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एजेंडाधारी मीडिया का चेहरा उजागर

by
Jul 17, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 17 Jul 2017 13:33:08

एक बार फिर अमरनाथ यात्रियों पर जिहादी हमला और पश्चिम बंगाल में हिंसा को लेकर खुली पोल

मुख्यधारा मीडिया और उसके कर्ता-धर्ता अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि लोग उनकी चालबाजियों को समझने लगे हैं। बीते एक दशक में मीडिया में परिपक्वता के कोई लक्षण नहीं दिखे, लेकिन दर्शक और पाठक पहले से ज्यादा समझदार हो चुके हैं। नतीजतन, ज्यादातर एजेंडाधारी समाचार माध्यमों और पत्रकारों की पोल खुल चुकी है। अमरनाथ यात्रियों पर जिहादी हमला हो या बंगाल हिंसा, दोनों मामलों में मीडिया के इस धड़े ने अपना असली चेहरा एक बार फिर उजागर कर दिया। जब भी ऐसी कोई घटना होती है तो फौरन मानवता की दुहाई दी जाती है। सुरक्षा व्यवस्था में चूक के सवाल उठाए जाते हैं लेकिन यह बात नहीं होने दी जाती कि वह कौन-सी सोच है जो हिंदुओं को तीर्थयात्राओं पर जाने से भी रोकना चाहती है। वह कौन-सी मानसिकता है जिसके तहत फेसबुक पोस्ट के आधार पर पूरे शहर में हिंदुओं को बर्बाद कर दिया जाता है। मीडिया यही प्रयास करता है कि बहस को असली मुद्दे से भटका दिया जाए। वह कुछ हद तक कामयाब भी हो जाता है। पहले बंगाल और बीते हफ्ते कश्मीर में हमने यही होते देखा।
बल्लभगढ़ के कथित हत्याकांड के जिस आरोपी को बीते हफ्ते पकड़ा गया, मीडिया उसे हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़ा बता रहा था, जबकि वह एक प्राइवेट सिक्योरिटी एजेंसी का गार्ड निकला। उसने बताया कि कैसे ट्रेन में सीट के झगड़े में उसे बुरी तरह मारा-पीटा गया था। उसने आत्मरक्षा के लिए जवाबी हमला किया, जिसमें एक लड़के की जान चली गई। मरने वाला मुसलमान था, इसलिए मीडिया ने तिल का ताड़ बना दिया। पहली नजर में मामले की पूरी सच्चाई सामने आ चुकी है। जिन्हें पीड़ित बताया गया था, वे ही गुंडे निकले। जिसे हत्यारा बताया गया, वह हिंसा का शिकार निकला। लेकिन वह मीडिया अब मौन है जो इस घटना को ‘हिंदू आतंकवाद’ साबित करने में जुटा था। उधर किसी महान पत्रकार ने ट्वीट करमाफी मांगने की जरूरत नहीं समझी कि मामले की रिपोर्टिंग में चैनलों और अखबारों से मूलभूत गलतियां हुर्इं, जिन्हें सुधारने की जरूरत है। चैनल और अखबार कभी माफी नहीं मांगेंगे, क्योंकि वे अपने असली एजेंडे में कामयाब हो चुके हैं। पिछले अंक में हम बता चुके हैं कि बल्लभगढ़ मामले में बीफ की थ्योरी क्रांतिकारी चैनल के एक जिहादी पत्रकार के दिमाग की उपज थी।
इसी दौरान दिल्ली में एयरहोस्टेस की पढ़ाई कर रही एक छात्रा को चाकुओं से गोदकर मार डाला गया। आरोपी लड़के मुसलमान थे। हर मामले में मजहबी एंगल ढूंढने वाले सेकुलर चैनलों और अखबारों ने इस बात का जिक्र तक नहीं किया कि आरोपी ने खुद को हिंदू बताकर लड़की को झांसे में लिया था। एक-दो चैनलों और अखबारों को छोड़ दें तो ज्यादातर में यही दुराग्रही रवैया देखने को मिलता है। कर्नाटक के मंगलुरू में संघ के स्वयंसेवक शरत मडिवाल की बर्बर हत्या की खबर तो गायब ही कर दी गई। कुछ स्थानीय अखबारों में घटना की जानकारी छपी, पर दिल्ली तक नहीं पहुंची। जब उसके शव को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो जिहादी भीड़ ने पथराव किया। शायद इसीलिए मीडिया को इसमें असहिष्णुता का कोई मामला नजर नहीं आया। यह बहस भी कहीं नहीं दिखी कि गैर-भाजपा शासित राज्यों में हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े लोगों को क्यों शिकार बनाया जा रहा है?
सिक्किम में चीनी घुसपैठ से जुड़ी खबरें भी मीडिया में जगह बनाए हुए हैं। लेकिन वहां पर भारतीय सेना ने जिस मजबूती से जवाब दिया है और जिस तरह से सरकार ने चीन के चारों तरफ कूटनीतिक घेराबंदी की है, उसका जिक्र कम ही दिखता है। देश में भले ही वामपंथ का सफाया हो चुका हो, पर समाचार माध्यमों में उनकी घुसपैठ आज भी है। कई बड़े चैनलों और अखबारों के संपादक कार्डधारी कॉमरेड हैं। जब भारत बनाम चीन की बात होती है तो उनकी निष्ठा स्वाभाविक रूप से चीन के प्रति होती है। इन्हीं के संस्थानों में ऐसे लेख छपते हैं कि ‘चीन से टकराव मोल लेना भारत को बहुत महंगा पड़ेगा।’ इन्हें चीन के आगे भारत के झुकने की खबर देना अच्छा लगता है। अब जबकि भारत ने चीन को उसी की भाषा में जवाब दिया है तो कहा जा रहा है कि ऐसा करके भारतीय सेना और सरकार ने कितनी बड़ी भूल कर दी है।
उधर, लालू यादव के परिवार का हजारों करोड़ का खजाना बाहर निकल रहा है। लालू को लेकर मीडिया की नरमी साफ तौर पर देखने को मिली। आजतक, एबीपी न्यूज समेत सभी चैनलों ने लालू की तारीफ में 1-1 घंटे के कार्यक्रम दिखाए। ऐसा जताया मानो यह आर्थिक अपराध नहीं, बल्कि कोई राजनीतिक आरोप है। जिसने गरीबों का हक लूटा हो, उसका गुणगान भारतीय मीडिया में ही संभव है। लालू यादव के बेटे ने अपने सामने कुछ चुनिंदा पत्रकारों को पिटवाया। वे और उनके चहेते पत्रकार वहीं पर खड़े मुस्कराते रहे। लेकिन दिल्ली में बैठे लोकतंत्र के स्वयंभू रक्षकों को इसमें कुछ गलत नहीं लगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि लालू यादव के भ्रष्टाचार में ये लोग भी शामिल थे?    ल्ल

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