मानवता के दुश्मनों पर हो प्रहार
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मानवता के दुश्मनों पर हो प्रहार

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Jun 12, 2017, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Jun 2017 15:17:33

7मई, 2017

रपट 'आंसू और आक्रोश' से जाहिर है कि देश के अंदर दुश्मनों की कमी नहीं है। सुकमा में खून के प्यासे नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 25 से ज्यादा जवानों को मौत के घाट उतारकर शासन-प्रशासन को खुली चुनौती दी है। सरकार को इस तरह के हमलों से निबटने के लिए जल्द ठोस रणनीति बनानी चाहिए।
—शुभव वैष्णव, सवाई माधोपुर(राज.)

अब किसी भी हमले पर निंदा करने से काम नहीं चलने वाला, क्योंकि जिन सैनिकों को हम हमलों में खोते हैं, वह एक-एक सैनिक कैसे तैयार होता है, कभी इस बात का अंदाजा कोई लगाता है? और जब वे शहीद होते हैं तो कितनी माताओं की गोद सूनी होती है, कितने बच्चे अपने पिता को खोते हैं? इन बातों की ओर कम लोगों का ही ध्यान जाता है।
—सोनी सक्सेना, फरीदाबाद(हरियाणा)

सरकार वनवासी क्षेत्रों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए लगातार विकास के मार्गों को बनाने में लगी हुई है। कई प्रमुख क्षेत्रों  में जहां नक्सलियों के गढ़ हैं, वहां विकास हो रहा है। बस यही बात उन्हें अखर रही है। ऐसे उपद्रवी लोगों को लगता है कि यह क्षेत्र अगर मुख्य धारा से जुड़ गया तो वर्षों से चला आ रहा है, हमारा राज वह खत्म हो जाएगा। यहां के लोग जब बाहर जाएंगे उनमें समझ बढ़ेगी और वे देश दुनिया को जानेंगे। जैसे ही वे देश-दुनिया के बारे में जान गए, बस यहीं से उनका राज खत्म। इसलिए यहां कोई भी विकास न होने दो। जो आए उसे खत्म कर दो। यही खेल वनवासी क्षेत्र में चल रहा है।
—कृष्ण वोहरा, सिरसा(हरियाणा)

हमें नक्सलवाद की विषबेल को जड़ से काटना होगा और जो इसे सींचने का काम करते हैं, उन पर कड़ी कार्रवाई करनी होगी। देश के अंदर ही देश को क्षति पहुंचाने वालों को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। जिस तरह दीपक बुझने से पहले तेज लौ के साथ फफकता है, वैसे ही नक्सली आतंक अपने खत्म होने के पहले इस तरह के कारनामे करके अपने अंत का खुद संकेत दे रहे हैं। देर-सवेर इनका अंत निश्चित है।
—आनंद वार्ष्णेय, देहरादून(उत्तराखंड)

 पांच दशक  से चले आ रहे नक्सल विरोधी अभियान एवं वनवासी क्षेत्रों में अर्धसैनिक बलों की तैनाती के बाद भी नक्सली समस्या को लेकर कोई ठोस सुनियोजित रणनीति दिखाई नहीं देती। आखिर कब इस क्षेत्र में हमारे सुरक्षा बल हावी हो सकेंगे और नक्सलियों का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम होंगे। यह समस्या तब और जटिल हो जाती है जब नक्सल प्रभावित गलियारा कई राज्यों से होकर गुजरता है और इससे निबटने की उनके पास कोई रणनीति नहीं होती है। सब अपने-अपने तरीकों से नक्सलवाद से निबट रहे हैं। लेकिन इस विवाद के बीच हमारे जवानों को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
—राममोहन चंद्रवंशी, हरदा(म.प्र.)

 एक तरफ घाटी के हालात नाजुक हैं, सीमा पार से घुसपैठ कम होने का नाम नहीं ले रही। तो दूसरी तरफ देश के अंदर दुश्मन फन फैलाए बैठे हंै। ऐसा नहीं है कि सरकार सुकुमा या घाटी में हो रहे हमलों के बाद  हाथ पर हाथ रखकर बैठी है। लेकिन सरकार की ओर से जो कार्रवाई की जा रही हैं, वह अपर्याप्त है। ऐसे में सरकार को ठोस कदम उठाकर देशद्राहियों और आततायियों के फन को कुचलना होगा। तभी इस प्रकार के हमले बंद होंगे।
—महेश गंगवाल, अजमेर(राज.)

करनी होगी कड़ी कार्रवाई
रपट 'चुनौती प्रशासन में जान फूंकने की (7 मई, 2017)' से उजागर हुआ कि प्रशासन घाटी में ईमानदारी से काम नहीं कर रहा है। कहीं न कहीं उनका समर्थन अलगाववादी ताकतों को रहता है, जिसके कारण वे अपने मंसूबों में कामयाब हो जाते हैं। इसलिए ही तो श्रीनगर के उपचुनाव में विरोधियों द्वारा मतदान केन्द्रों को घेर कर मतदाताओं में खौफ भर दिया गया। ऐसा नहीं है कि घाटी में पहली बार मतदान बहिष्कार की घोषणा की गई है। इससे पहले भी घोषणाएं हुईं लेकिन प्रशासन ने उन्हें सफल होने नहीं दिया। इसलिए इस बार प्रशासन का लचर रवैया सवाल खड़े करता है कि आखिर उसके रहते अलगाववादी अपने मसूंबे में सफल कैसे हो गए?
—दया वर्धिनी, सिकंदराबाद(हैदराबाद)

 कश्मीर समस्या का एक ही हल है वहां समस्या पर सीधे चोट करना हुर्रियत के अलगाववादी नेताओं को बयानबाजियों से बाज आने को कहना प्रशासनिक ढिलाई  खत्म करना। घाटी में हालत दिन-प्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं। अब समय है जब गंभीरता से चिंतन करना होगा।
—बी.एल.सचदेवा, आईएनए बाजार(नई दिल्ली)

अमेरिका का अडि़यल रवैया

पेरिस समझौता नहीं, उन्हें जरा स्वीकार
दुनिया चाहे जो कहे, उनको सब बेकार।
उनको सब बेकार, समस्या नहीं जानते
ट्रम्प स्वयं को ईश्वर से भी बड़ा मानते।
कह 'प्रशांत' यदि सारी दुनिया मिट जाएगी
अमरीकी जनता फिर कैसे बच पाएगी?
— 'प्रशांत'

अब करना होगा इनका इलाज!
काफी समय से राष्ट्रीय विमर्श से गायब रहे नक्सली सुकमा में लगातार हमलों के बाद चर्चा के केंद्र में हैं। नक्सलवादियों की यही रणनीति है कि बीच-बीच में इस तरह की क्रूर हिंसात्मक गतिविधियों द्वारा देश को झकझोरते रहो। नक्सली इस तरह के क्रियाकलापों द्वारा जहां सरकार के खिलाफ अपनी अनैतिक लड़ाई को जीवित एवं सक्रिय दिखाना चाहते हैं, वहीं अपने शहरी सफेदपोश थिंकटैंक को भी अपनी क्षीण होती शक्ति का एहसास न होने देने का प्रयास करते हैं। नक्सलवादियों की शैतानी हरकतों पर पर्दा डालने के लिए छद्म बुद्धिजीवी (जिन्हें शहरी नक्सली कहना ज्यादा उचित होगा) भिन्न-भिन्न तरह के सैद्धांतिक मुखौटे पहनने का स्वांग भरते हैं। ये लोग सरकारी खचार्ें पर सेमिनार करके, प्रेसवार्ता करके, नक्सलियांे के साहित्य का वितरण करवाकर, उनके लिए सहानुभूति बटोरकर, विभिन्न क्रियाकलापों द्वारा अपने इस कुत्सित अभियान को अंजाम देते हैं।
आम भारतीय जनमानस को इस विषय में बेहद सतर्क और जागरूक रहने की आवश्यकता है। नक्सलवादी सिद्धांतविहीन हैं। ये लोग अपने नापाक सिद्धांतों की आड़ में जनजातीय महिलाओं के यौन शोषण को अंजाम दे रहे हैं, जनता से अवैध धन उगाही करना इनका प्रमुख धंधा है। बूढ़ों-बच्चों को अपनी ढाल बनाकर पूरे क्षेत्र में स्वघोषित तानाशाही के जरिये अकूत धन संपत्ति एकत्रित करना चाहते हैं।
नक्सलियों का एक ही ध्येयवाक्य है 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है' अर्थात इनकी दृष्टि में  हिंसा से ही सत्ता प्राप्ति संभव है। इसीलिए ये शहरी आकाओं की सरपरस्ती में अपने सिद्धांतों को गढ़कर भारतीय शासन के खिलाफ अनैतिक लड़ाई लड़कर अपने ही लोगों का खून बहा रहे हैं। ये लोग खुद को जिनका हमदर्द दर्शाते हैं, उन्हीं वनवासियों का भरपूर शोषण करते हैं और यह सब शहरों में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवियों के इशारे पर हो रहा है। 'शहरी नक्सलियों' का खूंखार नक्सलियों से संबंध भी अब तो प्रमाणित होने लगा है। दिल्ली विवि. के जी.एन.साईंबाबा को सजा मिलना इसका उदाहरण है, जो नक्सलियों के थिंक टैंक के तौर पर लंबे समय से राजधानी में रहकर सक्रिय था। अभी भी कई ऐसे तत्व हैं जो अंदर ही अंदर तंत्र को तोड़ने का काम कर रहे हैं।
—डॉ. रवि प्रभात, २४'ँ58@ॅें्र'.ूङ्मे

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