ऋषि खेती - खेतों से उपजी आशा की किरण
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ऋषि खेती – खेतों से उपजी आशा की किरण

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Jun 26, 2017, 12:00 am IST
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दिंनाक: 26 Jun 2017 10:11:56

-रामवीर श्रेष्ठ-

कृषि के क्षेत्र में समृद्धि की राह पकड़ने वाले मध्य प्रदेश में 'किसानों का उग्र प्रदर्शन' निराशाजनक और छह किसानों की मौत दुर्भाग्यपूर्ण है। अखबारों की मानें तो उपज की उचित कीमत नहीं मिलने और कर्ज के बढ़ते बोझ के कारण किसान निराश हैं। लेकिन निराशा के इसी माहौल के बीच कुछ किसान ऐसे भी हैं, जो देश के अन्य किसानों को उम्मीद की नई सुबह दिखा रहे हैं। इन किसानों ने हालात के आगे घुटने नहीं टेके, बल्कि उसे चुनौती के रूप में लिया और खेती के तौर-तरीकों में बदलाव लाकर समृद्धि की फसल काट रहे हैं। किसी ने जैविक खेती को अपनाया तो कोई ऋषि खेती से अपनी जिंदगी को खुशहाल बना रहा है।
ऋषि खेती को 'जीरो बजट, प्राकृतिक खेती' भी कहा जाता है। जीरो बजट इसलिए, क्योंकि इसमें न तो खेतों की जुताई पर खर्च आता है और न ही खाद पर। यानी शुद्ध प्राकृतिक तरीके से खेती। दरअसल, जिसे हम फसल अवशेष कहते हैं, वही फसल के लिए प्राकृतिक भोजन है। इन्हीं अवशेषों और वातावरण से फसलें 92 फीसदी पोषक तत्व लेती हैं, जबकि धरती से मात्र 2 फीसदी पोषक तत्व ही लेती हैं। जैसे गन्ने की फसल कटने के बाद उसकी पत्तियों को जलाने की बजाए खेतों में बिखेर कर गेहूं के बीज डालिए और पानी देकर मुक्त हो जाइए। इसी तरह, गेहूं की फसल को आखिरी पानी देने से पहले अगली फसल के बीज छिड़क दीजिए।
हि२याणा में कुरुक्षेत्र स्थित लाडवा के किसान राजकुमार आर्य ने 'जीरो बजट, प्राकृतिक खेती' के इस स्वरूप को अपनाया तो उन्हें चौंकाने वाले परिणाम मिले। उन्होंने गन्ने के बाद बिना खेतों की जुताई किए गेहूं की खेती की और बंपर उत्पादन हुआ। ज्ञानसिंह कहते हैं, ''हमने ऐसा कभी सोचा नहीं था, लेकिन नतीजे चौंकाने वाले थे। हमारी फसल पड़ोसी की फसलों को चिढ़ा रही थी।'' यह कहानी केवल एक-दो किसानों की नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शामली के किसान ठाकुर धर्मपाल कहते हैं कि प्राकृतिक खेती का तरीका समझना आसान है। लेकिन किसानों का इसका सीधा लाभ मिले, इसके लिए इस वैदिक कृषि विधि के प्रचार, प्रसार के साथ प्रशिक्षण की भी व्यवस्था जरूरी है। इस विधि को अपनाने के बाद उन्होंने महसूस किया कि खेतों में जो वह सिंचाई करते हैं, वह पानी सीधे भू-तल तक पहुंच रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके खेत के आसपास का जलस्तर 25 फीट तक ऊपर आ गया। आज वही धर्मपाल आसपास के किसानों के लिए रोल मॉडल बन चुके हैं। वह कहते हैं, ''हमने कम जोत के किसानों के लिए मॉडल तैयार किए हैं, जिसमें किसान एक एकड़ जमीन से 5 लाख रुपये तक कमाई कर सकते हैं।''
इसी तरह, एक अन्य किसान हैं, राजकुमार सिंह। करीब 10 साल पहले इन्होंने 100 गांवों में विषमुक्त खेती का संकल्प लिया था। उन्होंने भी 'जीरो बजट, प्राकृतिक खेती' को अपनाया और आज वे न केवल सफल हैं, बल्कि 100 गांवों को विषमुक्त खेती का लक्ष्य भी हासिल कर चुके हैं। उन्होंने कहा, ''कौन कहता है कि पेड़ पर पैसे नहीं लगते? मेरी लीची 100 रुपये किलो बिकती है। पैसा बरस रहा है।'' यह कहते हुए राजकुमार भावुक हो जाते हैं और धरती को धन्यवाद देने लगते हैं। मुजफ्फरनगर के कालूराम भी छोटी जोत के किसान हैं, लेकिन अपना जैविक गुड़ 60 रुपये किलो बेचते हैं। इससे साल भर में उन्हें अच्छा खासा मुनाफा होता है।
थोड़ा और आगे बढ़ने पर पता चला कि मेरठ में भी एक युवा है जो नौकरी छोड़ कर खेती कर रहा है। मेरठ के अंदावली गांव के इस युवा का नाम है विजयपाल। एक तरफ जहां लोग खेती से मुंह मोड़ रहे हैं, निराशा के उसी माहौल में विजयपाल ने सफलता की नई इबारत लिखी है। विजय एक साथ कई फसलें उगाते हैं और उनकी सफलता का मंत्र भी यही है। विजयपाल की ही तरह बुलंदशहर के संजीव वत्स ने नौकरी छोड़ कर खेती करना शुरू किया। उन्होंने बताया कि जिस समय उन्होंने नौकरी छोड़ी उन पर साढ़े चार लाख रुपये का कर्ज था। अब वह पूरा कर्ज चुका चुके हैं और खुशहाल भविष्य के सपने देख रहे हैं। संजीव ने बताया कि जैविक खेती से उन्हें यह फायदा हुआ कि इसने खेती में होने वाले नुकसान का पता ही नहीं चलने दिया। वह मेहनत और लगन से खेती करते रहे और अच्छी उपज मिलती रही।
सूखे में खुशहाली का मॉडल
बुंदेलखंड, जहां किसानों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। इस क्षेत्र के किसान तंगहाल और हालात के आगे खुद को लाचार महसूस करते हैं, लेकिन इसी इलाके के दो किसान न केवल भरपूर फसल उत्पादन कर रहे हैं, बल्कि अच्छा मुनाफा भी कमा रहे हैं। झांसी के दोनों किसान बुंदेलखंड के अन्य किसानों के लिए प्रेरणा हैं। इनमें एक हैं अयोध्या कुशवाह, जो एक साथ कई फसलें उगाते हैं। मूंछ पर ताव देते हुए अयोध्या कुशवाह कहते हैं कि उनकी हालत दूसरे किसानों की तरह नहीं है। वह कहते हैं, ''मैं गुलाब के साथ कई और फसलें भी उपजाता हूं। केवल एक एकड़ जमीन से सालाना छह लाख रुपये तक मेरी कमाई हो जाती है।'' इसी तरह, कृषि पंडित के नाम से पूरे उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध अवधेश प्रताप लल्ला क्षेत्र के दूसरे किसान हैं, जिन्होंने खेती का एक मॉडल विकसित किया है। सूबे के अधिकांश किसान उन्हें उन्नत खेती करने वाले किसान के रूप में जानते हैं। अवधेश ने जो मॉडल विकसित किया है, उसे आप 'लल्ला मॉडल' भी कह सकते हैं। उनका कहना है कि यदि किसान के पास एक एकड़ जमीन, तीन गाय, गोबर गैस प्लांट हो, इसके अलावा बूंद-बूंद सिंचाई की सहूलियत और खेतों के चारों ओर फसल की सुरक्षा के लिए बाड़ हो तो उसकी समृद्धि तय है। उन्होंने राज्य सरकार को एक सुझाव भी दिया था। इसमें उन्होंने कहा था कि कृषि एक समन्वित उपक्रम है और इसे अलग-अलग खांचों में नहीं बांटा जाए। लेकिन जब सरकार ने उनके सुझाव पर ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने अपनी 10 एकड़ जमीन को प्रयोगशाला बना दिया। खेत में ही गोबर गैस प्लांट लगाया। अवधेश लल्ला ने लोगों से गायें लीं और अपने खेत से निशुल्क चारा दिया। जिसकी गाय थी वह दूध ले गया और गोबर उनके पास रह गया। उन्होंने गोबर को प्लांट तक पहुंचाया। इसके अलावा, खेतों में सिंचाई के लिए तीन हौज बनाए। दो हौज से पानी छन कर तीसरे हौज में आता है, जिससे वह खेतों में सिंचाई करते हैं। उनका प्रयोग सफल रहा और जो नतीजे सामने आए उसने उनका हौसला बढ़ाया। धीरे-धीरे एक एकड़ जमीन में इतना चारा हो गया, जिससे 20 गायें पाली जा सकती थीं। इसके अलावा, उन्होंने 25 फीसदी हिस्से में फलदार पेड़ लगाए। वह कहते हैं, ''अगर इस मॉडल को देश में अपनाया जाए तो हम 33 फीसदी वनों का लक्ष्य आसानी से हासिल कर सकते हैं। साथ ही, खेती में भी मुनाफा कमा सकते हैं।''
एक एकड,़ 10 लाख तक कमाई
इसी तरह, दिल्ली से लगते हरियाणा के सोनीपत जिले के गांव अटेरना के कंवल सिंह चौहान ने भी अपने साथ पूरे गांव को समृद्ध बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इस गांव का एक किसान एक एकड़ में बेबी कॉर्न का उत्पादन कर डेढ़ लाख रुपये तक कमाई करता है। बकौल चौहान, इस गांव में बड़े पैमाने पर बेबी कॉर्न की खेती की जाती है, जिसे देशभर में भेजा जाता है। उनका कहना है कि एक एकड़ में मशरूम से 10 लाख रुपये तक कमाया जा सकता है। यानी किसान हर माह 83,000 रुपये तक की कमाई कर सकते हैं।
क्या करें किसान?
 जब खेतों की जुताई नहीं होती है तो खरपतवार की मात्रा काफी घट जाती है। ऐसे में फसल काटने के पहले नई फसल के बीज डाल दिए जाएं तो ये खरपतवार के पहले अंकुरित हो जाते हैं और फसल को बढ़ने का पूरा मौका भी मिल जाता है। इसलिए बिजाई इस तरह से की जाए कि दोनों फसलों के बीच अंतर नहीं रहे। इससे खरपतवार को उगने का मौका नहीं मिलता। खरपतवार को उगने से रोकने के लिए फसल कटाई के तुरंत बाद खेतों में पुआल फैला देना चाहिए। इसके अलावा, नई फसल के साथ भूमि आवरण के तौर पर सफेद क्लोवर की बुआई करने से भी खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। खेतों में पुआल बिछा देने से वह सड़ कर बढि़या खाद में तब्दील हो जाता है। इसे सड़ाने के लिए कुक्कट खाद की एक पतली परत भी डाली जा सकती है। जैसे- मई में रबी की फसल काटने के बाद उसका पुआल खेत में बिखेर दिया जाता है। यदि धान की बुआई बरसात के शुरुआत में की गई है और बीज ढके नहीं गए हैं तो उन्हें चूहे या पक्षी खा जाते हैं या वे सड़ जाते हैं। इससे बचने के लिए बिजाई से पहले किसान धान के बीज को मिट्टी की गोलियों में लपेट सकते हैं। इसके लिए बीज को टोकरी या किसी बर्तन में डालें और उस पर महीन क्ले मिट्टी छिड़क कर उसे घुमाएं और बीच-बीच में पानी का छिड़काव करें। ऐसा करने से बीज पर मिट्टी की परत चढ़ जाती है और इनकी गोलियां बन जाती हैं। दूसरे तरीके से भी गोलियां बनाई जा सकती हैं। इसमें बीज को कुछ घंटे तक पानी में भिगाने के बाद उसे गीली मिट्टी में हाथ या पैरों से गूंथ लिया जाता है। इसके बाद किसी जाली से मिट्टी को दबा कर इसके छोटे-छोटे टुकड़े बना कर इन्हें एक-दो दिन तक सुखाया जाता है ताकि गोलियां बनाने में आसानी हो। एक गोली में एक ही बीज रहे तो बहुत अच्छा रहेगा। एक दिन में एक एकड़ में बुआई लायक गोलियां बनाई जा सकती हैं।
इसी तरह, अक्तूबर के शुरू में कटाई से पहले क्लोवर तथा गेहूं/सरसों के बीज को धान की तैयार फसल के बीच छिड़क दिया जाता है। इससे गेंहू/सरसों और क्लोवर के पौधे जब एक-दो इंच बढ़ जाते हैं, तब तक धान की फसल भी कटने योग्य हो जाती है। हालांकि कटाई के समय गेंहू/सरसों और क्लोवर के पौधे कुचल जाते हैं, लेकिन इन्हें दोबारा पनपने में ज्यादा समय नहीं लगता। धान की गहाई पूरी होने के बाद पुआल को खेत में फैला दिया जाता है। नवंबर मध्य से दिसंबर मध्य के बीच धान की गोलियों को गेंहू/सरसों की फसल के बीच बिखेरने के बाद हफ्ता-दस दिन तक खेतों में पानी बनाए रखा जाता है। इससे क्लोवर और खरपतवार कमजोर पड़ जाते हैं और धान को गेंहू/सरसों की पुआल में से अंकुरित होकर बाहर आने का मौका मिल जाता है। जून-जुलाई की बारिश ही पौधों के लिए पर्याप्त होता है। बस अगस्त में सिंचाई करनी पड़ती है, पर यह ख्याल रखा जाना चाहिए कि खेतों में पानी जमा नहीं रहे। तब तक फसल कटाई का समय भी हो जाता है।  

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