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-अमित त्यागी –
जब बात शराब की होती है तब कुछ लोग इसे सुरूर और आनंद का नाम देते हुए इसके समर्थन में तर्क गढ़ने लगते हैं। कुछ लोग इसे खुशी बांटने का माध्यम बताते हैं, तो कुछ गम मिटाने का एक तरीका। कुछ लोग इसे थकान मिटाने के रूप में देखते हैं, तो कुछ इसे दोस्ती बढ़ाने का विकल्प बताते हैं। सबके अपने तर्क होते हैं शराब को जायज ठहराने के। इसी तरह जब हम अश्लीलता (पॉर्न) की बात करते हैं तब नग्नता और वयस्क फिल्मों की तस्वीर उभरती है। हम यह मान कर चलते हैं कि यह वयस्कों के मनोरंजन का साधन मात्र है। क्षणिक सुख के लिए समाज का एक वर्ग अश्लील फिल्मों की तरफ आकर्षित होता है। यहां तक देखने पर कोई भी व्यापक दुष्प्रभाव दिखाई नहीं देता है, किन्तु शराब और अश्लील फिल्मों का मेल समाज में एक नए तरीके का अपराधी वर्ग पैदा कर रहा है। इन दोनों के बीच में उत्प्रेरक का काम करता है उत्तेजना फैलाने वाला विज्ञापन उद्योग। विज्ञापनों में उत्तेजित करते दृश्य धीरे-धीरे कब मानसिक विकृति पैदा कर देते हैं, हमको पता भी नहीं चलता।
अब एक परिदृश्य के जरिए अपराध को समझने का प्रयास करते हैं। विज्ञापनों मे सिगरेट का धुआं उड़ाता नौजवान चुटकियों मे बड़े-बड़े काम कर देता है। खूबसूरत लड़की उसके आसपास मंडराने लगती है। डीओ की खुशबू जैसे महिलाओं को रिझाने का माध्यम ही दिखाई जाती है। 'डीओ लगाओ और अपने आसपास लड़कियों का जमावड़ा पाओ।' इसके बाद खूब जमता है रंग 'जब मिल बैठते हैं तीन यार'। यही दर्शक वर्ग जब इन उत्पादों के प्रयोग के बाद नशे की हालत में अश्लील फिल्में देखता है तो ये उसकी विकृत मानसिकता के लिए एक उत्प्रेरक का कार्य करती हैं। अब वह मानसिक रूप से अपराध करने के लिए तैयार हो जाता है। हालांकि, उसे खुद अभी ज्ञान नहीं है कि उसके द्वारा किया जाने वाला कृत्य एक घिनौना अपराध है। कुछ समय बाद जब व्यक्ति को होश आता है तब तक घटना हो चुकी होती है। उसके द्वारा अपराध किया जा चुका होता है। उत्प्रेरक अपना दुष्प्रभाव दिखा चुका होता है। अब उसे समझ आता है कि विज्ञापन और अश्लील फिल्मों में दिखने वाली सुंदर कन्याएं तो विषकन्याएं थीं, जिन्होंने उसे अपराधी बना दिया है। अब समाज भी उसे धिक्कार रहा है और परिवार भी। जेल की सलाखों के पीछे वे तीन यार भी नदारद हैं जिनके साथ रंग जमाने का दावा किया
गया था।
अब जब घटना हो चुकी है तो घटना के बाद तरह-तरह के प्रदर्शन और बयानबाजी होती है। कुछ लोग महिलाओं पर अत्याचार के नाम पर झंडा बुलंद करते हैं। कुछ लोग कानून को कमजोर बताते हैं। कुछ लोग भारतीय संस्कृति के नैतिक पतन पर व्याख्यान देते हैं। कुछ बुद्धिजीवी टीवी चैनल पर प्राइम टाइम की शोभा बढ़ाने बैठ जाते हैं। विपक्ष धरना, प्रदर्शन और रेल रोको के माध्यम से खुद पर ध्यान केंद्रित करवाने में कामयाब हो जाता है। यानी सब कहीं न कहीं अपनी-अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त हो जाते हैं और कहीं दूर कोई अन्य धुएं, डिओ और तीन यार से प्रभावित होकर अश्लील फिल्में देखने के बाद एक नई घटना को अंजाम दे रहा होता है। आसान शब्दों मे कहें तो गुनाह को प्रेरित करने वाले तत्वों को समाप्त करने से ज्यादा चर्चा गुनहगार पर होने लगती है। मूल समस्या से ध्यान हटाने की एक वजह है। प्रेरित करने वाले तत्व एक बड़े बाजार का हिस्सा हैं। राजस्व प्राप्ति के स्रोत हैं। इसलिए जब-जब शराबबंदी पर रोक की बात उठती है, तब-तब शराब सिंडिकेट इतना शक्तिशाली बन जाता है कि वह अराजक तत्वों को आगे कर शराबबंदी होने से रोक देता है। कुछ बिकाऊ अर्थशास्त्री शराबबंदी के द्वारा होने वाली राजस्व हानि का विधवा विलाप शुरू कर देते हैं। ज्यादातर राजनेता इस सिंडिकेट के आगे घुटने टेकते हुए इनसे अर्थ लाभ भी ले लेते हैं। ऐसे में तमाम हानियों के बावजूद शराबबंदी नहीं हो पाती।
जिस-जिस प्रदेश में शराबबंदी हुई है वहां के नेता वास्तव में बधाई के पात्र हैं। गुजरात और बिहार में शराबबंदी के बाद नागरिकों का जीवन स्तर सुधरा है। यहां के लोग जो पैसा शराब पर खर्च करते थे वह अब उनके बच्चे कुछ सामान खरीदने में कर रहे हैं। शराब के जरिए जो पैसा सरकार के पास पहुंच रहा था, अब वह बाजार में घूम रहा है। कुल मिलाकर राजस्व की हानि तो हुई, किंतु नागरिकों का जीवन स्तर बेहतर हो गया। यदि आंकड़ों की बात करें तो बिहार में शराबबंदी के बाद से 6,000 करोड़ की राजस्व हानि हुई। इसके साथ ही एक चौकाने वाला आंकड़ा यह सामने आया है कि शराबबंदी के बाद बिहार में दुग्ध उत्पादों का उत्पादन 17 प्रतिशत बढ़ गया है। सिर्फ दुग्ध उत्पादन के द्वारा 10,000 करोड़ रुपए बैंकों में जमा हुए हैं। इस तरह देखा जाए तो शराबबंदी के बाद कुल मिलाकर राजस्व हानि नहीं, बल्कि लाभ हुआ है। वर्तमान में देश में प्रतिवर्ष शराब के कारण लगभग 30 लाख मौतंे होती हैं। शराब पीने से होने वाली बीमारियों पर खर्च भी बड़ा होता है। कुल मिलाकर शराब से एक ओर राजस्व मिलता है, तो दूसरी तरफ चिकित्सा पर वह धन खर्च भी हो जाता है। एक आंकड़े के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष तीन प्रतिशत लोग सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्चे के कारण बीपीएल में शामिल हो रहे हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपराधों को सिर्फ कानून के भरोसे नहीं रोका जा सकता क्योंकि भारतीय न्याय प्रक्रिया में एक जुमला प्रचलित है। भारत में विधि का शासन है, न्याय का नहीं। उस घटना को अपराध माना जाएगा जिसको विधि में अपराध माना गया है। इस प्रक्रिया में न्याय हुआ है या नहीं, इस पर विधि मौन है। शायद इसलिए ही गुनाह को प्रेरित करने वाले तत्वों पर कोई खास कार्रवाई नहीं हो पाती। ऐसे में यदि गुनाह के तत्वों को हम पूर्व में ही नियंत्रित कर लें तो महिलाओं के प्रति अपराधों पर लगाम लग सकती है।
बाल मन पर दुष्प्रभाव
किसी भी देश के निर्माण में वहां के बाल मन का अहम योगदान होता है। बाल मन में जैसे संस्कार भर दिए जाते हैं, वे ही प्रौढ़ अवस्था तक व्यक्ति को प्रेरित करते रहते हैं। बाल मन एक बीज है। बबूल के बीज में से आम का उद्भव नहीं होता। छोटे बच्चों पर अश्लीलता का प्रभाव कुछ ऐसा ही पड़ता है। इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लील सामग्री के द्वारा बच्चों की मनोवृत्ति बबूल के बीज सरीखी हो जाती है। उनकी जिस रचनात्मक मेधा के द्वारा देश की तरक्की में योगदान हो सकता था, उस मेधा की मनोवृत्ति ही नष्ट हो जाती है। जिस तरह बाढ़ आने पर नदी अपनी सीमाएं भूलकर तटबंध तोड़कर दूसरों को नुकसान पहुंचाने लगती है, ठीक वैसे ही अश्लीलता बाल मन पर प्रभाव डालती है। सामाजिक तटबंध तोड़कर बाल मनोवृत्ति अपराध की तरफ बढ़ने लगती है। यह स्थिति तब ज्यादा जटिल हो जाती है जब हम देखते हैं कि अश्लील फिल्मों के द्वारा बाल अपराधों में बढ़ोतरी हो रही है। नशा, जुआ जैसी लत की तरह अश्लीलता समाज पर एक व्यापक दुष्प्रभाव डाल रही है।
स्मार्टफोन बना रहे हैं सर्वसुलभ
महात्मा गांधी का कहना था कि तकनीक का गलत उपयोग पहले होता है। यह कथन आज भी सामयिक है। स्मार्टफोन से होने वाले फायदों से ज्यादा इसका गलत इस्तेमाल चिंतित कर रहा है। चीन में बने फोन इतने सस्ते हैं कि ये निम्न आय वर्ग के लिए भी सुलभ हो गए हैं (आय वर्ग को उल्लिखित करने से मेरा तात्पर्य यह है कि अब इस बीमारी में अमीर-गरीब का फासला खत्म हो चुका है)। ज्यादातर फोन में भंडारण क्षमता बहुत ज्यादा होती है। इसका इस्तेमाल फिल्मों को सुरक्षित करने में किया जाता है। वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया पर मित्रों के बीच अश्लील फिल्मों का आदान-प्रदान बेहद आम है।
तेज गति इंटरनेट के युग मंे अश्लील तस्वीर और उससे संबंधित अन्य सामग्री सबसे ज्यादा खोजी जा रही है। यहां तक कि बलात्कार जैसे घिनौने अपराध को भी लोग मनोरंजन का साधन मान कर खोज रहे हैं। इस संबंध में गूगल के आंकड़े बेहद चौकाने वाले हैं। गूगल के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में कीवर्ड 'रेप' (बलात्कार) को एक महीने में औसतन 40,10,000 बार ढूंढा गया। इसके अतिरिक्त इंडियन गर्ल्स रेप्ड, रेपिंग वीडियो/ स्टोरीज, रेप इन पब्लिक, लिटिल गर्ल रेप्ड, जैसे शब्द शामिल थे। ये आंकड़े सिर्फ गूगल सर्च का हिसाब हैं। अभी इसमें वे लोग शामिल नहीं हैं, जो मोबाइल की दुकान या साइबर कैफे में जाकर अश्लील सामग्री की मांग करते हैं और वहां से चिप मंे इसको ले लेते हैं। लोग अपनी कमाई का एक बड़ा भाग इस अनैतिक मनोरंजन पर खर्च कर रहे हैं। इस तरह के वीडियो द्वारा मनोवृत्ति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पिछले वर्ष मुंबई में गोवंडी के 70 वर्षीय वृद्ध को एक 13 साल की लड़की से बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। यह लड़की उसका छठा शिकार थी। पूर्वी दिल्ली में पांच साल की गुडि़या से बलात्कार प्रकरण में 22 और 19 साल के दो मजदूरों ने पुलिस हिरासत में कबूल किया था कि बलात्कार करने से पहले उन्होंने मोबाइल फोन पर अश्लील वीडियो देखे थे।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन सी आर बी) के आंकड़ों से ज्ञात हुआ कि बच्चों के साथ बलात्कार के मामले झारखंड जैसे पिछड़े प्रदेश में बेहद कम हैं। उत्तर प्रदेश, दिल्ली और मध्य प्रदेश तो इससे बहुत ज्यादा पीडि़त हैं। भले ही यह विश्वसनीय न लगे लेकिन 90 लाख भारतीय अश्लील सामग्री को डाउनलोड करने के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं और इस तरह की चीजों को हासिल करने के लिए हर साल औसतन 5,500 रु़ खर्च करते हैं।
भारत में स्मार्टफोन की संख्या कुल फोन उपभोक्ताओं की एक तिहाई तक पहुंच चुकी है। अब सोचिए, स्थिति कितनी और कहां तक जटिल हो चुकी है। इंटरनेट पर अश्लील चीजें खोजने वाले कोई दूसरे ग्रह के प्राणी नहीं हैं। ये हमारे समाज में ही हैं। हमारे ही बीच के लोग हैं। अब कौन गलत है या कौन सही? चर्चा इससे बहुत आगे बढ़ चुकी है। अब तो डर यह है कि इस मानसिक विकार से समाज को कैसे बचाया जाए? कहीं ऐसा न हो कि हम इस तरह की खोज करते रह जाएं और हममें से ही कोई हमारे आत्मीय स्वजन के साथ कोई घिनौना कृत्य कर जाए। दलीलों का वक्त खत्म, अब समाधान की तरफ बढ़ना है हमें।
सरकार से अनुरोध है कि अगर कहीं कानून के लचीलेपन के कारण समाज प्रभावित हो रहा है तो लचीलेपन में कसावट लाते हुए उसे समय रहते दुरुस्त कर लेना चाहिए और समाज को भी खुद से ये सवाल करना चाहिए कि कानून तो सिर्फ समस्या का उपचार दे सकता है। समस्या को रोकने के लिए हम भी तो अपना सामाजिक योगदान दे सकते हैं। अपना सामाजिक ढांचा मजबूत कर सकते हैं। अभी तो स्थिति कुछ ऐसी बन चुकी है कि घर सजाने का सपना तो बहुत बाद का है, पहले यह तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे?
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