिस्थिति में देहांत हुआ। इस पर लोकसभा में चर्चा करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने उसे नेहरू-शेख अब्दुल्ला दुरभिसन्धि से हुई ‘हत्या’ कहा था।
नेहरू की चीन के साथ मायावी मित्रता का भारत को बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा। 1948 में भारत को सुरक्षा परिषद् की सदस्यता मिल रही थी, लेकिन कम्युनिस्ट चीन से मित्रता के लोभ में नेहरू ने न केवल राष्ट्रसंघ की सदस्यता हेतु उसका समर्थन किया, बल्कि सुरक्षा परिषद् की सीट दिलवाई।
1962 और तैयारी ऐसी कि जवानों के पास न तो सर्दी के जूते और न जुराबें, और न ही हथियार। जनरल कौल की अक्षमता और नेहरू की अव्यावहारिक नीति ने नेफा और लद्दाख में चीनी शिंकजे को कसने दिया और नेहरू ने हारे हुए मन से आॅल इंडिया रेडियो से असम के तेजपुर निवासियों को ‘विदा’ ही दे दी थी। उस युद्ध में भारतीय सेना जीती, मेजर शैतान सिंह का शौर्य, राइफलमैन जसवंत सिंह रावत का पराक्रम रक्त से लिखी गौरव गाथा है।
स्वतंत्र भारत का पहला भ्रष्टाचार कांड ‘जीप घोटाला’ नाम से कुख्यात है। पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया था, सेना के पास जीपें नहीं थीं। तुरंत किसी भी कीमत पर जीपें खरीदने का आदेश दिया गया। तब लंदन में भारतीय उच्चायुक्त टी.टी. कृष्णमाचारी थे। विली मार्का जीपें खरीदी गर्इं। युद्ध समाप्त होने के 18 माह बाद जीपें आर्इं। संसद उस कांड से हिल उठी थी। यह भी नेहरू की देन है। हिंदू मन और हिंदू जीवन पद्धति से इतनी घृणा कि नेहरूवाद वस्तुत: अहिंदूवाद में तब्दील हो गया। तत्कालीन मीडिया पर नेहरू का इतना एकाधिकारवादी शिकंजा था कि नेहरू समर्थक विचार के अलावा और कुछ छपता ही न था। यही कारण रहा कि रा.स्व.संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री म.स. गोलवलकर ने देश की विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता के विचारों को महत्व देने वाली पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को आरंभ करवाया।
कांग्रेस ने कभी राष्ट्र द्वारा सम्मानित एवं जन-मन में लोकप्रिय कांग्रेसी नेताओं को अपनी ‘नक्षत्र-धारा’ का अंग नहीं बनाया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, पुरुषोत्तम दास टण्डन, डॉ. सम्पूर्णानंद, मा. मुंशी, लाल बहादुर शास्त्री जैसी अनेक विभूतियां केवल प्रखर राष्ट्रीयता के भाव के कारण जनप्रिय हुईं एवं उन्हें असीम जन-सम्मान मिला परंतु नेहरू वंशीय कांग्रेसी नेतृत्व ने उन्हें नकार दिया। उन्हें कभी भी नेहरू-गांधी खानदानी नेतृत्व के समकक्ष सम्मान नहीं दिया।
नेहरू-गांधी वंश के नेतृत्व ने न केवल भारत की भूमि शत्रुओं के हाथों गंवायी, बल्कि भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दिया। जीप घोटाला, मूंधड़ा घोटाला, बीमा घोटाला, नागरवाला कांड, ललित नारायण मिश्र हत्याकांड, कश्मीर समस्या का जन्म, धारा 370 लगाना, जम्मू-कश्मीर को दूसरे ध्वज की अनुमति, विदेशी धन और मन पर पले कम्युनिस्टों से दोस्ती और देशभक्त रा.स्व.संघ पर प्रतिबंध, आपात्काल लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलना और लोकतंत्र के प्रहरियों पर अमानुषिक अत्याचार, बोफर्स घोटाला, पनडुब्बी घोटाला, अंतरिक्ष कंपनी घोटाला, कोयला खदानों का भयानक घोटाला, 2 जी, 3 जी घोटाला… यह सूची अनंत है। यह सब केवल और केवल नेहरू-गांधी वंशजों के सत्तासुख के लिए देशभर पर किए गए आघात हैं।
इस देश की राजनीतिक काया भले ही सेकुलर राजनीति की हो, लेकिन भारत का मन शुद्ध, प्रबुद्ध हिंदू है। कांग्रेस ने इस हिंदू मन पर आघात किए। हिंदूबहुल देश में हिंदू जीवन और प्रतीकों की चर्चा अपराध बना दी गईं। यह हिंदू मानस की उदारता का ही परिणाम है कि विदेशी मूल की एक ईसाई सत्ता शिखर पर रहे, यह भी स्वीकार हो गया। किसी अन्य देश में तो यह अकल्पनीय ही होगा। इसके बावजूद हिंदू जीवनपद्धति एवं हिंदू धर्मावलंबियों के प्रति कांग्रेस के नेहरूवंशीय नेतृत्व की वितृष्णा और दुष्ट-दृष्टि सदैव प्रभावी रही। इसी के विरुद्ध जनमानस में जिस राष्ट्रीयता के प्रबल प्रवाह का उद्रेक हुआ, उसने नेहरू कांग्रेस को हाशिए पर ठिठकी पाल-कुश्ती में बदल दिया है। जो जहां जाती है वहीं कांग्रेस का भविष्य सुखाती है। इसी के लिए एक शायर ने लिखा था- ‘तेरे लब ये हैं, इराके शामों मिस्रों रोमों चीं (चीन)’ लेकिन अपने ही वतन के नाम से
वाकिफ नहीं। (लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद हैं)
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